लोकतंत्र के क्षरण की कई रिपोर्ट के बाद सरकार ने थिंक टैंक से डेमोक्रेसी इंडेक्स बनाने को कहा

विभिन्न अंतरराष्ट्रीय सूचकांकों में भारत में लोकतंत्र की स्थिति को सवालों के घेरे में रखा गया है. अब एक मीडिया रिपोर्ट बताती है कि भारत सरकार ने कई अवसरों पर इसके साथ काम कर चुके देश के थिंक टैंक ऑब्ज़र्वर रिसर्च फाउंडेशन (ओआरएफ) से लोकतंत्र से संबंधित रेटिंग ढांचा तैयार करने को कहा है.

संसद भवन में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी. (फोटो साभार: पीआईबी)

विभिन्न अंतरराष्ट्रीय सूचकांकों में भारत में लोकतंत्र की स्थिति को सवालों के घेरे में रखा गया है. अब एक मीडिया रिपोर्ट बताती है कि भारत सरकार ने कई अवसरों पर इसके साथ काम कर चुके देश के थिंक टैंक ऑब्ज़र्वर रिसर्च फाउंडेशन (ओआरएफ) से लोकतंत्र से संबंधित रेटिंग ढांचा तैयार करने को कहा है.

नई दिल्ली: केंद्र की नरेंद्र मोदी सरकार ने हाल ही में एक प्रमुख भारतीय थिंक टैंक से अपना खुद का डेमोक्रेसी रेटिंग सूचकांक विकसित करने के लिए संपर्क साधा है.

अल जज़ीरा की रिपोर्ट के अनुसार यह कदम सरकार का ऐसे समय में सामने आया है जब कई वैश्विक समूहों की रेटिंग में भारत के लिए गिरावट देखने को मिली है. साथ ही इन समूहों की ओर से गंभीर आलोचनाओं का सामना भी सरकार को करना पड़ा है.

रिपोर्ट के मुताबिक, इस परियोजना पर चर्चा में शामिल दो लोगों ने अल जज़ीरा की संवाददाता अनीशा दत्ता को बताया कि कई अवसरों पर भारत सरकार के साथ मिलकर काम करने वाला ऑब्ज़र्वर रिसर्च फाउंडेशन (ओआरएफ) लोकतंत्र से संबंधित रेटिंग ढांचा तैयार कर रहा है.

एक शीर्ष सरकारी अधिकारी ने नाम न छापने की शर्त पर कहा, ‘जनवरी में नीति आयोग द्वारा एक समीक्षा बैठक आयोजित की गई थी, जिसमें यह फैसला लिया गया था कि ओआरएफ कुछ हफ्तों में डेमोक्रेसी रैंकिंग इंडेक्स जारी करेगा.’

अधिकारी ने यह भी कहा कि यह नई रैंकिंग प्रणाली जल्द ही जारी की जा सकती है.

विकास से संबंधित एक अन्य सूत्र ने अल जज़ीरा को बताया, ‘ओआरएफ द्वारा तैयार किया जा रहा डेमोक्रेसी इंडेक्स कुछ हफ्ते पहले एक सहकर्मी समीक्षा प्रक्रिया और कार्यप्रणाली पर विशेषज्ञ विश्लेषण से गुजरा है… इसके जल्द ही जारी होने की संभावना है.’

वैश्विक रैंकिंग के संबंध में मोदी सरकार का पक्ष रखने और इसकी नीतियों पर चर्चा करने वाला सरकार के अपने थिंक टैंक ‘नीति आयोग’ ने इस संबंध में कहा है कि वह ओआरएफ द्वारा बनाए जा रहे सूचकांक में सीधे तौर पर शामिल नहीं है.

हालांकि, अल जज़ीरा के अनुसार नीति आयोग ने इस सूचकांक की तैयारी में किसी बाहरी थिंक टैंक की सहायता करने में अपनी भागीदारी की न तो पुष्टि की और न ही इससे इनकार किया.

नीति आयोग के एक प्रवक्ता ने अल जज़ीरा को बताया कि नीति आयोग किसी भी तरह के लोकतंत्र सूचकांक तैयार करने की प्रक्रिया में शामिल नहीं है. ‘भारत सरकार देश में सुधारों और विकास को बढ़ावा देने के लिए (विभिन्न वैश्विक संस्थाओं द्वारा) चुनिंदा वैश्विक सूचकांकों की निगरानी करती है.’

रिपोर्ट में कहा गया है कि ईमेल और पिछले तीन वर्षों में सरकारी एजेंसियों के बीच हुई बैठकों के मिनट्स, जिसे अल जज़ीरा ने देखा और समीक्षा की है, इस ओर इशारा करते हैं कि मोदी सरकार और प्रशासन के बीच भारत के लोकतंत्र की साख पर उठ रहे सवालों को लेकर चुनौती देने की जल्दबाज़ी दिखाई देती है. इस संबंध में सरकार की एक रिपोर्ट भी शामिल है.

प्रेस की स्वतंत्रता

अल जज़ीरा के अनुसार मोदी सरकार की यह कोशिश साल 2021 में अमेरिका स्थित और सरकार द्वारा वित्त पोषित गैर सरकारी संगठन ‘फ्रीडम हाउस’ द्वारा लोकतंत्र की रेटिंग में भारत की स्थिति को ‘स्वतंत्र’ से घटाकर ‘आंशिक रूप से मुक्त‘ करने के बाद शुरू हुई.

इस संस्था ने भारत की रैंकिंग में गिरावट के लिए ‘मीडिया, शिक्षाविदों, नागरिक समाज समूहों और प्रदर्शनकारियों द्वारा असहमति की अभिव्यक्ति पर सरकार की कार्रवाई’ को जिम्मेदार ठहराया था.

स्वीडन में स्थित  वैराइटी ऑफ डेमोक्रेसी (वी-डेम) इंस्टिट्यूट ने भी 2021 में भारत को ‘चुनावी तानाशाही’ के तौर पर वर्गीकृत किया था. अपनी 2023 की रिपोर्ट में इस संस्था ने भारत को और भी निचले पायदान पर रखते हुए, ‘पिछले दस सालों में सबसे खराब तानाशाही में से एक‘ के रूप में वर्गीकृत किया.

इकोनॉमिस्ट इंटेलिजेंस यूनिट ने अपने 2020 के लोकतंत्र सूचकांक में भारत को 53 वें स्थान पर रखा और इसे ‘त्रुटिपूर्ण लोकतंत्र’ करार दिया. इस सूचकांक में गिरावट के संबंध में नागरिकता संशोधन अधिनियम, नागरिकों के राष्ट्रीय रजिस्टर और जम्मू-कश्मीर के विशेष दर्जे को खत्म करने जैसे कारकों का हवाला दिया गया.

अल जज़ीरा ने बताया कि साल 2021 में केंद्र सरकार के मंत्रालयों और विभागों जैसे गृह मामलों, विदेश मामलों और विधायी विभागों के शीर्ष अधिकारियों को कैबिनेट सचिव राजीव गौबा द्वारा लोकतंत्र सूचकांकों में भारत के प्रदर्शन की निगरानी करने और उन क्षेत्रों की पहचान करने का निर्देश दिया गया था, जहां देश की स्थिति में गिरावट आई थी. इसके बाद भारत सरकार ने 30 वैश्विक सूचकांकों में अपने प्रदर्शन की निगरानी शुरू की, जिसमें विभिन्न मंत्रालयों को व्यक्तिगत रेटिंग पर नज़र रखने का काम सौंपा गया.

उदाहरण के लिए, कानून और न्याय मंत्रालय के तहत विधायी विभाग को ईआईयू के लोकतंत्र सूचकांक पर नजर रखने का काम सौंपा गया था. इसमें नीति आयोग को सभी सूचकांकों में डेटा की निगरानी के लिए एक डैशबोर्ड बनाने के लिए कहा गया था.

हिंदुस्तान टाइम्स के मुताबिक, साल 2021 में कानून मंत्रालय ने भारत के मूल्यांकन पर इकोनॉमिस्ट इंटेलिजेंस यूनिट (ईआईयू) से विवरण मांगने के लिए लंदन में भारत के उच्चायोग से संपर्क किया. लेकिन ईआईयू ने सरकार को विवरण देने से इनकार कर दिया.

इस मामले में ईआईयू के मुख्य अर्थशास्त्री साइमन बैपटिस्ट ने ट्वीट कर यहां तक कहा कि ‘स्पष्ट कारणों से हम रिलीज से पहले सरकारों के साथ अपने स्कोर की जांच नहीं करते हैं! हम अपना स्वतंत्र मूल्यांकन सामने रखते हैं.’

यह साफ है सरकार का यह कदम देश कि गिरती लोकतंत्र रैंकिंग के बारे में सरकार की चिंता को दर्शाता है.

डेटा नैरिटिव को नियंत्रित करना

यह पहला उदाहरण नहीं है जब मोदी सरकार ने डेटा को नियंत्रित करने की कोशिश की है. हालांकि डेटा के आधार पर किए गए भ्रामक दावे भी एक अलग मुद्दा है.

स्वतंत्र डेटा पत्रकार प्रमित भट्टाचार्य ने ‘भारत की सांख्यिकीय प्रणाली: अतीत, वर्तमान और भविष्य’ शीर्षक वाले अपने पेपर में भारतीय सांख्यिकी के साथ प्रसिद्ध समस्याओं पर प्रकाश डाला है.

इनमें ‘राष्ट्रीय सांख्यिकी संगठन की स्वतंत्रता की कथित कमी, डेटा नैरेटिव को नियंत्रित करने की इच्छा रखने वाली सरकार की घटनाएं, एमओएसपीआई (सांख्यिकी और कार्यक्रम कार्यान्वयन मंत्रालय) और सरकार के विभिन्न अंगों के बीच संघर्ष, केंद्रीय स्तर पर सांख्यिकीविदों की गुणवत्ता और महत्व को नुकसान पहुंचाना शामिल है.’ इसमें राज्य स्तर पर वित्तीय और मानव संसाधनों की कमी की बात भी कही गई है.

ब्रिटेन स्थित ओवरसीज डेवलपमेंट इंस्टिट्यूट के एक वरिष्ठ फेलो रथिन रॉय ने सीएनबीसी-टीवी18 की लता वेंकटेश को बताया कि साल 1950 से 1980 के दशक के बीच नौकरशाही झगड़ों के बावजूद सरकार की सांख्यिकीय प्रणाली में भागीदारी थी, क्योंकि उसे आगे की योजना बनाना के लिए उस जानकारी की आवश्यकता थी. अब सरकार को इसकी जरूरत नहीं है और यही व्यवस्था के खराब होने का बड़ा कारण है.

गलत डेटा!

यहां एक अन्य पहलू भी है जो है खराब डेटा, या डेटा का भ्रामक विश्लेषण.

उदाहरण के लिए, जुलाई 2022 से जून 2023 के आवधिक श्रम बल सर्वेक्षण (पीएलएफएस) डेटा में इस बात पर जोर दिया गया कि भारत में 15 वर्ष और उससे अधिक आयु के व्यक्तियों के लिए बेरोजगारी दर छह साल के निचले स्तर पर पहुंच गई है. हालांकि, संख्याओं पर एक विस्तृत नज़र डालने से पता चलता है कि भारत में बड़ी संख्या में व्यक्ति स्व-रोज़गार या अवैतनिक श्रम में लगे हुए हैं.

इंडियन एक्सप्रेस के डेटा विश्लेषण के मुताबिक, देश में वास्तव में जो नौकरियां सृजित हो रही हैं, वह केवल ‘स्वरोजगार’ जैसी हैं. जब कोई अर्थव्यवस्था बढ़ती है, तो व्यवसाय लोगों को रोजगार देते हैं. जब कोई अर्थव्यवस्था संघर्ष करती है, तो लोग अपनी नियमित नौकरियां खो देते हैं, और ‘स्व-रोज़गार’ की ओर बढ़ने लगते हैं.

विकास अर्थशास्त्री संतोष मेहरोत्रा समेत अन्य अर्थशास्त्रियों ने भी कहा है कि नीति आयोग का गरीबी कम करने का दावा सच्चाई से अलग है.

संतोष मेहरोत्रा ने बिजनेस स्टैंडर्ड को बताया कि जब नौकरी में वृद्धि और वास्तविक मज़दूरी कम हो गई है तो गरीबी कैसे कम हो सकती है? भारत में लगभग 190 मिलियन श्रमिक (2021-22) प्रति दिन केवल 100 रुपये तक कमा रहे हैं (वास्तविक रूप से 2010 की कीमतों पर) जिसे बिल्कुल गरीब के रूप में वर्गीकृत किया जा सकता है, जबकि 2011-12 में यह केवल 106.1 मिलियन श्रमिक थे.

इसी तरह लगभग 144 मिलियन श्रमिक 2021-22 में 100 रुपये से 200 रुपये के बीच कमा रहे हैं. ये निष्कर्ष इस ओर इशारा करते हैं कि भारत में श्रम बाजार की स्थितियों की जांच करने की आवश्यकता है.

ध्यान रहे कि साल 2022-23 का घरेलू उपभोग व्यय सर्वेक्षण (एचसीईएस )एक दशक से अधिक समय के बाद जारी किया गया. अब यह कार्यप्रणाली में बदलाव के चलते पिछले दौर के साथ तुलनात्मक नहीं है.

एचसीईएस 2022-23 रिपोर्ट स्पष्ट रूप से ‘तुलनात्मकता से संबंधित मुद्दों’ को रेखांकित करते हुए कहती है कि ‘एचसीईएस: 2022-23 में उपभोग व्यय पर पिछले सर्वेक्षणों की तुलना में कुछ बदलाव हुए हैं’ और इसकी तुलना पहले के सीईएस दौर से नहीं की जानी चाहिए.

गौरतलब है कि इस बीच जनगणना की कवायद अभी भी रुकी हुई है.