उत्तर प्रदेश के जाने-माने राजनीति विज्ञानी, लेखक व स्तंभकार डाॅ. रामबहादुर वर्मा को राष्ट्रीय व अंतरराष्ट्रीय राजनीति के दो टूक व वैकल्पिक नजरिये वाले विश्लेषणों के लिए जाना जाता है. 2006 में भारत के राजनीतिक दलों की शक्ति व सीमाएं उजागर करने वाली उनकी पुस्तक ने प्रकाशित होते ही ढेर सारी चर्चाएं बटोर ली थीं. उन्होंने तीन अलग-अलग पुस्तकों में समाजवादी विचारकों आचार्य नरेंद्रदेव व डाॅ. राममनोहर लोहिया और कांग्रेस नेता फिरोज गांधी के व्यक्तित्व, कृतित्व व विचारधाराओं का विश्लेषण किया है तो एक अन्य पुस्तक में आरएसएस की विचारधारा का.
पिछले दिनों लोकसभा चुनाव का कार्यक्रम घोषित हुआ तो लेखक और पत्रकार कृष्ण प्रताप सिंह ने इस चुनाव से जुड़ी विभिन्न विडंबनाओं पर डाॅ. वर्मा से लंबी बातचीत की. पेश हैं उसके प्रमुख अंश:
2019 की तरह इस बार भी विपक्ष पूरी तरह एक नहीं हो पाया है. फिर भी इतना तो हुआ है कि कहा जा सके कि लड़ाई मुख्यतः दो गठबंधनों-सत्तारूढ़ एनडीए और विपक्षी इंडिया-के बीच है.
नहीं, लड़ाई गठबंधनों के बीच कतई नहीं है, क्योंकि एनडीए कभी रहा होगा, अब तो वह गठबंधन ही नहीं है. वह भाजपा के वर्चस्व वाला जमावड़ा है और उसके ज्यादातर घटक दल किसी न किसी मजबूरी में मन मसोस कर उसमें हैं. वे बड़ी सीमा तक भाजपा की रीति-नीति से असहमत और मीडिया के इस प्रचार के शिकार हैं कि वोट तो नरेंद्र मोदी के नाम पर ही मिलते हैं. मुझे इसलिए भी उसे गठबंधन मानने से हिचक है कि उसके घटक दल भाजपा से बराबरी के स्तर पर बात करने की ही स्थिति में नहीं हैं.
लेकिन इंडिया…
हां, ‘इंडिया’ सही अर्थों में गठबंधन है. इसमें कांग्रेस प्रमुख दल तो है पर घटक दल कांग्रेस की छाया भर नहीं हैं. द्रमुक, राजद, सपा, झामुमो और आम आदमी पार्टी (आप) जैसे घटक अपने-अपने प्रदेशों में इस कदर निर्णायक हैं कि बिहार, उत्तर प्रदेश, तमिलनाडु, बिहार, उत्तर प्रदेश, झारखंड और दिल्ली आदि में कांग्रेस कितनी सीटों पर लड़े, इस निर्णय में भी उनकी भूमिका है. इतनी भूमिका कि कई जगह दोस्ताना संघर्ष की भी नौबत है.
इस बार एक अच्छी बात यह है कि चुनाव आयोग दोनों पक्षों को लेवल प्लेइंग फील्ड उपलब्ध कराने की बात कह रहा है.
कह ही तो रहा है. उसे यह तक नहीं दिख रहा कि गोदी मीडिया अभी से इस प्लेइंग फील्ड का लेवल बिगाड़ने में लगा है. वह विपक्ष को परिदृश्य से बाहर कर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के मुखारविंद से निकले ‘अबकी बार, चार सौ पार’ का उनसे आगे बढ़कर प्रचार कर रहा है. उनकी प्रायः हर सभा का सजीव प्रसारण कर ऐसा जताने की कोशिश कर रहा है कि उन्होंने मतदान से पहले ही हिंदुस्तान पर फतह कर ली है. इस मीडिया को लगता है कि वे नेपोलियन जैसे योद्धा हो गए हैं, जिसकी फौज ने पूरे यूरोप को रौंद दिया था.
हद तो तब हो गई, जब इस मीडिया ने उनके हाल के सरकारी तामझाम वाले कश्मीर दौरे को उसकी जनता का दिल जीतने की उनकी कोशिश करार दिया. बावजूद इसके कि उन्होंने कश्मीर का विशेष तो क्या साधारण राज्य का दर्जा भी छीन रखा है. दूसरी ओर मणिपुर में महिलाओं से वहशत और प्रधानमंत्री के उन्हें ढाढ़स बंधाने तक न जाने को लेकर प्रायः सारे न्यूज चैनल व अखबार चुप हैं. उनके सलेक्टिव अप्रोच को लेकर भी, जिसके तहत उन्होंने पश्चिम बंगाल में संदेशखाली जाकर वहां महिलाओं से हुए बलात्कार को ‘पाप’ की संज्ञा दी.
आपके विचार से चुनाव आयोग को क्या करना चाहिए?
सबसे पहले तो उसे प्रधानमंत्री को आदर्श आचार संहिता तोड़कर सरकारी खर्चे पर या वायुसेना के विमान से चुनाव प्रचार की कवायदों से सख्ती से रोक देना चाहिए. वैसे ही जैसे उसने आईटी मंत्रालय को निर्देश दिया है कि वह लोगों के वॉट्सऐप पर प्रधानमंत्री की ओर से भेजे जा रहे विकसित भारत संपर्क मैसेजों का भेजा जाना रोके.
मीडिया तो इतना डरपोक है कि वह सरकार के प्रति आयोग की सख्ती देखकर ही रास्ते पर आ जाएगा. बड़ा सवाल यह है कि क्या चुनाव आयोग खुद निष्पक्ष अंपायर बना रह पाएगा?
क्या आपको इस चुनाव में कोई लहर दिखाई दे रही है? यह सवाल इस तथ्य के मद्देनजर है कि गोदी मीडिया ‘मोदी की सुनामी’ का दावा कर रहा है.
महंगाई, बेरोजगारी, अनैतिक आचरण, भ्रष्टाचार और नाना सामाजिक राजनीतिक उद्वेलनों के घटाटोप में ऐसी किसी सुनामी पर, और तो और, खुद नरेंद्र मोदी को भी विश्वास नहीं है. अन्यथा वे बार-बार चुनाव के मुद्दे क्यों बदलते?
उन्होंने पहले जी-20 के बहाने प्रचार किया कि भारत विश्व को राह दिखाने वाला देश बन गया है, फिर अयोध्या में राम मंदिर निर्माण का श्रेय लेते रहे, हालाकि वह सर्वोच्च न्यायालय के आदेश से बन रहा है. अब लालू यादव की परिवार और राहुल गांधी की शक्ति से जुड़ी टिप्पणियों को तोड़-मरोड़कर उन पर ओछी प्रतिक्रियाएं दे रहे हैं. मुस्लिम विरोध तो उनका सदाबहार मुद्दा है ही.
उनकी सरकार अपनी एंजेसियों का दुरुपयोग कर विपक्षी मुख्यमंत्रियों तक को येनकेन प्रकारेण जेल भेज रही है तो उसके द्वारा नियुक्त राज्यपाल विपक्षी राज्य सरकारों का कामकाज रोकने के लिए असंवैधानिक आचरण पर आमादा हैं. दूसरी ओर उनकी पार्टी विपक्षी दलों में तोड़फोड़ और उनके सांसदों, विधायकों व नेताओं की खरीद-फरोख्त करके अपनी आत्मविश्वासहीनता का परिचय दे रही है. क्या ये सारी कारस्तानियां मोदी की सुनामी के प्रतीक हैं?
ऐसे में चुनाव नतीजों को लेकर आप क्या सोचते हैं?
मैं नतीजों के बेहिस अनुमानों में विश्वास नहीं करता, क्योंकि उनकी नियति जानता हूं. यह भी जानता हूं कि राजनीति में चीजें गणित के हिसाब से नहीं चलतीं. उसका अलग रसायनशास्त्र होता है. पिछले चुनाव में भारी जीत दर्ज करने वाली पार्टी अगले चुनाव में लुढ़क जाती है तो इसका उलट भी होता है. 1984 में मात्र 02 सीट पाने वाली भाजपा 1989 में 86 तथा 1991 में 120 सीटें पा जाती है. उत्तर प्रदेश विधानसभा के 1989 के चुनाव में उसे 57 सीटें ही मिली थीं, लेकिन 1991 में 221 सीटें और पूर्ण बहुमत मिल गया.
1977 के लोकसभा चुनाव में 295 सीटें जीतकर विधिवत गठन से पहले ही सत्ता में आ जाने वाली जनता पार्टी 1980 में 31 सीटें ही पा सकी थी. 2009 के लोकसभा चुनाव में 206 सीटें पाने वाली कांग्रेस 2014 में 44 सीटों पर सिमट गईं थी-इसी तरह 1984 की रिकार्ड 414 सीटों के बाद 1989 में 197 सीटों पर.
साफ है कि एक के बाद दूसरे चुनाव में राजनीतिक दलों की सीटों में अप्रत्याशित उछाल या गिरावट आती हैं. इसलिए उन्हें लेकर कोई भी अनुमान खतरे से खाली नहीं होता.
क्या इससे मैं यह समझूं कि आप नरेंद्र मोदी सरकार की वापसी को लेकर आश्वस्त नहीं हैं, जबकि कई विश्लेषक उनकी हैट्रिक को अवश्यंभावी बता रहे हैं.
इसलिए आश्वस्त नहीं कि मोदी का सारा चमत्कार मीडिया द्वारा सृजित किया गया है. वे जमीनी नहीं, बल्कि बड़बोलेपन और बदगुमानियों के जाए महानायक हैं. अतीत में पहले भी ऐसा हुआ है कि किसी अधिनायकवादी प्रवृति के राजनेता ने मीडिया को पूर्णतः नियंत्रित कर लिया तो वह उसकी महामानव या महानायक की छवि गढ़ने में मगन हो गया. समुद्र के भीतर झांकते, जंगल में शेरों को देखते, मंदिरों में आरती या पूजा करते, रफाल विमान पर आसमान में उड़ते, रैलियां व सभाएं करते, शिक्षा, साहित्य, कला व संस्कृति आदि सबसे जुड़े विषयों पर बोलते और छात्र-छात्राओं को परीक्षा के गुर बताते सर्वज्ञ मोदी की छवि भी मीडिया ने ही गढ़ी है. इसका हकीकत से कोई भी वास्ता होता तो उन्हें राम मंदिर निर्माण, अनुच्छेद 370 की समाप्ति, 80 करोड़ लोगों को मुफ्त राशन और साकारी योजनाओं के लाभार्थियों की बिना पर वोटों का प्रबंधन न करना पड़ता. इन्हीं लाभार्थियों को, जिनमें स्वयं सहायता समूह की महिलाएं, बैंक सखी, आशा बहू, आंगनबाड़ी कर्मी, मिडडे मील रसोइये, रोजगार सेवक, किसान मित्र और सामुदायिक शौचालय चलाने वाली महिलाएं आदि शामिल हैं, बसों से ढोकर प्रधानमंत्री की सभाओं में भीड़ भी तब न बढ़ाई जाती. किसान सम्मान निधि पाने वालों को आगे कर किसानों के असंतोष व आंदोलन को दबाने की कोशिश भी न की जाती. दीये का तूफान से मुकाबला न कराया जाता.
क्या मतलब सर?
मतलब तो साफ है. एनडीए व ‘इंडिया’ के बीच की लड़ाई दो असमान मोर्चों की लड़ाई है. साफ कहूं तो दीये और तूफान की. भाजपा के पास असंवैधानिक चुनावी बॉन्ड्स और दूसरे अनैतिक साधनों से जुटाए गए धनबल के साथ सीबीआई, ईडी, आईटी आदि एंजेसियों और प्रशासनिक अधिकारियों व अर्धसैनिक बलों और निर्वाचन आयोग, हां, निर्वाचन आयोग की भी, फौज है, जबकि ‘इंडिया’ के पास सामान्य संसाधन भी नहीं हैं.
विपक्ष की सबसे बड़ी पार्टी कांग्रेस के तो बैंक खाते भी सीज कर दिए गए हैं. यह सब देखकर गोस्वामी तुलसीदास के रामचरितमानस की पंक्तियां याद आती हैं- रावन रथी विरथ रघुबीरा, देखि विभीसन भयौ अधीरा. लेकिन याद होगा आपको, वी. शांताराम की 1957 में आई फिल्म ‘तूफान और दीया’ में तूफान तमाम प्रयासों के बावजूद दीये की लौ को नहीं बुझा पाया था.