हां के बेसुरे कीर्तन में नहीं की दरकार

कभी-कभार | अशोक वाजपेयी: इस समय नहीं कहने और करने का आशय है भारतीय सभ्यता, भारतीय परंपरा, भारतीय लोकतंत्र के अपनी प्रतिबद्धता का इसरार करना. जो इस समय नहीं कहने-करने की हिम्मत नहीं जुटा पाएगा वह नैतिक चूक का चरित्र होगा. 

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(इलस्ट्रेशन: परिप्लब चक्रवर्ती/द वायर)

कला में भारतीय आधुनिकता का एक नए, खुले और संसार भर से ग्रहणशील युग की शुरूआत करने का श्रेय, उचित ही, मुंबई में स्थापित प्रोग्रेसिव आर्टिस्ट ग्रुप को दिया जाता है. हुसैन ओर रज़ा की जन्मशतियों के बाद इस वर्ष इसी समुदाय के तीन मूर्धन्यों राम कुमार, फ्रांसिस न्यूटन सूज़ा और वासुदेव गायतोंडे की जन्मशतियां इस वर्ष पड़ रही हैं. दृष्टि-शैली-व्यवहार की ऐसी बहुलता न तो इससे पहले किसी कला-समुदाय में थी और न बाद में कहीं देखी गई जैसी कि इस समुदाय में थी. बहुलता और साहचर्य का कोई दूसरा उदाहरण भी ऐसा नहीं है.

इस समुदाय में सबसे विवादास्पद कलाकार सूज़ा थे. उनकी कला, लगभग पूरे जीवन भर, चालू सामाजिक-सांस्कृतिक-धार्मिक-नैतिक मान्यताओं का घोर विरोध करती रही और कई बार वह जीवन के बरक़्स कला की स्वतंत्रता का निर्भीक और अक्सर क्रूर इज़हार थी. वे पहले तो इस समुदाय के वैचारिक नेता ओर प्रवक्ता ही थे. जीवन की दबी-ढंकी सचाइयों को सूज़ा निरावरण करना चाहते थे और इस दिगंबरता को विन्यस्त करने के लिए वे विकृतियों का भी सहारा लेने में कोई संकोच नहीं करते थे.

यह कला क्षुब्ध और विचलित करती थी: वह प्रश्नांकन और विचलन की, विकृति की हद तक जाकर, कला थी. उनकी दिगंबरायें कई बार बेडौल लगती हैं पर हर हालत में वे स्त्री की स्वतंत्रता के सौंदर्य का कुछ विचित्र पर अदम्य विन्यास भी करती हैं. उन्होंने कई बार ईसा की पश्चिम में सदियों से चली आ रही भव्य छवि को साधारण में घटाया और एकाधिक बार अपने आत्मचित्र को ईसा के चित्र की तरह पेश किया. वे रेखा के मास्टर थे और उनके रेखांकन अपनी शक्ति और संभावना के लिए विख्यात हैं.

सूज़ा, उन्हें जानने वाले कई समकालीनों के हवाले से यह कहा जा सकता, अपने जीवन में व्यवहार और अभिव्यक्ति में ऐसे थे कि उन्हें आसानी से पसंद नहीं किया जा सकता था. वे कठिन और जटिल थे. उनके सघन पूर्वाग्रह थे और अपने दूसरों के आकलन में बहुत कर्कश हो सकते थे. उनकी मानवीयता का रूपाकार उनकी अपनी वेध्यता और बेबाकी से रचना गया था. वे जितने आत्मनिर्भर थे उतने ही दूसरों के कटु आलोचक. वे अपने संबंधों को सहेजने का कौशल या चतुराई नहीं जानते थे. उनके व्यवहार या वाग्प्रहार से घायल बहुत लोग होते रहते थे.

अपने समय में हो रहे तरह-तरह के भ्रष्टाचार पर उनकी तीख़ी नज़र थी. वे उसे लगभग हर क्षेत्र में देख-ताड़ सकते थे. यह कहा जा सकता है कि सूज़ा भ्रष्ट समय में अपनी कला में बीहड़ और वैकल्पिक पवित्रता की तलाश कर रहे थे.

सूज़ा का जीवन और कला दोनों अब हमारे सामने हैं. उनका जीवन और व्यवहार कितनी भी विवादग्रस्त और आपत्तिजनक क्यों न रहा हो, उनकी कला की श्रेष्ठता असंदिग्ध है. कितना भी दाग़दार रहा हो उनका जीवन, उनके मनुष्य और कलाकार होने का सबसे अकाट्य-अदम्य साक्ष्य तो उनकी श्रेष्ठ कला है. हो सकता है वह जीवन को अतिक्रमित कर रची गई हो. यह भी संभव है कि उनकी असली जीवन वही रही है.

शून्य भीति पर चित्र

पाब्लो पिकासो का एक कथन बहुत लोकप्रिय है: ‘कला झूठ होती है जो सच कहती है’. इधर तुलसीदास के एक पद पर फिर ध्यान गया जो ‘विनय पत्रिका’ से है और रज़ा के अपना एक पूरा चित्र सिर्फ़ इस पूरे पद को अपने हाथ से लिखते हुए बनाया था.

यों तो यह पद संसार की विचित्रता के बारे में है पर उसे कला, कविता और साहित्य के बारे में भी पढ़ा जा सकता है. रज़ा जैसा चित्रकार उसकी ओर आकर्षित इसी कारण हुआ होगा: यह उनका शायद एकमात्र चित्र है जिसमें एक पूरी कविता लिखी गई है.

‘केशव, कहि न जाइ का कहिये’ पहली पंक्ति है जिसके बाद कवि हरि से ‘तव रचना विचित्र’ का ज़िक्र कर कि ऐसी रचना को देखकर कहता है कि कुछ कहा नहीं जा सकता. आगे जोड़ते हैं कि ‘शून्य भीति पर चित्र, रंग नहिं, तनु बिनु लिखा चितेरे.’

बिंब यह है कि यह रचना, यह संसार शून्य की भीति पर बिना रंग के एक निराकार चितेरे द्वारा बनाया गया चित्र है. इसी बिंब ने रज़ा जैसे चित्रकार को आकर्षित किया होगा. पद का समापन जिन पंक्तियों से होता है उनमें तुलसीदास बनाते हैं कि कुछ लोग इस संसार को सत्य कहते हैं, कुछ झूठ और कुछ सच और झूठ का द्वय. वे इसरार करते हैं कि ये तीनों धारणाएं भ्रम हैं और जो इनको तज देता है वही अपने को पहचान पाता है. संसार न सत्य है, न झूठ है, न दोनों का कोई मिश्रण.

जैसे यहां संसार की कल्पना सच-झूठ और दोनों के किसी मिश्रण से अलग की गई है, वैसे हम साहित्य के बारे में भी इसे प्रासंगिक मान सकते हैं. हमारे एक और कवि अज्ञेय ने कहा था कि मैं सच लिखता हूं,/लिखकर सब झूठा करता जाता हूं.’ साहित्य में तो हम जानते हैं कि उसमें तथाकथित यथार्थ ही सच नहीं है, कल्पना भी सच होती है.

पर जैसे संसार माया है वैसे ही साहित्य भी माया है: उसे सच या झूठ के पदों में समझा नहीं जा सकता क्योंकि वह सच को झूठ करता है, झूठ बोलकर सच कहता है जैसा पिकासो ने कला के बारे में कहा. उसे किसी द्वैत से नहीं समझा जा सकता. अनेक द्वैतों का अतिक्रमण और अनेक अंतर्विरोधों का सामंजस्य साहित्य में होता रहता है. कविता के बारे में यह कहा जाता है कि वह निराकार को आकार देती है और आकार को निराकार करती है.

शून्य का साहित्य से क्या संबंध है इस पर विचार करते हुए लगता है कि यों तो रचने के पहले साहित्य का एक भरा-पूरा संसार उपस्थित और सक्रिय रहता है और अक्सर लेखकर उसमें रचा बसा रहता है. लेकिन रचते समय वह एक तरह के शून्य में आ जाता है: वह उसी शून्य की दीवार पर चित्र बनाता है. जो संसार किसी रचना में रूपायित होता है वह वैसा का वैसा रचना के बाहर कहीं नहीं होता. इसी अर्थ में उसका रचा जाना शून्य से रचा जाना है.

नहीं का समय

हां-हां का शोर हर ओर है- उसकी जयकार भी दिग्दिगंत में गूंज रही है. हां का एक बेसुरा कीर्तन चल रहा है. हां की भीड़ है, हां का जुलूस निकल रहा है. जो नासमझ थे और हैं वे तो हां कह ही रहे हैं, जो समझदार समझे जाते थे उनमें से भी ज़्यादातर हां की जमात में शामिल हो रहे हैं.

सारा माहौल, इस समय, एक बड़ा हां लगता है. हम चाहें, न चाहें, हां के राज में रहने लगे हैं, लोकतंत्र का जो होता है हो. हां ने हमें कई तरह से मुक्त किया है. हमें अब खुद सोचने और अपने विवेक का इस्तेमाल करने से हां ने मुक्त कर दिया है क्योंकि सोचने का काम, उसकी झंझट अब हमारी नहीं है: वे सोच रहे हैं और हम हां कर रहे हैं. दूसरे बड़ी भारी समस्या हैं. चूंकि हम हां की बिरादरी के हैं हम उनसे साफ़ और बेटूक नहीं कह रहे हैं. हमें दूसरे नहीं चाहिए: उनको नेस्तनाबूद करने, हटाने, हाशिये पर डालने का काम वे कर रहे हैं और हम हां कर रहे हैं.

हमें सच की भी दरकार नहीं. क्या करेंगे हम उस पर इसरार कर, उस पर भरोसा कर हमें क्या हासिल होने वाला है? हम लाभार्थी हैं और हमारा काम, हर स्तर पर, राजनीति से लेकर धर्म, मीडिया, बाज़ार में झूठ से ज़्यादा सुघरता और तेज़ी से चलता है. झूठ से लुभावना चमक-दमक दार सच कभी हो नहीं सकता. सच का नहीं पर इसरार करना हमें रास नहीं आता सच के अहाते में वैसे भी बहुत कम लोग हैं. नहीं के परिसर में नीम रोशनी है. हां के पंडाल में कितनी रंग-बिरंगी रोशनियों का तमाशा है!

संविधान, लोकतंत्र, न्याय, समता, स्वतंत्रता, भाईचारा ये सब हमारे किसी काम के नहीं हैं. उनसे हमें आज तक क्या मिला है? वे जाते हैं तो जाएं. हम उनके लिए विलाप क्यों करें? हम तो समूचा इतिहास नए सिरे से लिखने के अभियान में शामिल हैं. हम यह समझ चुके हैं कि हमें गौरव करने, अपनी कायरता को वीरता में बदलने का यह अभूतपूर्व अवसर मिला है. हम अपने देश की बहुलता से मुक्त होना चाहते हैं: हमें एक नेता, एक मंदिर, एक देवता, एक व्यवस्था, एक भोजन, एक पहरावा, एक रीति, एक रिवाज़, एक भाषा, एक संस्कृति चाहिए जो कि हां कहने से सुनिश्चित होती है.

ठीक इसलिए कि इतनी हां-हां है, नहीं की ज़रूरत है, जगह है. नहीं के कोण से ही हम उस जगह की तलाश कर सकते हैं जो, बावजूद सारे अंड़गों के, अंतःकरण-न्याय-सचाई-सच-भाईचारे-समता आदि के लिए बची हुई है. इस समय नहीं कहना चालू प्रवृत्ति का प्रतिरोध करना, अपनी स्वतंत्र बुद्धि का, विवेक का इस्तेमाल करना है. यह नैतिक और व्यापक अर्थ में एक साथ संवैधानिक है.

इस समय नहीं कहने और करने का आशय है भारतीय सभ्यता, भारतीय परंपरा, भारतीय लोकतंत्र के अपनी प्रतिबद्धता का इसरार करना. जो इस समय नहीं कहने-करने की हिम्मत नहीं जुटा पाएगा वह नैतिक चूक का चरित्र होगा. हमारी परंपरा में नहीं कहने की साहसिकता शुरू से रही है और इतिहास उसे धूमिल-शिथिल नहीं कर पाया है.

(लेखक वरिष्ठ साहित्यकार हैं.)