भारत में रोज़गार की स्थिति गंभीर, बेरोज़गारों में लगभग 83 प्रतिशत युवा: अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन

अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन और मानव विकास संस्थान द्वारा जारी रिपोर्ट बताती है कि देश के कुल बेरोज़गार युवाओं में पढ़े-लिखे बेरोज़गारों की संख्या साल 2000 के मुक़ाबले दोगुनी हो चुकी है. तब पढ़े-लिखे युवा बेरोज़गार कुल युवा बेरोज़गारों का 35.2 प्रतिशत थे, जो साल 2022 में बढ़कर 65.7% हो गए.

Rising unemployment poses a serious challenge. Credit: Fett/Flickr (CC BY 2.0)

नई दिल्ली : नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाली केंद्र सरकार के दावों और वादों से इतर देश में बरोज़गारी की स्थिति भयावह है.

द हिंदू के मुताबिक, अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन (आईएलओ) और मानव विकास संस्थान (आईएचडी) द्वारा मंगलवार (26 मार्च) को जारी एम्प्लॉयमेंट रिपोर्ट 2024 बताती है कि भारत के बेरोजगारों में लगभग 83 प्रतिशत युवा हैं और कुल बेरोजगार युवाओं में माध्यमिक या उच्च शिक्षा प्राप्त युवाओं की हिस्सेदारी में भारी बढ़ोत्तरी देखी गई है.

रिपोर्ट के अनुसार, साल 2000 से 2019 के बीच युवा रोजगार और अल्परोजगार में वृद्धि हुई, लेकिन महामारी के वर्षों के दौरान इसमें गिरावट आई. शिक्षित युवाओं ने इस अवधि के दौरान देश में बेरोजगारी के उच्च स्तर का अनुभव किया है.

इस अध्ययन के मुताबिक, देश के कुल बेरोजगार युवाओं में पढ़े-लिखे बेरोजगारों की संख्या भी साल 2000 के मुकाबले अब दोगुनी हो चुकी है. साल 2000 में पढ़े-लिखे युवा बेरोजगारों की संख्या कुल युवा बेरोजगारों में 35.2 प्रतिशत थी. वहीं साल 2022 में ये बढ़कर 65.7 प्रतिशत हो गई है. इसमें उन ही पढ़े-लिखे युवाओं को शामिल किया गया है जिनकी कम से कम 10वीं तक की शिक्षा हुई है.

अध्ययन में कहा गया है कि श्रम बल भागीदारी दर (एलएफपीआर), श्रमिक जनसंख्या अनुपात (डब्ल्यूपीआर) और बेरोजगारी दर (यूआर) में 2000 से 2018 के बीच दीर्घकालिक गिरावट देखी गई, लेकिन 2019 के बाद सुधार देखा गया.

अध्ययन में यह कहा गया है कि यह सुधार आर्थिक संकट की अवधि यानी कोविड के पहले और बाद दोनों के साथ मेल खाता है. हालांकि इसमें कोरोना के दो चरम वाली तिमाही अपवाद भी हैं. इस रिपोर्ट के लेखकों ने इसे जारी करने के दौरान कहा कि इस सुधार की सावधानीपूर्वक व्याख्या करने की जरूरत है क्योंकि मंदी की अवधि में उत्पन्न नौकरियां इन परिवर्तनों पर सवाल उठाती हैं.

विरोधाभासी सुधार

रिपोर्ट में कहा गया है कि पिछले दो दशकों में भारत की नौकरी की कहानी में श्रम बाजार संकेतकों में कुछ विरोधाभासी सुधार देखे गए हैं, जहां देश में रोजगार की स्थिति की बुनियादी दीर्घकालिक विशेषता गैर-कृषि क्षेत्रों की अपर्याप्त वृद्धि और क्षमता बनी हुई है और ये क्षेत्र कृषि से श्रमिकों को अवशोषित करते हैं. रिपोर्ट में कहा गया है कि 2018 से पहले विभिन्न अवधियों में गैर-कृषि रोजगार कृषि रोजगार की तुलना में अधिक तेजी से बढ़े. कृषि लेबर को मुख्य रूप से निर्माण और सेवा क्षेत्रों में रोजगार मिला.

अध्ययन में यह भी बताया गया है कि लगभग 90 प्रतिशत श्रमिक अनौपचारिक काम में लगे हुए हैं, जबकि नियमित काम का हिस्सा, जो 2000 के बाद लगातार बढ़ा, 2018 के बाद कम हो गया. रिपोर्ट में कहा गया है कि देश में व्यापक आजीविका से जुड़ी असुरक्षाएं हैं, विशेष रूप से गैर-कृषि, संगठित क्षेत्र में. केवल एक छोटा प्रतिशत सामाजिक सुरक्षा के दायरे में है. इससे भी खराब यह है कि ठेकेदारी प्रथा में वृद्धि हुई है, केवल कुछ प्रतिशत नियमित कर्मचारी ही दीर्घकालिक अनुबंधों के दायरे में आते हैं.

रिपोर्ट के अनुसार, भारत का बड़ा कार्यबल युवा है पर उनके पास कौशल नहीं है. 75 प्रतिशत युवा अटैचमेंट के साथ ईमेल भेजने में असमर्थ हैं, 60 प्रतिशत फ़ाइलों को कॉपी और पेस्ट नहीम कर सकते, वहीं 90 प्रतिशत गणितीय सूत्र को स्प्रेडशीट में डालना नहीं जानते.

लिंग भेद का बढ़ना

रिपोर्ट में यह भी कहा गया है कि गुणवत्तापूर्ण रोजगार के अवसरों की कमी युवाओं में उच्च स्तर की बेरोजगारी में परिलक्षित होती है, खासकर उन लोगों में जिन्होंने उच्च शिक्षा हासिल की है.

अध्ययन के अनुसार, ‘कई उच्च शिक्षित युवा वर्तमान में उपलब्ध कम वेतन वाली, असुरक्षित नौकरियों को लेने के इच्छुक नहीं हैं और भविष्य में बेहतर रोजगार हासिल करने की उम्मीद में इंतजार करना पसंद करेंगे.’

महिलाओं की श्रम बल में कम भागीदारी के साथ, देश के श्रम बाजार में पर्याप्त लिंग अंतर भी एक चुनौती है. रिपोर्ट में कहा गया है, ‘युवा महिलाएं, खासकर जो उच्च शिक्षित हैं, उनके बीच बेरोजगारी की चुनौती बहुत बड़ी है.’

बढ़ती सामाजिक असमानताओं पर प्रकाश डालते हुए रिपोर्ट में कहा गया है कि सकारात्मक कार्रवाई और लक्षित नीतियों के बावजूद अनुसूचित जाति और जनजाति अभी भी बेहतर नौकरियों तक पहुंच के मामले में पीछे हैं. इसमें बताया गया है कि अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों की आर्थिक जरूरतों के कारण काम में अधिक भागीदारी है, लेकिन वह कम वेतन वाले अस्थायी आकस्मिक काम और अनौपचारिक रोजगार में अधिक लगे हुए हैं.

रिपोर्ट में कहा गया है, ‘सभी समूहों के बीच शैक्षणिक उपलब्धि में सुधार के बावजूद सामाजिक समूहों के अंदर भेदभाव कायम है.’