चुनावों में जीत को जितना महत्व अब दिया जाने लगा है (और जिसके चलते ज्यादातर नेता कांटे की टक्कर में फंसने या हारने के जोखिम उठाने के बजाय सुरक्षित सीटों की तलाश में रहने लगे हैं), इससे पहले शायद ही कभी दिया जाता रहा हो. स्वतंत्र भारत के शुरुआती दशकों में, कुछ अपवादों को छोड़ दें तो, नेता चुनावों को अपनी नीतियों व कार्यकमों को जनता तक पहुंचाने के अवसर के रूप में देखते थे और जनता उन्हें स्वीकार करे या नकारे, उसके फैसले को ‘क्या हार में, क्या जीत में’ की भावना से हलकान या परेशान हुए बिना सहजता से स्वीकारते थे.
तब मतदाताओं से ‘तुम मुझे वोट दो मैं तुम्हें ये दूंगा’ जैसी सौदेबाजी और नैतिकताओं व सरोकारों को तिलांजलि देने का रिवाज इतना आम नहीं था. ठीक है कि जिताने-हराने की अच्छी-बुरी कवायदें तब भी कुछ कम नहीं होती थीं, लेकिन हारने वाले नेताओं की आज जितनी खिल्ली नहीं ही उड़ाई जाती थी. समाजवादी नेता डाॅ. राममनोहर लोहिया तो प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू से हारने के बाद भी दर्प से भरे रहते और कहा करते थे कि ‘मैं चट्टान को तोड़ भले ही नहीं पाया, उसमें दरार डाल देने में सफल रहा हूं.’
बात को इस तरह भी समझ सकते हैं कि गत लोकसभा चुनाव में अमेठी सीट से भाजपा प्रत्याशी स्मृति ईरानी के हाथों हार को लेकर पिछले पांच सालों में कांग्रेस नेता राहुल गांधी की जितनी खिल्ली उड़ाई गई है, उतनी आजादी के बाद से संविधान निर्माण के बाद तक एक के बाद एक कई चुनाव हारने को मजबूर हुए संविधान निर्माता बाबासाहब डाॅ. भीमराव आंबेडकर की भी नहीं उड़ाई गई. उन अटल बिहारी वाजपेयी की भी नहीं, जो अपने प्रधानमंत्री बनने से पहले के राजनीतिक जीवन में ही आधा दर्जन बार हार चुके थे. इन दोनों की मिलाकर भी नहीं.
दरअसल, आज हम ऐसे ‘वीरगाथाकाल’ में पहुंच गए हैं, जिसमें चुनावी जीत की गाथाएं प्रायः गाई जाती रहती हैं, जबकि जीत के जयकारों के बजाय बड़े नेताओं की ऐसी हारों पर नजर डालकर कहीं ज्यादा प्रेरणाएं अर्जित कर सकते हैं, जो उनके गले लगकर (कहना चाहिए, पड़कर) भी न उनके दृढ़ संकल्पों को हरा पाईं, न उनकी राजनीतिक राह अवरुद्ध कर पाईं, न ही उनकी पारी को अंत तक ले जा पाईं.
इनकी चर्चा में सबसे पहले 1977 में तत्कालीन प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी की उत्तर प्रदेश की रायबरेली लोकसभा सीट से हुई करारी शिकस्त का उल्लेख करना होगा, क्योंकि वह किसी प्रधानमंत्री के पद पर रहते हुए अपनी सीट का चुनाव हारने की देश की एकमात्र नजीर है.
इसी तरह प्रधानमंत्री पद तक पहुंचने से पहले सर्वाधिक छह बार चुनाव हारने का रिकॉर्ड अटल बिहारी वाजपेयी के नाम है, जिनमें एक के बारे में कहा जाता है कि उसे वे अपनी अशोभनीय टिप्पणी के कारण हार गए थे.
इतिहास गवाह है कि इनमें से कोई भी हार उक्त दोनों पूर्व प्रधानमंत्रियों पर हावी नहीं हो पाई थी.
जब बाबासाहब चुनाव हारे
लेकिन इनकी हारों से पहले बाबासाहब की उस हार का जिक्र, जो 1952 में उन्हें महाराष्ट्र की उत्तरी मुंबई सीट से उनके कांग्रेसी हो गए पूर्व सहयोगी नारायण सदोबा काजरोलकर से हासिल हुई. इस चुनाव में शेड्यूल्ड ट्राइब्स फेडरेशन के बैनर पर लड़ रहे बाबासाहब को 1,23,576 और काजरोलकर को 1,37,950 वोट मिले.
1954 में बंडारा लोकसभा सीट के लिए हुए उपचुनाव में बाबासाहब फिर हारे. इससे पहले बंबई से संविधान सभा की सदस्यता का चुनाव भी वे हारे ही थे, जिसके बाद सभा के बंगाल के एक दलित सदस्य ने इस्तीफा देकर उनकी सदस्यता का रास्ता साफ किया था.
प्रधानमंत्री रहते अपनी सीट हारने का रिकॉर्ड
अब इंदिरा गांधी की बात करें, तो वह 1975 में ही देश की एकमात्र ऐसी प्रधानमंत्री बन गई थीं, जिन्हें चुनावी गड़बड़ियों को लेकर हाईकोर्ट द्वारा चुनाव रद्द कर, छह सालों के लिए किसी भी संवैधानिक पद के अयोग्य कर दिया गया था. इसे लेकर उन पर इस्तीफे का दबाव बढ़ने लगा, तो उन्होंने देश भर में इमरजेंसी लगाकर सारे विपक्षी नेताओं को जेल भेज दिया.
1977 में इमरजेंसी के दौरान ही उन्होंने इस मुगालते में कि अब जनमत अनुकूल है, चुनाव कराया तो रायबरेली की उनकी परंपरागत सीट पर उनके 1971 के प्रतिद्वंद्वी राजनारायण ने ही (जिनकी याचिका पर हाईकोर्ट ने उनका चुनाव रद्द किया था) उन्हें ऐसी चुनौती दी कि वे 52 हजार वोटों से हारकर अपनी सीट गंवाने वाली पहली व एकमात्र पदासीन प्रधानमंत्री भी बन गईं. साथ ही राजनारायण प्रधानमंत्री को हराने वाले इकलौते प्रत्याशी बने.
इस चुनाव के दौरान राजनारायण के समर्थक नारा लगाते थे, ‘पहले हारीं कोर्ट से, अब हारेंगी वोट से.’
अटल बिहारी वाजपेयी छह चुनाव हारे
जनसंघ (बाद में जनता पार्टी व भाजपा) के नेता अटल बिहारी वाजपेयी ने अपनी चुनावी राजनीति 1955 में लोकसभा की लखनऊ सीट पर उपचुनाव लड़कर शुरू की थी, जिसमें उन्हें कांग्रेस के शिवराजपति नेहरू के मुकाबले तीसरा स्थान पाया था. उन्हें 33,986 वोट मिले थे, जबकि शिवराजपति को 49,324 वोट.
1957 के लोकसभा चुनाव में भी लखनऊ ने उन्हें हार की ही सौगात दी थी. उन्हें 57,034 वोट मिले थे और कांग्रेस के पुलिन बिहारी बनर्जी को 69,519. इस बार उन्होंने मथुरा व बलरामपुर सीटों से भी चुनाव लड़ा था. इनमें मथुरा में उनकी जमानत भी नहीं बच पाई थी, लेकिन बलरामपुर में वे जीत गए थे.
वर्ष 1962 में उन्होंने फिर लखनऊ सीट से किस्मत आजमाई, तो कांग्रेस के बीके धवन ने उनकी राह रोक ली. बीके धवन को 1,16,637 वोट मिले जबकि अटल 86,620 वोट पाकर हार गए.
1957 में जीती बलरामपुर सीट भी उन्होंने कांग्रेस की सुभद्रा जोशी के हाथों गंवा दी. इतना ही नहीं, सुभद्रा जोशी के विरुद्ध अशोभनीय टिप्पणी का कलंक भी झेला.
दरअसल हुुआ यह कि किसी सभा में सुभद्रा ने बलरामपुर के मतदाताओं से वादा किया कि वे जीतीं, तो महीने के तीसों दिन जनता की सेवा में उपस्थित रहेंगी. अटल ने इसके बाद की एक सभा में इसका मजाक उड़ाते हुए पूछ लिया कि सुभद्रा जी अपना वादा भला कैसे निभाएंगी, महीने में चार दिन तो महिलाएं सेवा करने लायक ही नहीं रहतीं. अपमान का घूंट पीकर भी सुभद्रा इसकी शिकायत लेकर चुनाव आयोग नहीं गईं और मतदाताओं से अपील की कि वही अटल को इसकी सजा दें. फिर क्या था, मतदाताओं ने अटल को उनका जीता हुआ माना जा रहा चुनाव दो हजार वोटों से हरा दिया.
1984 में वे ग्वालियर में कांग्रेस के माधवराव सिंधिया के मुकाबले पौने दो लाख वोटों से हारे और प्रधानमंत्री बन जाने के बाद भी उनकी हारों का सिलसिला नहीं रुका. 1999 में अपनी तेरह महीनों वाली सरकार के प्रति विश्वासमत का प्रस्ताव वे महज एक वोट से हारे, तो कहते हैं कि उनकी आंखें भर आई थीं.
2004 में ‘इंडिया शाइनिंग’ के बावजूद वे आम चुनाव हार गए और किसी ने पूछा-अटल जी, ये क्या हो गया, तो उनका जवाब था, ‘यह तो उन्हें भी नहीं पता, जो जीत गए हैं.’
बहुगुणा और कांशीराम भी हार से नहीं बचे
बहुजन समाज पार्टी के संस्थापक कांशीराम ने 1984 में अपना पहला लोकसभा चुनाव छत्तीसगढ़ की जांजगीर-चांपा सीट से लड़ा, तो इस सीट के दलित बहुल और बहुजन समाज पार्टी (बसपा) के दलितों के प्रति समर्पित होने के दावे के बावजूद हार गए. तब बसपा मान्यता प्राप्त पार्टी नहीं थी और कांशीराम तकनीकी तौर पर निर्दल प्रत्याशी थे. कांग्रेस का गढ़ रही इस सीट के महज 32,135 मतदाताओं ने उन्हें वोट दिए.
लेकिन इससे कांशीराम का राजनीतिक अभियान धीमा नहीं पड़ा और उन्होंने अपने समर्थकों को चुनावी जीत-हार को लेकर एक नया सिद्धांत ही दे डाला. उन्होंने कहा, पहला चुनाव हारने के लिए लड़ा जाता है, दूसरा किसी को हराने के लिए और तीसरा खुद अपने जीतने के लिए. बाद में वे दूसरी सीटें जीतकर लोकसभा पहुंचे और उत्तर प्रदेश में किंगमेकर भी बने.
अब बसपा जांजगीर-चांपा सीट को अपनी पैतृक सीट कहती है. हालांकि उस पर कभी चुनाव नहीं जीत पाई है.
अंत में 1984 में इलाहाबाद लोकसभा सीट पर हुए विषम मुकाबले का किस्सा, जिसमें ‘इलाहाबाद की माटी के लाल’ हेमवतीनंदन बहुगुणा ‘छोरा गंगा किनारे वाला’ फेम फिल्मी सुपरस्टार एंग्री यंगमैन अमिताभ बच्चन से हार गए थे. वे लोकदल के प्रत्याशी थे और पूरा विपक्ष उनके पीछे एकजुट था, जबकि तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी के चहेते अमिताभ बच्चन कांग्रेस के प्रत्याशी थे.
राजनीति के मंझे हुए खिलाड़ी बहुगुणा को अपनी जमीनी लोकप्रियता और मतदाताओं के अपने पक्ष में मजबूत ध्रुवीकरण पर पूरा भरोसा था, जिस पर उन्हें प्रतिद्वंदी को हराने के सारे दांवपेंच मालूम थे, जबकि अमिताभ सियासत में नौसिखिए थे. लेकिन अमिताभ के फिल्मी हथकंडों ने बहुगुणा के राजनीतिक पांडित्य को 1,87,795 वोटों से हरा दिया.
दिलचस्प यह कि बाद में राजनीति को साध पाने में विफल रहे अमिताभ ने इस सीट से इस्तीफा दे दिया और 1988 में उपचुनाव होना हुआ तो समूचे विपक्ष ने बहुगुणा से फिर प्रत्याशी बनने की गुजारिश की. लेकिन बहुगुणा का उत्तर था कि इलाहाबाद के मतदाताओं ने मुझे पूरे पांच साल के लिए हराया है और मैं पांच साल से पहले उनसे फिर वोट मांगने नहीं जाने वाला.
उनके इस इनकार के बाद वीपी सिंह (जो उन दिनों ‘राजा नहीं फकीर’ और ‘देश की तकदीर’ हुआ करते थे) विपक्ष के प्रत्याशी बने और पूर्व प्रधानमंत्री लालबहादुर शास्त्री के छोटे बेटे सुनील शास्त्री को हराकर जीते.
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं.)