नई दिल्ली: सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीश और कॉलेजियम सदस्य जस्टिस बीआर गवई ने शुक्रवार (29 मार्च) को कहा कि सरकारी नीतियों की समीक्षा करने में न्यायपालिका की महत्वपूर्ण भूमिका है और जब कार्यपालिका अपने कर्तव्यों का पालन करने में विफल रहती है तो वह ‘हाथ पर हाथ रखकर नहीं बैठ सकती.’
द टेलीग्राफ की खबर के मुताबिक, उन्होंने आगे कहा कि भारत में न्यायपालिका ने बार-बार दिखाया है कि जब कार्यपालिका अपने कर्तव्यों का पालन करने में विफल रहती है तो हमारी संवैधानिक अदालतें हाथ पर हाथ धरे नहीं बैठी रह सकती हैं.
जस्टिस गवई ने हार्वर्ड केनेडी स्कूल में न्यायविदों, कानूनी विशेषज्ञों और शिक्षाविदों की एक सभा में ‘न्यायिक समीक्षा कैसे नीति को आकार देती है’ विषय पर बोल रहे थे. उन्होंने अपने भाषण में इस बात पर ज़ोर दिया कि न्यायिक समीक्षा के उद्देश्यों में से एक यह सुनिश्चित करना है कि प्रशासनिक कार्य और नीति, स्थापित सिद्धांतों और संवैधानिक न्यायशास्त्र के अनुरूप हों.
बता दें कि जस्टिस गवई हाल ही में सरकार की विवादास्पद चुनावी बॉन्ड योजना को रद्द करने वाली पांच-न्यायाधीशों की संविधान पीठ का हिस्सा थे.
उन्होंने अपने संबोधन में कहा कि न्यायिक समीक्षा की शक्ति, मूल रूप से शक्तियों के बंटवारे के सिद्धांत पर आधारित थी, जो कानून के नियमानुसार चलने वाले किसी भी समाज के लिए जरूरी है.
अदालतों को विधायिका और कार्यपालिका के कार्यों की समीक्षा करनी होगी
उन्होंने आगे बताया कि राज्य के प्रत्येक अंग को अपने क्षेत्र में कार्य करने की शक्ति है. विधायिका कानून बनाती है और कार्यपालिका नीतियां बनाती है, उन्हें लागू करती है और प्रशासन चलाती है. न्यायपालिका किसी क़ानून या संविधान के तहत मुद्दों को लागू करती है, व्याख्या करती है और निर्णय लेती है.
जस्टिस गवई ने कहा कि अदालतों को राज्य के विभिन्न अंगों यानी विधायिका और कार्यपालिका के कार्यों की समीक्षा करनी होगी और उन्हें नियंत्रण में रखना होगा. साथ ही संविधान के आदर्शों और प्रावधानों के साथ किसी भी तरह की विसंगति को जांच कर उसे दूर करना होगा.
उन्होंने आगे कहा, ‘समय-समय पर सरकार और उसके प्राधिकरण बड़ी संख्या में मामलों में व्यक्तियों के अधिकारों को प्रभावित करने वाले निर्णय ले रहे हैं. इसलिए सभी प्रशासनिक अधिकारियों के लिए न्यायिक रूप से काम करते हुए निर्णय लेना और भी महत्वपूर्ण है. ऐसा इसलिए है क्योंकि अदालत कार्यपालिका द्वारा लिए गए निर्णयों की वैधता और संवैधानिकता की जांच कर सकती है’.
बता दें कि जस्टिस गवई मई 2025 में भारत के चीफ जस्टिस बन सकते है. उन्होंने बताया कि ‘न्यायिक समीक्षा न केवल संवैधानिक सीमाओं को परिभाषित करती है और व्यक्तिगत अधिकारों की रक्षा करती है. बल्कि अधिकारों और बदलती सामाजिक गतिशीलता को दर्शाती है’.
न्यायिक समीक्षा का मुख्य उद्देश्य शक्ति संतुलन का तंत्र बनाना
जस्टिस गवई ने कहा कि न्यायिक समीक्षा के प्रावधान के पीछे मुख्य उद्देश्य शक्ति संतुलन के लिए एक तंत्र बनाना था ताकि शक्ति का दुरुपयोग न हो.
उन्होंने आगे बताया कि संक्षेप में न्यायिक समीक्षा संवैधानिक मूल्यों के संरक्षण और कायम रखने का आश्वासन है. हालांकि भारत में सरकार का संसदीय स्वरूप है, लेकिन उच्च स्तर की संस्थागत कार्यप्रणाली और क्षमता को ध्यान में रखते हुए, संविधान निर्माताओं ने संयुक्त राष्ट्र अमेरिका के संविधान से प्रेरित होकर न्यायिक समीक्षा को अपनाया. न्यायिक समीक्षा की शक्ति अमेरिका की कानूनी प्रणाली में अंतर्निहित है.
जस्टिस गवई के मुताबिक, नीतिगत बदलाव संवैधानिक सिद्धांतों के अनुरूप होने की जरूरत है. उनका मानना है कि न्यायिक समीक्षा की अवधारणा ने कानूनी न्यायशास्त्र के माध्यम से नीति को आकार देने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है. वर्षों से अदालतों ने अपनी व्याख्याओं के माध्यम से विधायिका की शक्तियों और नागरिकों के हितों के बीच एक पुल के रूप में काम किया है.
जस्टिस गवई ने आगे कहा, ‘न्यायालय, न्यायिक समीक्षा के तहत, नियमित आधार पर नीतिगत निर्णय नहीं लेता है. हालांकि, संविधान को एक जीवित दस्तावेज़ बनाए रखने के लिए न्यायिक समीक्षा अदालत के व्याख्यात्मक काम के माध्यम से समाज की जरूरतों को पूरा करने के प्राथमिक साधन के रूप में कार्य करती है.’
जस्टिस गवई के अनुसार, प्रत्येक नागरिक को किसी ऐसे कानून की संवैधानिकता को चुनौती देने का अधिकार है जो किसी व्यक्ति के जीवन, स्वतंत्रता और संपत्ति को प्रभावित करता है.
सुप्रीम कोर्ट ने संविधान के साथ असंगत पाए गए कानूनों और विनियमों को रद्द कर दिया
जस्टिस गवई ने कहा कि ऐसे कई ऐतिहासिक मामले हैं जहां सुप्रीम कोर्ट ने संविधान के साथ असंगत पाए गए कानूनों और विनियमों को रद्द कर दिया है.
जस्टिस गवई ने बताया कि अभी हाल ही में एसोसिएशन ऑफ डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स बनाम भारत सरकार मामले में सुप्रीम कोर्ट ने चुनावी बॉन्ड योजना को इस आधार पर खारिज कर दिया कि यह भारतीय संविधान के तहत नागरिकों के सूचना के अधिकार का उल्लंघन करता है.