नई दिल्ली: सुप्रीम कोर्ट की जज जस्टिस बीवी नागरत्ना ने कहा है कि उन्होंने 2016 की नोटबंदी पर असहमतिपूर्ण राय व्यक्त की थी – जिसमें उन्होंने इस कार्रवाई को गैरकानूनी बताया था – क्योंकि ‘आम आदमी की दुर्दशा’ ने उन्हें ‘हिलाकर’ रख दिया था.
जस्टिस नागरत्ना ने शनिवार (30 मार्च) को कहा, ‘उस मजदूर की कल्पना करें जो उन दिनों काम पर गया था, उसे रोजमर्रा की जरूरत का सामान खरीदने के लिए किराने की दुकान पर जाने से पहले अपने नोट बदलवाने पड़े.’ उन्होंने इस ओर भी ध्यान आकर्षित कराया कि तब 86% मुद्रा 500 रुपये और 1,000 रुपये के नोट में थी.
लाइव लॉ के मुताबिक उन्होंने कहा, ‘मुझे लगा कि यह (नोटबंदी) काले धन को सफेद धन में बदलने का एक अच्छा तरीका है. उसके बाद आयकर कार्यवाही को लेकर क्या हुआ, हम नहीं जानते. इसलिए, आम आदमी की दुर्दशा ने वास्तव में मुझे बेचैन कर दिया और इसलिए मुझे असहमत होना पड़ा.’
रिपोर्ट के मुताबिक, उन्होंने हैदराबाद के नालसार (NALSAR) विधि विश्वविद्यालय में आयोजित ‘न्यायालय और संविधान’ सम्मेलन में बोलते हुए यह टिप्पणी की.
नवंबर 2016 में, केंद्र सरकार ने उस समय प्रचलन में मौजूद 500 और 1,000 रुपये मूल्यवर्ग के नोटों को अचानक से बंद करने का फैसला लिया था, जिसके पीछे तर्क दिया गया था कि इसका उद्देश्य काले धन और जाली मुद्रा पर अंकुश लगाना है.
पिछले साल जनवरी में नोटबंदी को चुनौती देने वाली याचिकाओं पर सुनवाई करते हुए, जस्टिस नागरत्ना इसे गैरकानूनी ठहराने वालीं सुप्रीम कोर्ट की एकमात्र जज थीं. उन्होंने कहा था कि इस कदम को उठाए जाने के संबंध में आरबीआई द्वारा ‘कोई स्वतंत्र विचार नहीं किया गया था’ और संसद में भी चर्चा नहीं हुई थी.
बुधवार को उन्होंने कहा कि जिस तरह से नोटबंदी की गई, वह सही नहीं था.
उन्होंने कहा, ‘कानून के अनुसार निर्णय लेने की कोई प्रक्रिया नहीं थी. जिस जल्दबाजी के साथ यह किया गया… कुछ लोगों का कहना है कि तत्कालीन वित्त मंत्री को भी इसके बारे में पता नहीं था.’
उन्होंने आगे कहा, ‘एक शाम संचार हुआ और अगले दिन नोटबंदी हो गई.’
लाइव लॉ के मुताबिक जज ने यह भी पूछा, ’98 फीसदी नोट आरबीआई के पास वापस आ गए, तो हम काले धन का उन्मूलन करने की दिशा में कहां जा रहे थे?’
जस्टिस नागरत्ना ने राज्य सरकारों द्वारा राज्यपालों के कार्यों को अदालतों में चुनौती देने के मुद्दे को भी संबोधित किया और कहा, ‘यह राज्यपालों के लिए काफी शर्मनाक है कि उनसे कुछ न करने के लिए कहा जाए.’
इंडियन एक्सप्रेस ने अपनी रिपोर्ट में बताया है कि जस्टिस नागरत्ना ने कहा, ‘राज्यपाल जो करते हैं उसे संवैधानिक अदालतों के समक्ष विचार के लिए लाना संविधान की एक स्वस्थ प्रवृत्ति नहीं है. यह एक गंभीर संवैधानिक पद है और राज्यपालों को संविधान के अनुसार कार्य करना चाहिए ताकि इस तरह की मुकदमेबाजी कम हो.’
उन्होंने आगे कहा, ‘राज्यपालों के लिए यह काफी शर्मनाक है कि उन्हें कोई काम करने या न करने के लिए कहा जाए. मेरा मानना है कि अब समय आ गया है कि उन्हें संविधान के अनुसार अपने कर्तव्यों का पालन करने के लिए कहा जाए.’
बीते कुछ समय में विपक्षी दलों द्वारा शासित कई राज्य सरकारों ने अपने राज्यपालों – जिन्हें भाजपा के नेतृत्व वाली केंद्र सरकार द्वारा नियुक्त किया गया है – पर पक्षपातपूर्ण तरीके से काम करने का आरोप लगाया है.
सुप्रीम कोर्ट ने भी इस मुद्दे को संबोधित किया है और मुख्य न्यायाधीश डीवाई चंद्रचूड़ ने हाल ही में तमिलनाडु के राज्यपाल आरएन रवि के बारे में कहा था कि जिस विधायक की सजा पर रोक लगा दी गई थी, उसे राज्य मंत्रिमंडल में शामिल न करके वह ‘सुप्रीम कोर्ट की अवहेलना’ कर रहे हैं.
रवि ने इस साल की शुरुआत में पारंपरिक राज्यपाल के अभिभाषण को पूरी तरह से न पढ़कर और राज्य विधानसभा द्वारा पारित विधेयकों पर सहमति देने में देरी करने या सहमति रोककर भी विवाद खड़ा किया था.
केरल, तेलंगाना और पंजाब राज्यों के राज्यपाल भी इसी तरह के विवादों में फंस चुके हैं.