बसंत अपने उरूज पर है- पेड़ों पर नए पत्ते और फूलों के आने का सिलसिला शुरू हो चुका है. पीपल, पलाश, पीली गुलमोहर और न जाने कितने पेड़ बहार लिए बैठे हैं. ऐसे में एक दिन जब किशोरी अमोणकर का राग बसंत-बहार सुना तो कमरे के भीतर भी बसंत का एहसास हो आया. कुछ ऐसी ही खासियत है शास्त्रीय संगीत की.
साल 2017 में 3 अप्रैल को अपने 85वें जन्मदिन (10 अप्रैल) से सप्ताह भर पहले उनका निधन हो गया. किशोरी ताई के संगीत के बारे में बहुत कुछ, उनके जीवन के दौरान और उनके बाद भी, लिखा जाता रहा है. मैं कोई संगीतज्ञ तो नहीं पर एक सुनने वाले की हैसियत से लिख रहा हूं. किशोरी ताई को कभी सामने बैठकर सुनने का मौका नहीं मिला, लेकिन शायद उनके बारे में लिखकर ही मुझे कुछ सुकून मिल जाए.
किशोरी ताई के व्यक्तित्व ने मुझे हमेशा प्रभावित किया है- फिर वो उनकी साधना हो या फिर उनका घराने की बंदिशों के बाहर जाकर स्वर को तलाशना हो. और फिर उनका स्त्री होकर, एक कलाकार के रूप में प्रतिष्ठित मानदंडों को चुनौती देना और महिला संगीतज्ञों को एक अलग पहचान दिलाने के उनके प्रयास बेहद प्रभावित करते हैं. अपनी कठिन साधना से उन्होंने जिस मुकाम पर शास्त्रीय संगीत को पहुंचाया, वो वाकई में बेमिसाल है.
किशोरी ताई के कई साक्षात्कार मैंने देखे लेकिन एक इंटरव्यू जो उन्होंने हिंदी में दूरदर्शन सह्याद्रि को दिया था, वो बेहद ख़ास है, खासकर किशोरी ताई को एक व्यक्ति के रूप में समझने के लिए और यह जानने के लिए कि कैसे उनके व्यक्तित्व ने उनके संगीत को प्रभावित किया. उनकी क्या ‘सेंसिबिलिटीज़’ थी, जिसने उनके संगीत को इतना अलग बनाया कि हिंदुस्तानी शास्त्रीय गायन की कोई चर्चा उनके बगैर अधूरी ही रहती है.
पहली बात उस इंटरव्यू में जो किशोरी ताई कहती हैं वो ये कि संगीत उनके लिए कोई पैसा कमाने या प्रसिद्धि पाने का जरिया नहीं है, संगीत उनके लिए एक साधना है, आराधना है और उपासना है. ज़रा सोचिए, ऐसा लगता है जैसे ताई का संगीत इन्हीं तीन शब्दों के इर्द-गिर्द घूमता था. संगीत उनके लिए वो माध्यम था, और उन्हीं के शब्दों में, जिससे परम शांति मिलना संभव है और वही शांति, ताई अपने श्रोताओं को भी देना चाहती थी.
यहीं पर वो ये भी कहती है, ‘सुर से आनंद मिलता है और वो आनंद लोगों को देना मेरा फ़र्ज़ है, लोगों का हित करना मेरा फ़र्ज़ है, प्रिय देना फ़र्ज़ नहीं है.’ किसी और इंटरव्यू में उन्होंने ये भी कहा था कि संगीत मनोरंजन का नहीं, बल्कि आत्मरंजन का जरिया है और इसीलिए वे शास्त्रीय संगीत के कॉन्सर्ट आदि में ‘वोकल जिमनास्टिक्स’ के भी बहुत खिलाफ थी जहां सिर्फ अपनी तैयारी दिखाने के लिए कलाकार अपनी आवाज़ से ज़बरदस्त कलाबाज़ियां दिखाकर तालियां बटोरता है. किशोरी जी इसके सख्त खिलाफ थी क्योंकि जैसा वे खुद कहती थीं, शास्त्रीय संगीत कोई दिखावे की चीज़ नहीं है और इसीलिए उन्होंने कभी सिर्फ तारीफ बटोरने के लिए अपने गायन को नहीं बदला. संगीत को वो हमेशा ही साधना की दृष्टि से देखती रहीं.
अगर उस तपस्या के लिए उन्हें वक़्त चाहिए होता, या उनका तब तक मंच पर गायन शुरू न करना जब तक उन्हें अपनी आवाज़ की तसल्ली न हो जाए, या उनका अपने दर्शकों से ये उम्मीद करना कि उनके गायन के समय वे अनुशासन में रहेंगे- ये सभी बातें ये दर्शाती हैं कि वे संगीत की सच्ची साधिका थी. उन्होंने अपनी छवि की परवाह किए बिना संगीत के पथ पर अपना एक अलग रास्ता बनाया.
इंटरव्यू के दौरान एक जगह वे प्रस्तुति देने के पहले की अपनी मनस्थिति साझा करते हुए कहती हैं कि शायद लोग मुझे पागल कहेंगे कि मैं ऐसा भी सोच सकती हूं. ‘किसी भी कॉन्सर्ट के पहले मैं बहुत घबरा जाती हूं और मेरे हाथ-पांव कांपने लगते हैं और हालांकि मेरी माध्यम पर बहुत गहरी पकड़ है लेकिन कॉन्सर्ट में राग की छवि कैसी उभर आएगी, ये में नहीं जानती.’
ये वाक्य न सिर्फ उनकी विनम्रता दर्शाता है बल्कि उनके संगीत में साधना के तत्व को भी दर्शाता है. इतना बड़ा कलाकार जब ये कहे तो उसके कुछ ख़ास मायने होते हैं जैसे कि उनकी ये सोच कि राग और स्वर जीवंत हैं इसीलिए वो आपको अपनी छवि बताएंगे और ये इस बात पर निर्भर करता है कि आप उन्हें कैसे पुकारते हैं. इसीलिए घबराहट से उबरने के लिए वे अक्सर अपने आध्यात्मिक गुरु श्री राघवेंद्र स्वामीजी को याद कर उन्हीं से प्रार्थना करती हैं, ‘स्वामीजी आज आप गाइए.’
अपनी बात को आगे बढ़ाते हुए वे कहती हैं कि जब कभी महफ़िल हद से ऊपर चली जाती है तो वे ये कभी नहीं भूलती कि ये उन्होंने नहीं, बल्कि उनके स्वामीजी ने गाया था. ये जो आध्यात्मिक तत्व किशोरी ताई के संगीत में था, ये उसे और भी ख़ास बना देता है. फिर वही बात कि संगीत उनके लिए महज़ कोई पारंगत होने की चीज़ नहीं बल्कि एक साधना का विषय था- ईश्वर के नज़दीक पहुंचने का एक ज़रिया. इसीलिए वे कहती हैं, ‘सुर बहुत प्यारे हैं, बहुत दयालु हैं, उनके पीछे- पीछे जाते रहो, गिरते पड़ते रहो, फिर वो पीछे मुड़ के देखते हैं, सुर ज़िंदा हैं.’
भावुक होते हुए अश्रुपूर्ण नेत्रों से वे सुरों के बारे में कहती हैं, ‘सुर मुझसे बात करते हैं, जब बात करते हैं तो मुझे रास्ता दिखाते हैं, जब मैं खुद किशोरी होकर गाती हूं तो नहीं आते वो, उस वक़्त मुझे बड़ा दुख होता है कि मैंने अपनी और क्यों देखा, मैंने उसकी ओर क्यों नहीं देखा, बस यही जिंदगी है.’
उनके इस इंटरव्यू से हम किशोरी ताई के व्यक्तित्व के और भी पहलुओं से मुखातिब होते हैं. जैसे कि उनका ये कहना कि सुर का तो कोई घराना नहीं होता और हर घराने में स्वर और लय की ही बात होती है, या फिर नए रागों के निर्माण पर उनके विचार या फिर मीरा बाई से उनका नाता- ये सब किशोरी ताई को नए रूप में समझने का मौका हमें देते हैं.
किशोरी ताई की बात को विराम देना बहुत मुश्किल है क्योंकि उनके व्यक्तित्व में कई आयाम है. और उनके संगीत में जो भाव का तत्व है कि संगीत सिर्फ स्वर नहीं बल्कि स्वरों के ज़रिये भावों को दर्शाने का एक माध्यम है और आपके संगीत में सुर हों लेकिन भाव नहीं हो, तो वो श्रोता के मन को नहीं छू पाएगा. साक्षात्कारकर्ता के इस सवाल पर कि क्यों किशोरी ताई गाए हुए कुछ राग बिल्कुल अलग एहसास कराते हैं (उदाहरण के तौर पर उनका गाया राग भूप), ताई जो जवाब देती हैं, वह फिर उनके संगीत में भाव प्रधानता की और इशारा करता है.
ताई के अनुसार, राग का मतलब भाव होता है और राग के भावों को सुरों में बांधने के लिए दिल की जो अवस्था होनी चाहिए, वही अवस्था वह अपने राग गायन में लाने की कोशिश करती है और शायद इसीलिए वही राग, वही सुर होते हुए भी उनके गाए राग शास्त्रीय संगीत में मील का पत्थर साबित हुए हैं.
ताई की सांगीतिक यात्रा में एक अलग ही गरिमा दिखाई देती है और यह उनके व्यवहार के अलग-अलग पहलुओं से हमें समझ आता है कि ताई और उनके संगीत में एक गरिमा थी. श्रोताओं को रिझाने के लिए उन्होंने कभी नहीं गाया. एक साधिका के रूप में उन्होंने शायद ही कभी रुपयों-पैसों की चिंता की हो. वे बस अपनी साधना के ही मार्ग पर चलती रही बिना किसी और बात के परवाह किए बिना.
इस संदर्भ में एक जगह वे कहती हैं, ‘और मैं कभी किसी से भीख नहीं मांगूंगी, क्योंकि मेरे सुर बड़े श्रीमंत हैं. मेरे गुरु बहुत अमीर हैं, वो बराबर इंतज़ाम मेरा करेंगे ये मैं जानती हूं. इसीलिए पैसे का लालच नहीं है मुझे,’- ये भरोसा संगीत की गहरी साधना से ही आ सकता है. अपनी बात आगे बढ़ाते हुए वे कहती है, ‘मैं जो बोल रही हूं, जो कर रही हूं, ये देन मेरी गुरु की है, मेरी मां की है… उम्मीद रखती हूं कि स्वामीजी मुझे इस दुनिया से जाने से पहले दिखाएंगे कि सुर क्या हैं.’
चलते-चलते किशोरी ताई के भक्ति संगीत की बात तो करनी ही पड़ेगी- फिर वो चाहे उनके मीरा के भजन हो या फिर मराठी अभंग- इन सभी में भावों की प्रधानता इन भजनों को और भी ख़ास बना देती है. मेरी पांच साल की बेटी को जो भजन बहुत पसंद आया वो था ‘हे मेरो मनमोहन आयो नहीं सखी री’ और मीरा बाई का ‘म्हारो प्रणाम बांके बिहारी जी.’ ये किशोरी ताई के संगीत साधना ही है कि बड़ों से लेकर छोटों तक को उनका संगीत छूता है.
प्रणाम, किशोरी ताई!
(लेखक आईआईटी बॉम्बे में शोधार्थी हैं.)