उत्तर प्रदेश को यों ही ‘प्रधानमंत्रियों का प्रदेश’ नहीं कहा जाता. अब तक इसके रिकाॅर्ड नौ सांसद प्रधानमंत्री बनकर देश की बागडोर संभाल चुके हैं. इनमें से चार-पं. जवाहरलाल नेहरू, लालबहादुर शास्त्री इंदिरा गांधी और राजीव गांधी- कांग्रेसी रहे हैं तो पांच गैर-कांग्रेसी — चौधरी चरण सिंह, विश्वनाथ प्रताप सिंह, चंद्रशेखर, अटल बिहारी वाजपेयी और नरेंद्र मोदी.
लेकिन चूंकि विश्वनाथ प्रताप सिंह व अटल बिहारी वाजपेयी ने अपने राजनीतिक जीवन में एक से ज्यादा लोकसभा सीटों का प्रतिनिधित्व किया, इसलिए ‘प्रधानमंत्रियों के’ या उनसे जुड़े क्षेत्रों की कुल संख्या नौ के बजाय ग्यारह है: फूलपुर (पं. जवाहरलाल नेहरू व विश्वनाथ प्रताप सिंह), इलाहाबाद (लाल बहादुर शास्त्री व विश्वनाथ प्रताप सिंह), रायबरेली (इंदिरा गांधी), बागपत (चौधरी चरण सिंह), अमेठी (राजीव गांधी), फतेहपुर (विश्वनाथ प्रताप सिंह), बलिया (चंद्रशेखर), लखनऊ व बलरामपुर (अटल बिहारी वाजपेयी) और वाराणसी (नरेंद्र मोदी).
सवाल है कि प्रधानमंत्री से जुड़कर मिली नई पहचान ऐसे क्षेत्रों को विकास वगैरह में प्राथमिकता कहें या वीवीआईपी ट्रीटमेंट ही उपलब्ध कराकर रह जाती है अथवा उनकी सामाजिक-राजनीतिक चेतनाओं को उन्नत करने और गरीबी व गिरानी आदि के दीर्घकालिक या स्थायी समाधान में भी कोई भूमिका निभाती है?
इस लिहाज से देखें तो पं. नेहरू के लोकसभा क्षेत्र फूलपुर का हाल सबसे बुरा है. उनके निधन के चार दशक भी नहीं बीते थे कि इसकी चेतना इतनी दूषित हो गई कि उसने अतीक अहमद और कपिलमुनि करवरिया जैसे बाहुबलियों को चुनना आरंभ कर दिया. 2004 में उसने सपा के अतीक अहमद को चुना तो 2009 में बसपा के कपिल मुनि करवरिया को.
बात को यों भी कह सकते हैं कि नेहरू की कांग्रेस इस सीट पर उनकी विरासत को उनके निधन के बाद पांच साल भी नहीं संजो पाई. 1964 (उपचुनाव) और 1967 (आम चुनाव) में उनकी जगह उनकी बहन विजयालक्ष्मी पंडित जीतीं भी तो दो साल बाद ही संयुक्त राष्ट्र में प्रतिनिधि बनने के लिए इस्तीफा दे गईं. इस तरह इस सीट का नेहरू परिवार से नाता टूटा तो छात्र आंदोलन से निकलकर आए संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी के युवा नेता जनेश्वर मिश्र ने नेहरू के सहयोगी केशवदेव मालवीय को शिकस्त देकर उपचुनाव में ही कांग्रेस का यह गढ़ ढहा दिया.
उसके बाद 1999 तक हुए नौ आम चुनावों में कांग्रेस के प्रत्याशी 1971 (विश्वनाथ प्रताप सिंह) और 1984 (रामपूजन पटेल) में ही जीत पाए. 1989 में रामपूजन पटेल ने पाला क्या बदला, कांग्रेस यह सीट जीतने को तरसने लगी. बाद में वह मुख्य मुकाबले से भी बाहर रहने लगी और जीत-हार का फैसला सपा, बसपा व भाजपा के बीच होने लगा. 2014 में क्रिकेटर मोहम्मद कैफ तक कांग्रेस के प्रत्याशी बनकर महज 58,127 वोट और चौथा स्थान ही पा सके. उनकी जमानत तक नहीं बची. 2019 में कांग्रेस के पंकज पटेल तो महज 32,761 वोट ही पा सके.
फिलहाल, इस पर भाजपा काबिज है और सपा व बसपा उसके मुकाबिल हैं. बेबस कांग्रेस ने सपा से उसकी शर्तों पर गठबंधन कर यह सीट उसके लिए छोड़ दी है, जिससे ईवीएम में उसका चुनाव निशान तक नहीं होगा.
क्या पता, देश के पहले (कांग्रेसी) प्रधानमंत्री के चुनाव क्षेत्र में अपनी यह दुर्दशा कभी कांग्रेस को चिंतित करती है या नहीं. करती हो तो दूसरे प्रधानमंत्री लालबहादुर शास्त्री की इलाहाबाद लोकसभा सीट की दुर्दशा भी चिंतित करनी चाहिए. क्योंकि 1984 में चुने गए उसके स्टार सांसद अमिताभ बच्चन के इस्तीफे के बाद से यह सीट भी उसके लिए पराई होकर रह गई है.
शास्त्री की विरासत भी वह उनके जाने के बाद के महज दो चुनावों तक ही बचा पाई. 1967 में उसके प्रत्याशी हरिकृष्ण शास्त्री (शास्त्री के पुत्र) चुने गए और 1971 में हेमवतीनंदन बहुगुणा. 1977 में जनता पार्टी के जनेश्वर मिश्र ने उसकी जीत का सिलसिला तोड़ा तो 1980 में विश्वनाथ प्रताप सिंह द्वारा फिर जोड़े जाने के बावजूद अमिताभ के इस्तीफा देते ही फिर टूट गया.
अलबत्ता, यहां इस अर्थ में उसके लिए हालात फूलपुर से बेहतर हैं कि सपा से गठबंधन में यह सीट उसके पास है-चुनाव में भाजपा से छीन लेने का मौका भी. लेकिन मजबूरी ऐसी कि उसे एक वयोवृद्ध सपा नेता के बेटे पर ही दांव लगाना पड़ रहा है!
फूलपुर और इलाहाबाद के विपरीत तीसरी प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की रायबरेली में कांग्रेस का जलवा कायम है और वह उनकी बहू सोनिया गांधी की चुनावी पारी के सुखद समापन के बाद उनके परिवार के किसी अन्य सदस्य की बाट जोहती दिखती है. यह और बात है कि 1977 में इसने स्वयं इंदिरा गांधी को हराकर किसी पदासीन प्रधानमंत्री को उसकी सीट हराने जो रिकाॅर्ड बनाया था, वह तब से अब तक हुए ग्यारह लोकसभा चुनावों में अटूट चला आ रहा है.
रायबरेली के ही निवासी राजनीतिविज्ञानी डाॅ. रामबहादुर वर्मा इसका हवाला देते हुए पूछते हैं कि ‘वीवीआईपी ट्रीटमेंट’ खोने का रिस्क उठाकर कांग्रेसी प्रधानमंत्री को हरा देने के बावजूद यह सीट कांग्रेस की गढ़ क्योंकर है? उनकी मानें तो कई लोग इसे इसलिए भी कांग्रेस का गढ़ कहते हैं ताकि जता सकें कि इसे मेरिट के आधार पर चुनाव करना नहीं आता. लेकिन इसने 1977 में जनता पार्टी को ही नहीं, 1996 व 1998 में भाजपा को भी जिताया था.
अलबत्ता, इसके चुनावी आंकड़े अभी भी कांग्रेस के पक्ष में ही हैं. अब तक सर्वाधिक 17 बार (उपचुनावों सहित) वही जीती है, जबकि भाजपा दो व जनता पार्टी सिर्फ एक बार 1977 में.
राजीव गांधी की अमेठी की बात करें, तो उसे न नाराज होते देर लगती है, न खुश होते. 1977 में उसने जिन संजय गांधी (राजीव के छोटे भाई) को बुरी तरह नकारा था, 1980 में उन्हें ही सिर आंखों पर बैठा लिया था. विमान दुर्घटना में उनके निधन के बाद उसने उनकी जगह आए राजीव का भी स्वागत ही किया था. 1984 में उनके मुकाबले संजय की पत्नी मेनका की जमानत तक जब्त करा दी थी तो 2014 में राहुल के सामने आए आम आदमी पार्टी के कवि प्रत्याशी कुमार विश्वास को 25 हजार से थोड़े ही ज्यादा वोट मयस्सर होने दिए थे. फिर 2019 में उन्हीं राहुल को भाजपा की स्मृति ईरानी के हाथों हरा दिया था.
साफ है कि अमेठी भी गांधी परिवार का वैसा गढ़ नहीं है, जैसा प्रचारित किया जाता है. वह शरद यादव, कांशीराम, राजमोहन गांधी और कुमार विश्वास की ही तरह राहुल, उनके चाचा संजय गांधी और चाची मेनका गांधी को भी करारी शिकस्त दे चुकी है.
गैर-कांग्रेसी प्रधानमंत्रियों में चौधरी चरण सिंह बागपत तो विश्वनाथ प्रताप सिंह फतेहपुर (प्रधानमंत्री बनने से पहले फूलपुर और इलाहाबाद) और चंद्रशेखर बलिया लोकसभा सीट का प्रतिनिधित्व करते रहे हैं. इसी तरह अटल बिहारी वाजपेयी प्रधानमंत्री बने तो लखनऊ के सांसद थे, जबकि उससे पहले वे दो बार बलरामपुर के सांसद रह चुके थे. इनमें चौधरी चरण सिंह की बागपत सीट उनसे ज्यादा उनके बेटे अजित सिंह की लगती है.
जनता पार्टी और लोकदल के नेता के रूप में चरण सिंह ने 1977 से 1984 तक कुल तीन बार ही इसका प्रतिनिधित्व किया, जबकि अजित ने 1998 को छोड़ दें तो 1989 से 2009 तक जनता दल, कांग्रेस व राष्ट्रीय लोकदल के बैनरों पर एक उपचुनाव समेत सात बार जीत हासिल की. अलबत्ता, 2014 में भाजपा के मुकाबले वे तीसरे स्थान पर चले गए थे, जबकि 2019 में उनके बेटे जयंत को भी दूसरा स्थान ही मिल पाया था. अब बदली हुई स्थितियों में जयंत भाजपा के समर्थन से सपा के विरुद्ध अपनी पार्टी के प्रत्याशी को जिताने में लगे हैं.
चौधरी के विपरीत विश्वनाथ प्रताप सिंह कुल मिलाकर डेढ़ कार्यकाल ही फतेहपुर के सांसद रहे. तिस पर बाद में उन्होंने खुद को राजनीति से निर्लिप्त भी कर लिया था. इसलिए वहां उनके गढ़ जैसा कुछ न कभी रहा, न अब है. हां, चंद्रशेखर 1977 से 2004 तक-बीच में 1984 को छोड़कर-आठ बार बलिया के सांसद रहे और नहीं रहे तो उनके बेटे नीरज शेखर ने सपा के समर्थन से पहले उपचुनाव, फिर एक चुनाव भी जीता. फिर नीरज खुद भी भाजपा में चले गए और उनकी सीट भी.
अटल बिहारी वाजपेयी 1991 से 2004 तक पांच बार लखनऊ से चुने गए और उसके बाद से इस सीट पर लगातार उनकी पार्टी का कब्जा चला आ रहा है. वे 1957 और 1967 में बलरामपुर के सांसद भी थे, लेकिन उनके प्रधानमंत्री पद का कोई चाक्चिक्य उसके हिस्से नहीं आया. वाराणसी में नरेंद्र मोदी तीसरी बार मतदाताओं के सामने हैं और अभी उनकी पारी की बाबत कोई निष्कर्ष निकालना जल्दबाजी होगा.
बहरहाल, इतने विवरणों की रोशनी में यह तो समझा जा सकता है कि प्रधानमंत्रियों की सीटों के मतदाताओं का लोकतांत्रिक प्रशिक्षण अन्य सीटों के मतदाताओं के मुकाबले थोड़ा बेहतर होता है. इसलिए कि डाह या चाह जिसके भी चलते हो, उस पर प्रायः सारे दावेदारों व दलों का ज्यादा ध्यान होता है. लेकिन यह नहीं कहा जा सकता कि इससे इन मतदाताओं की सामाजिक-राजनीतिक चेतनाएं भी ऊंची उठ जाती हैं. इतनी ऊंचाई तक तो वे कतई नहीं उठतीं, जिसे अलग से रेखांकित किया जा सके. वंशवाद, जातिवाद, क्षेत्रवाद व सांप्रदायिकता और धनबल व बाहुबल के दुरुपयोग जैसी राजनीति की बीमारियां इन सीटों पर भी मौका पाते ही संक्रामक हो जाती हैं.
जो हालात दिखते हैं, उनमें इनके मतदाताओं की गरीबी व गिरानी को लेकर कभी कोई गंभीर अध्ययन हो तो शायद यही निष्कर्ष निकले कि संबंधित प्रधानमंत्रियों की सत्ता रहते इन सीटों पर स्वर्ग उतारे जाने के व्यापक प्रचार के बावजूद वहां कोई नखलिस्तान नहीं बन पाया हैं- भले ही दूसरी सीटों के लोग इसकी बिना पर उनके प्रति ईर्ष्या से भरे रहते हों.
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं.)