लोकतंत्र को सीधी राह पर लाने का क्या उपाय है?

कभी-कभार | अशोक वाजपेयी: लोकतंत्र अपने आप सीधी राह पर वापस नहीं आता या आ सकता. हम ऐसे मुक़ाम पर हैं जहां नागरिक के लोकतांत्रिक विवेक की परीक्षा है. उन्हें ही निर्णय करना है कि वे लोकतंत्र पर सीधी राह पर वापस लाने की कोशिश करना चाहते हैं या नहीं.

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(इलस्ट्रेशन: परिप्लब चक्रवर्ती/द वायर)

हमारा लोकतंत्र पर्याप्त या सर्वसंतोषी तो कभी नहीं था. पर पिछले एक दशक में वह निश्चय ही बहुत भटक गया है. सत्तारूढ़ राजनीतिक चातुर्य ने उसी को कुछ प्रक्रियाओं का उपयोग कर उसे विकृत और पथभ्रष्ट किया है. कुछ बुनियादी अधिकारों को सत्ता द्वारा दिए गए लाभ में बदल दिया गया है जिसके लिए हमें सत्ता का आभारी होना चाहिए. सत्ता और राजनीतिक-आर्थिक गतिविधियां और शक्तियां अपनी मर्यादाओं में संयमित रहें इसकी निगरानी करने वाली संस्थाएं निष्क्रिय और निस्तेज कर दी और हो गई हैं.

असहमति, प्रतिरोध, विरोध, विवाद आदि लगभग अपराध की तरह देखे जाने लगे हैं. राजनीति में धर्म, मीडिया आदि सभी की स्वतंत्रता हर कर उन्हें अपना पालतू बना लिया है. मीडिया का एक बड़ा हिस्सा उन मुद्दों के बारे में चुप्पी साधता है जो सत्ता को परेशान कर सकते हैं और ग़ैर-मुद्दों में दर्शकों को फंसाए रखता हे, अपनी बेशर्म स्वामिभक्ति में.

धर्मस्थल राजनीतिक प्रचार और प्रहार के मंच बन गए हैं: वे अपने ही अध्यात्म से बहुत दूर चले गए हैं. संस्कृति लगातार धार्मिक तमाशों में घटा दी गई है और, ख़ासकर शास्त्रीय कलाओं के कलाकार इन तमाशों में शामिल होकर धर्म की नहीं सत्ता की वंदना कर प्रसन्न हैं. बेकारी, बेरोज़गारी भयावह स्तर पर पहुंच गई है: महंगाई का स्तर इस लोकतंत्र के इतिहास में सबसे ऊंचाई पर है. ज्ञान का अवमूल्यन एक दैनिक घटना है. सारी कोशिश ज्ञान-आधारित नहीं अज्ञान और दुर्व्‍याख्या से पोसे जाने वाला पढ़ा-लिखा समाज बनाने की है जो प्रश्न न पूछे, विवाद न करे, चुपचाप रहे- भले निपराध मारे जाएं या जेल में ठूंस दिए जाए.

परंपरा, इतिहास, संस्कृति सभी की दुर्व्‍याख्या और विस्मृति आम बात है. सार्वजनिक कला और सुंदरीकरण के नाम पर दयनीय कुरुचि भदेस रंगों और आकारों सड़कों के दोनों ओर सुशोभित हो रही है. इस छोटी-सी सूची से इस नतीजे पर पहुंचने से बचा नहीं जा सकता कि लोकतंत्र सीधे राह से, अपने उदात्त लक्ष्यों से बहुत भटक गया है.

निराला की एक प्रसिद्ध पंक्ति है: ‘सीधी राह मुझे चलने दो.’ लोकतंत्र अपने आप सीधी राह पर चलने वापस नहीं आता या आ सकता. उसे सीधी राह पर ला सकते हैं नागरिक ही. इन दिनों इन्हीं नागरिकों पर झूठों-झांसों-नफ़रत-हिंसा-हत्या आदि की भरमार है और अब हम ऐसे मुक़ाम पर पहुंच गए हैं जहां नागरिक के लोकतांत्रिक विवेक की परीक्षा होना है. नागरिकों को ही निर्णय करना और उस निर्णय पर अमल करना है कि वे लोकतंत्र पर सीधी राह पर वापस लाने की कोशिश करना चाहते हैं या नहीं. तरह-तरह के भयों से घिरे, इस समय में उन्हें ही तय करना है क्या वे अपने विवेक से कुछ निर्णायक करने को, बिना हिचक या डर के, तैयार हैं.

संकट सिर्फ़ लोकतंत्र भर का नहीं, समूची भारतीय सभ्यता का भी है. इस समय लोकतंत्र को सीधी राह पर लाने का एक आशय इस सभ्यता पर फिर से इसरार करना है- उसकी बहुलता, खुलेपन, समरसता और परिवर्तनशीलता पर.

फूल का छंद

इस प्रसंग को हुए लगभग पचास बरस हो गए. हम अपनी पहली दक्षिण-यात्रा से लौटकर उसके अनुभव पंडित कुमार गंधर्व से साझा कर रहे थे. वे देवास में अपने घर के बरामदे में एक झूले पर बैठे थे. उनके बेटे मुकुल ने कुछ टिप्पणी की जिससे असहमत होते हुए कुमार जी ने कहा: ‘बिना छंद के फूल नहीं खिलता है.’ ऐसी काव्योक्तियां स्वतः स्फूर्त भाव से कुमार जी अक्सर करते थे.

अब इसी उक्ति से प्रेरित होकर अमित दत्त ने कुमार जी पर एक अद्भुत फिल्म बनाई है जिसका शीर्षक है ‘फूल का छंद’. फिल्म रज़ा फाउंडेशन और तक्षशिला एजुकेशन सोसाइटी के लिए कुमार जी की जन्मशती के अवसर पर बनाई गई है और उसका पहला शो ठीक 8 अप्रैल को दिल्ली में हुआ जिस दिन, अगर वे जीवित होते, तो सौ बरस के हुए होते.

लगभग डेढ़ घंटे की यह फिल्म, जानबूझकर और सौभाग्य से, डॉक्यूमेंट्री नहीं है. कुछ जीवनीपरक तथ्यों जैसे बचपन के परिवेश, शास्त्रीय संगीत के प्रति आकर्षण, दस वर्ष की आयु में संगीत-प्रस्तुति, तपेदिक से ग्रस्त होने पर देवास में बरसों लेटे रहने और शारीरिक यंत्रण की विवशता आदि. लेकिन, यह फिल्म, जैसा कि अमित दत्त ने कहा है, ‘उनकी बीमारी की अवस्था में बिस्तर पर लेटे हुए एक पल को लेकर विस्तार करती है जहां उनकी संगीत और चिंतन का जीवन एक सपने की तरह चलता है, जिसमें वे अपने बचपन का भी स्मरण करते हैं और जीवन-काल पूरा करने के बाद पीछे रह जाने वाले आकाश शून्य और उसके परे गगन गुफा पर चिंतन भी.’

यह निश्चय ही एक कठिन काम है. अमित ने एक मौलिक शास्त्रीय गायक के जीवन, संगीत और चिंतन को एक अधूरी बंदिश या असमाप्य राग की तरह बरतते हुए फिल्म को उसकी चाक्षुष बढ़त और उपज जैसा बनाया है. एनीमेशन का बेहद कल्पनाशील उपयोग पूरी फिल्म में हुआ है जिसके कारण रंगों की अपार सुषमा, सुंदर छटा और लगातार बदलती संगति कुमार जी के संगीत का एक रंगवितान उभारते हैं. कविता की एक पंक्ति बराबर याद आती रही: ‘फूल नहीं, रंग बोलते हैं.’

संगीत पर फिल्म होने के नाते उसमें आवाज़ों का तुमुल हो यह स्वाभाविक है. पर इस फिल्म में आवाज़ों का यह वृंद कई तरह से अनूठा है. एक स्तर पर वह जीवन के रोज़मर्रापन को उसकी ऐंद्रियता में व्यक्त करता है. दूसरे, वह उसी परिवेश की व्यंजना है जिसमें इतनी सारी आवाज़ों के तुमुल में आवाज़ का ही एक अत्यंत शिल्पित-परिष्‍कृत रूप संगीत जन्म लेता है. तीसरे, वह तुमुल उन आवाज़ों का है जो पक्षियों, बरसात, हवा, लहरों से लेकर रेलगाड़ी, बाइसिकिल, तांगा आदि की हैं. यह कुमार जी के संगीत के कई उत्सों की ओर संकेत करता है.

कुमार जी ने प्रकृति के कई रूपों, रोज़मरा की साधारण घटनाओं और प्रसंगों आदि को लेकर संगीत रचना, राग और बंदिशें बनाईं. उनका संगीत साधना का जितना प्रतिफल था, उतना ही रोज़मर्रा की जिजीविषा और ऐंद्रियता का. उसमें साधारण की अबाध गरिमा है: वह भव्यता का नहीं, सुंदरता का संगीत है. अमित ने इस पक्ष को बड़ी खूबसूरती से विन्यस्त किया है. गगन मंडल बीच में आवाज़ देने वाले कुमार जी कितने इस धरती के गायक थे इसका बहुत गहरा और मार्मिक एहसास इस फिल्म से होता है.

शास्त्रीय संगीत पर जो स्मरणीय फिल्में हिंदी में हैं उनमें मणि कौल की ‘ध्रुपद’ और ‘सिद्धेश्वरी’ और कुमार शहानी की ‘ख़्याल गाथा‘ सबसे उल्लेखनीय रही हैं. ‘फूल का छंद’ इस गौरव-संपदा में चुपके से शामिल हो गई है.

सादगी की सघनता

रंगकर्मी राजेंद्र पांचाल के रंगमंच से मेरा परिचय नहीं था. कुछ समय पहले भोपाल में आयोजित ‘रज़ा पर्व’ में विनोबा भावे पर एकाग्र उनकी रंग प्रस्तुति मैंने देखी. बहुत सीमित स्पेस पर उनकी पूरी मंडली बैठी और उसने अपनी बहुत मार्मिक सादगी से हमें देर तक बांधे रखा. यह ज़ाहिर हुआ कि अंततः रंगकर्म को सार्थक और मर्मस्पर्शी होने के लिए बड़ा मंच, तरह-तरह के परिधान, विपुल नाटकीय मुद्राएं ज़रूरी नहीं है.

हाल ही में दिल्ली में आयोजित ‘रंग हबीब‘ में उनकी दूसरी प्रस्तुति देखने का सुयोग हुआ जो हाड़ौती में बहत समादृत सुुकवि सूर्यमल्ल पर एकाग्र थी. सारी प्रस्तुति हाड़ौती बोली में ही थी और फिर पूरी रंगमंडली मंच पर पीछे बैठी थी. तीन संगीतकारों का एक समूह बगल में बैठा था. राजेंद्र पांचाल स्वयं सुकवि की भूमिका में. रंगमंडली से उठ-उठकर अभिनेता आते रहे और अपना चरित्र निभाकर वापस वहां बैठते रहे.

यह मंडली सारी प्रस्तुति में एक सांगीतिक बैकड्रॉप बनी रहती है और जब-तब आलाप की तरह उभरती है या कोरस का काम करती है. हबीब तनवीर की ही तरह राजेंद्र पांचाल की रंगभाषा में संगीत, सीमित साधनों और बोली की प्रधानता है. सारे नाटक के हाड़ौती भाषा में होने के बावजूद रंग-संप्रेषण में कोई दिक्कत नहीं हुई. इसका कोई दावा वे नहीं करते पर राजेंद्र पांचाल का रंगमंच हमारी प्राचीन रंग परंपरा का इस समय पुनराविष्कार है. उसमें कल्पना और स्मृति पर ज़ोर है. उसकी सादगी मानवीय गरिमा का ही रूपक है. वह भव्य-दिव्य नहीं है पर उसकी निपट मानवीयता उजली और मर्मस्पर्शी है.

बहुत दिनों बाद कम से कम हम जैसों को ऐसा रंगकर्म देखने-सराहने को मिला है जो बड़दिखाऊ और बड़बोला नहीं है: जो विनम्र है, जिसमें सहज विनय है और हमें संवाद के लिए न्योतता है. उसका पड़ोस में घटना, समय में ले जाता है. और समय के पार भी. सुकवि के कई छंदों की अदायगी बहत प्रभावशाली थी. कुल मिलाकर, एक बार फिर यह ज़ाहिर हुआ कि कम से कम से भी ज़्यादा से ज़्यादा कर-कह पाना संभव है. बेहद भड़कीले-धमकीले-बड़बोले चकाचौंध-भरे समय में हाल में हल्की रोशनी में किया गया नाटक बहुत राहत दे पाया: हमें अपने मौन और मुखरता को फिर से जांचने के लिए प्रेरित करते हुए.

यह उल्लेखनीय है कि यह रंगमंडली सिर्फ़ रंगकर्म में एक साथ नहीं आती: वह एक गांव में, एक फार्म पर रहती और खेती आदि करके जीवनयापन साथ ही करती है. रंगकर्म उसके कर्मक्षेत्र में रसा-बसा और उसका एक हिस्सा है.

(लेखक वरिष्ठ साहित्यकार हैं.)

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