हम एक तरह से धर्मसंकट में हैं इस समय. लोकसभा के चुनाव के लिए प्रचार अभियान ज़ोरों पर है. चुनाव आयोग ने जो आचरण संहिता लागू की है उसमें धर्म के नाम पर वोट मांगने पर स्पष्ट मनाही है. फिर भी, विशेषकर सत्तारूढ़ शीर्ष नेता हर रोज़ किसी न किसी ढंग से धर्म का ज़िक्र कर रहे हैं और चुनाव आयोग उन्हें कोई सलाह तक देने में अक्षम साबित हो रहा है.
साधारण नागरिक चुनाव में इस धर्म का सहारा लेकर फैलाए संकट को लाचार देख रहा है और गोदी मीडिया उसे लेकर स्वामिभक्ति के पालन में चुप या प्रफुल्लित है.
दशकों पहले हमारे संविधान ने इस बहुधार्मिक देश में किसी भी धर्म को वरीयता या प्रमुखता देने के बजाय एक नया नागरिक धर्म प्रस्तावित किया था. वह मूलतः सामाजिक था, भले उसके मूल में जो मूल्य थे और हैं वे मूलतः आध्यात्मिक ही थे. इस सामाजिक धर्म के मूल्य थे और हैं: स्वतंत्रता, समता, न्याय और बंधुता. कोई तथाकथित धर्म संकट में हैं या नहीं, यह सामाजिक धर्म संकट में निश्चय ही है. जिसे इस समय संविधान का संकट कहा जा रहा है वह इन्हीं मूल्यों का आचरण और आत्मा में उल्लंधन है, यह धर्मसंकट है.
इस संकट को गहराने में प्रशासन और सिविल सेवाओं की बड़ी भूमिका है. यह विडंबना है कि जो संविधान की शपथ लेकर सत्ता और प्रशासन में आते हैं वे ही, सांठ-गांठ कर, संविधान के साथ सुनियोजित विश्वासघात करने में हिस्सेदार हैं. सिविल सेवाओं पर नागरिकों का विश्वास नहीं रहा है. यह सोचना चकराता और गहरी निराशा में डालता है कि इन सेवाओं में कितना कम प्रतिशत ईमानदार, निडर, साहसी और जनहितप्रेमी बचा है.
ऐसे संकट के समय में भारतीय सिविल सेवाओं के कुछ सेवानिवृत्त अधिकारियों ने, जो केंद्र और राज्य सरकारों में प्रशासन के उच्च पदों पर रह चुके हैं, जिन्हें प्रशासन का सुदीर्घ अनुभव है, जो विभिन्न सरकारी प्रक्रियाओं के अनुभवी विशेषज्ञ हैं और जिनकी संविधान के प्रति निष्ठा अब भी अटल और गहरी है, यह तय किया कि वे एक संवैधानिक आचरण समूह के रूप में अपने को संगठित और सक्रिय करेंगे. देश में बढ़ती असहिष्णुता, एकाधिपत्य, अनुदारता, पक्षपात और संवैधानिक संस्थाओं, प्रक्रियाओं और मूल्यों की निष्क्रियता और अवमूल्यन के समय में वे सुविचारित ढंग से, तथ्यों और तर्कों के आधार पर, सार्वजनिक पत्र लिखकर इन मुद्दों को लेकर हो रहे कदाचरण, विचलन और अवमूल्यन को जगज़ाहिर करेंगे. इस समूह में भारत भर से लगभग दो सौ सिविल सेवक शामिल हैं. मैं उनमें से एक हूं.
इस समूह द्वारा लिखे गए खुले पत्रों का, जिनकी संख्या 74 है, एक संचयन स्पीकिंग टाइगर्स द्वारा ‘इन डिफेंस ऑफ द रिपब्लिक’ शीर्षक से प्रकाशित हुआ है. ये पत्र राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री, मुख्य न्यायाधीश, गृह मंत्री, केंद्र सरकार के अन्य मंत्रियों, कई राज्यों के मुख्यमंत्रियों, कई राजनीतिक दलों के राष्ट्रीय अध्यक्षों, सांसदों, मीडिया, चुनाव आयोग, सीएजी, कई राष्ट्रीय आयोगों, नागरिकों आदि को संबोधित रहे हैं.
ये पत्र सांप्रदायिक घृणा और हिंसा, चुनाव और मतदान, मौलिक अधिकारों और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता, प्रशासन और सार्वजनिक नीतियों, क़ानून और न्याय व्यवस्था, आदिवासी समुदायों के अधिकारों और संरक्षण के क्षेत्रों में उठे विभिन्न मुद्दों को लेकर लिखे गए हैं. इनमें व्यापक रूप से ख़बरों में आए तथ्यों, वक्तव्यों में आए तथ्यों और आरोपों, प्रासंगिक नियम और क़ानून के प्रावधानों, निर्धारित प्रक्रियाओं, प्रथाओं आदि का विस्तृत उल्लेख है. हमारी व्यवस्था संवैधानिक रूप से कितनी गिर चुकी है वह इस बात से साबित है कि इनमें से अधिकांश पत्रों की संबंधितों ने न तो पावती भेजी, न ही कोई उत्तर. कुछ अख़बारों में, जो गोदी मीडिया की जमात में शामिल नहीं हैं, इन पत्रों को या उनके सारांश को छापा है.
पत्रों का यह संचयन जो हो रहा है उसका एक तथ्य-संकलन, एक ऐतिहासिक रिकॉर्ड है. वह हमारे समय में संवैधानिक दुराचरण का अभियोजक संकलन है. दूसरे स्तर पर, यह नागरिकों के सजग-सतर्क समूह द्वारा इस डराऊ-धमकाऊ समय में निर्भय, निष्पक्ष और जागरूक साहस और असहमति का दस्तावेज़ है. तीसरे, वह हमारे समय में संवैधानिक मूल्यों के इसरार की एक अनौपचारिक संहिता भी है. चौथे, वह इसका साक्ष्य भी है कि बिना किसी राजनीतिक दल से संबंद्ध हुए, निष्पक्ष ढंग से, असहमत और प्रतिरोधी हुआ जा सकता है. यह कथा भी है कि सबका अंतःकरण संक्षिप्त नहीं हुआ है.
इसका पुस्तककार प्रकाशन दुस्साहसिक है. अगर इसका हिंदी अनुवाद भी प्रकाशित हो तो व्यापक रूप से नागरिकों को सजग-सक्रिय करने में मदद मिल सकती है.
एक प्रियदर्शी कवि
उदयपुर के कवि नंद चतुर्वेदी इस 21 जनवरी को एक सौ एक बरस के हो गए होते अगर जीवित होते. उनको याद करना कविता में सादगी और पारदर्शिता के सौंदर्य और संघर्ष दोनों को याद करना है. उन्हीं के शब्दों में उनकी कविता ‘कौतुक भी’ थी और ‘उत्सव की तरह मुक्त करने वाली भी’. उनकी कविता में जीवन का ‘प्रेम’ है और ‘प्रज्वलन’ भी.
फिर उनके शब्द उधार लेकर कह सकते हैं कि उनका काव्य-संघर्ष, जैसे कि जीवन भी, ‘अम्लान रोशनी की तलाश में’ था. समता के लिए उनका आग्रह उत्कट और अदम्य रहा. उनकी आत्मीय सामाजिकता ‘उस चिरन्तन आशावाद से रचा-बुना सपना है जो सब समतावादियों और उनके शुभ-चिन्तकों का रहा है.’ पर उन्हें इसका तीख़ा एहसास भी था कि ‘इस सपने को रखने के लिए/फ़िलहाल हमारे पास जगह नहीं है.’
नंद बाबू, जैसा कि उन्हें सभी पुकारते हैं, प्रियदर्शी, समय-दर्शी और स्वप्नदर्शी एक साथ थे. अपने साहित्य के बारे में उन्होंने कोई दावा नहीं किया. वह जिजीविषा, जीवन के साहित्य के लगाव, ‘आशा-निराशा के बीच फंसी ज़िंदगी के प्रज्वलन’, समृद्धि नहीं ‘अभाव’ से जुड़ा, अपने समय और व्यवस्था से उपजी ‘तृष्णाओं, क्लेशों और लंपटताओं’ को हिसाब में लेता, बार-बार घिरते अंधेरों में रोशनी की दरारें खोजता-बनाता साहित्य है.
उन्होंने दशकों पहले देख लिया था: ‘लोकतंत्र यहां थिगलियां लगे/तिरपाल के नीचे बैठा है’. हमारे डराऊ-धमकाऊ दौर में उनकी ये पंक्तियां कितनी मौजूं हैं: ‘निडर होने के लिए/कितना डरना पड़ता है. और कि ‘संसार डरे हुए लोगों का वास है/निडर होना केवल किंवदंती’.
उनकी पुस्तकों के शीर्षक उनके प्रयत्न और स्वप्न का वितान बता देते हैं: यह समय मामूली नहीं, ईमानदार दुनिया के लिए, वे सोये तो नहीं होंगे, जो बचा रहा, अतीत राग, उत्सव का निर्मम समय, वहां उजाले की एक रेखा खिंची है, गा हमारी ज़िंदगी कुछ गा और आशा बलवती है राजन्. उनकी एक कविता ‘कहत कबीर सुनो हो साधो’, कुल दस पंक्तियों की, हमारे समय में कितनी सटीक लगती है:
कहत कबीर सुनो हो साधो
वाणी एक अंगार उचारे दूजी लिए हाथ में लोटा
एक कहे यह असली चेहरा कहे दूसरा इसे मुखौटा
कौन बिरछ की छाया बैठे रहा सोचता बेनी माधो
इसे बुलाया उसे बुलाया पद सिंहासन उन्हें बिठाया
आतम-ज्ञान कबाड़ा कीन्हा दो कौड़ी के मोल बिकाया
प्यासे हिरण रेत में भागे क्या छिछला क्या नीर अगाधो
छोटे ताल-तलैया न्हाएं बोले अगम-निगम की बानी
चक्कर काट वहीं पर आवें जैसे बैल तेल की घानी
रात अंधेरे बाड़ फलांगे दिन में सीताराम अराघौ.
(लेखक वरिष्ठ साहित्यकार हैं.)