सुबह-सुबह फ़ोन की घंटी बजी. झारखंड से पुराने दोस्त का फ़ोन. इतवार की शुरुआत अगर अप्रत्याशित लेकिन हमेशा ही प्रतीक्षित मुलाक़ात से हो तो क्या कहने! वह मुलाक़ात फ़ोन पर ही क्यों न हो. आवाज़ में कई बार शक्ल भी नक़्श हो उठती है. ‘अच्छा हुआ आपने एक पाप से बचा दिया!’ बिना किसी दुआ सलाम के मित्र ने एक श्रेय दे डाला. वे किस पाप में पड़ने जा रहे थे और मैंने आख़िर कैसे बचाया होगा उन्हें?
‘आपको मालूम नहीं कि भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी झारखंड में 4-5 उम्मीदवार खड़ा कर रही है? आज के दिन भाजपा विरोधी गठबंधन से अलग होकर चुनाव के मैदान में उतरना एक तरह का पाप ही है. अच्छा ही है कि मैं इस पार्टी का सदस्य नहीं रह गया हूं. तो इस पाप का भागी होने से भी बच गया.’
मित्र ने याद दिलाया कि पार्टी की सदस्यता को लेकर जब वे ऊहापोह में थे तो हमारी लगातार बात होती रहती थी. फिर वे एक दिन इस दुविधा से और पार्टी से भी मुक्त हो गए. उनके निर्णय में हमारी वार्ता की भूमिका थी, वे पहले भी कह चुके हैं. मैं हमेशा कहता रहा हूं कि फ़ैसला आपका था, उसे क़बूल कीजिए.
पार्टी के पुराने सदस्य जब आपस में पार्टी के बारे में बात करते हैं तो अक्सर शिकवा ही रहता है. मेरी पत्नी पूर्वा, जो कभी पार्टी की सदस्य नहीं रहीं, चुटकी लेती हैं कि तुम लोग पुराने धोखा खाए प्रेमियों की तरह शिकायत करते रहते हो. कोई 30 साल पहले जब मैंने पार्टी की सदस्यता का नवीकरण न कराने का निर्णय लिया था, हम पार्टी सदस्य मित्रों में काफी बहस हुई थी. मैदान छोड़कर नहीं भागना चाहिए, पार्टी में भीतरी संघर्ष जारी रखना चाहिए, जैसी ढेर सारी दलीलें दी गई थीं. कोई 9 साल तक पार्टी के भीतर जूझते रहने के बाद लगा था कि बची खुची ताक़त बाहरी संघर्ष में ही लगाना बेहतर है.
कई मित्र पार्टी में बने रहे. अपने तरीक़े से लड़ते-झगड़ते पार्टी में बने रहने की कोशिश करते रहे. और फिर मेरे मित्र की तरह पार्टी से बाहर हुए. दिल में एक कसक लिए जो अब तक नहीं गई. पार्टी का तेज भी धीरे-धीरे मद्धम होता गया और वह समाज और राजनीति में हाशिए पर एक बिंदु की तरह रह गई. रह गया एक शानदार इतिहास.
अविभाजित बिहार और आज के झारखंड में भी कभी सीपीआई के बिना राजनीति की बात नहीं की जा सकती थी. धीरे-धीरे वह जगह सीपीआई (माले) ने ले ली है. लेकिन अपने राजनीतिक महत्त्व की स्मृति सीपीआई के भीतर बनी हुई है और उसे भ्रम होता है कि वह आज का यथार्थ भी है. बिहार और झारखंड में जाति आधारित राजनीति और हिंदुत्व के प्रभावी होने के बाद भी वामपंथी विचार का असर बाक़ी रहा है. इसलिए चुनावी ताक़त न होने पर भी सबसे पुरानी कम्युनिस्ट पार्टी होने के कारण सीपीआई का थोड़ा लिहाज़ बाक़ी जनतांत्रिक दल करते आए हैं.
फिर भी चुनाव तो चुनाव है. अगर आप चुनावी गणित में पीछे हैं तो आपकी ‘विचारधारात्मक श्रेष्ठता’ के कारण तो आपको सीट नहीं दी जा सकती! पिछले 4 चुनावों में अगर आप हमेशा तीसरे चौथे नंबर पर रहे है तो गठबंधन के बाक़ी दल सिर्फ़ आपकी राजनीतिक उम्र या बुज़ुर्गी के कारण तो सीट नहीं छोड़ देंगे!
यह नहीं कि पार्टी को आत्मबोध न हो. उसके पास तक़रीबन हर ज़िले या ब्लॉक में पार्टी दफ़्तर ज़रूर हैं लेकिन पार्टी सदस्य कितने रह गए हैं? और कितने मतदाता होंगे उसके? यह सवाल पूछा भी नहीं जाता क्योंकि इसका जवाब हर किसी को मालूम है. फिर भी चुनाव के वक्त मन में हुड़क उठती है. अपनी अप्रासंगिकता की सच्चाई को इसी तरह छिपाया जा सकता है कि मैदान में ख़म ठोंककर उतर जाएं. अकेले पड़ जाने पर शिकायत करें कि दोस्तों ने साथ न दिया. और हार जाने पर जनता की बुद्धि पर तरस खाएं.
बहरहाल! यह तो सीपीआई ही कहती रही है कि अभी मुक़ाबला तानाशाही से नहीं, फ़ासिज्म से है. यह एक तरह से जीवन-मरण का युद्ध है. फिर इस युद्ध में स्वार्थ का, अपने हिस्से का सवाल कहां उठता है? देखना यह है कि भाजपा को कौन शिकस्त देने की हालत में है. संकोच छोड़कर उसे हर तरह की मदद करना ही आज का कर्तव्य है.
झारखंड में 5 सीटों पर उम्मीदवार खड़ा करने के पीछे सीपीआई का क्या तर्क है? उसके पास न तो संगठन है न जनसमर्थन है. इसका भ्रम ज़रूर है कि उसके पास एक वैज्ञानिक विचारधारा है जो हर सामाजिक परिघटना की व्याख्या कर सकती है. लेकिन उसके सहारे चुनाव नहीं लड़ा जा सकता.
सीपीआई भी चुनाव लड़ते वक्त बुर्जुवा दलों की तरह जाति और धर्म के सामाजिक समीकरणों का ध्यान तो रखती ही है. उसे भी अगर देखें तो जिन लोकसभा सीटों पर उसने दावा किया है, वहां उसकी वास्तविक हालत क्या है, यह उससे नहीं छिपा है. फिर क्योंकर वह उस गठबंधन के ख़िलाफ़ उम्मीदवार उतार रही है जिसे दूसरी जगह वह फासीवाद विरोध के लिए अनिवार्य बतलाती है?
अगर फासीवाद को रोकने के लिए कांग्रेस को त्याग करना चाहिए तो सीपीआई जैसे दल को अपने भ्रम का भी त्याग क्यों नहीं करना चाहिए? यह सवाल कुछ मित्रों ने केरल के वायनाड में सीपीआई द्वारा ऐनी राजा को राहुल गांधी के ख़िलाफ़ मुक़ाबले में उतारने के फ़ैसले पर हैरानी जतलाते हुए पूछा था. राहुल गांधी से पूछना कि वे क्यों सीपीआई के ख़िलाफ़ चुनाव लड़ने केरल आ गए हैं हास्यास्पद था.
वायनाड कम से कम पिछले चार चुनावों से कांग्रेस की जीती सीट रही है. फिर उस सीट पर अपने ही गठबंधन के सबसे बड़े नेता के ख़िलाफ़ सीपीआई ने अपने महासचिव की पत्नी को क्यों खड़ा दिया? यह राजनीतिक मूर्खता के अलावा और क्या है?
केरल में कांग्रेस और वाम दलों के चुनावी संघर्ष के रणनीतिक कारण हो सकते हैं. वाम या कांग्रेस एक दूसरे के विपक्षी रहकर शायद वहां अभी भाजपा को पैर जमाने से रोक सकते हैं. फिर भी महासचिव की पत्नी और ऐनी जैसी महत्त्वपूर्ण नेता को इसमें क्यों घसीटा गया, समझ के परे है.
वाम और कांग्रेस के आपस में स्पर्धा के जो कारण केरल में हैं वे झारखंड में नहीं हैं. भाजपा वहां मज़बूत विपक्ष है जिसे सारी ताक़त मिलाकर हराने की चुनौती है. मेरे मित्र ने पूछा कि फर्ज कीजिए इन सीटों पर सीपीआई को कुछ हज़ार वोट आते हैं और भाजपा लगभग उतने ही अंतर से जीत जाती है. फिर फासीवादी ताक़त में इजाफ़े का ज़िम्मेदार कौन होगा? और क्या यह पाप से कम है?
हालांकि, वे पार्टी से अलग हो चुके है लेकिन अभी भी उनके पार्टी से रिश्ते की याद लोगों को है. शायद यही सोचकर उन्होंने कुछ दूसरे पार्टी से जुड़े रहे मित्रों के साथ मिलकर प्रेस कॉन्फ्रेंस करके पार्टी से अपने उम्मीदवार वापस लेने की अपील की. पार्टी उनकी बात नहीं सुनेगी यह तय है. लेकिन क्या पार्टी की जनता भी उनकी बात नहीं सुनेगी? जैसा वे बतला रहे थे, कई पार्टी सदस्य भी भाजपा विरोधी गठबंधन को वोट देंगे, अपनी पार्टी को नहीं. क्या यह बात पार्टी नेतृत्व को नहीं मालूम होगी? अगर हां, तो फिर वह किस लोभ में उम्मीदवार खड़े कर रही है?
उस प्रेस वार्ता में हमारे एक मित्र ने पार्टी से पूछा, ‘अगर बताशा नहीं मिला तो क्या आप मंदिर तोड़ देंगे?’ यह धार्मिक बिंब है लेकिन पाप भी धर्म के दायरे की ही अवधारणा है जिससे मेरे मित्र के मुताबिक़ मैंने उन्हें बचा लिया है.
(लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय में पढ़ाते हैं. )