लोकतंत्र ही नहीं हमारी मानवीयता में भी लगातार कटौती हो रही है

कभी-कभार | अशोक वाजपेयी: हिंदी अंचल इस समय भाजपा और हिंदुत्व के प्रभाव में है, लगभग चपेट में. इस दौरान सार्वजनिक व्यवहार में कुल पंद्रह क्रियाओं से ही काम चलता है. ये हैं: रोकना, दबाना, छीनना, लूटना, चिल्लाना, मिटाना, मारना, पीटना, भागना, डराना-धमकाना, ढहाना, तोड़ना-फोड़ना, छीनना, फुसलाना, भूलना-भुलाना.

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(इलस्ट्रेशन: परिप्लब चक्रबर्ती/द वायर)

हिंदी अंचल इस समय भाजपा और हिंदुत्व के प्रभाव में है, लगभग चपेट में. इस दौरान सार्वजनिक व्यवहार में कुल पंद्रह क्रियाओं से ही काम चलता है. ये हैं: रोकना, दबाना, छीनना, लूटना, चिल्लाना, मिटाना, मारना, पीटना, भागना, डराना-धमकाना, ढहाना, तोड़ना-फोड़ना, छीनना, फुसलाना, भूलना-भुलाना.

 

हिंदी में, उसके सबसे विशद कोश के अनुसार, एक लाख से अधिक शब्द हैं. आम तौर पर इस विशाल शब्द-संपदा के बहुत कम हिस्से का हम इस्तेमाल करते हैं. हमारे समय में शब्द-संकोच बढ़ता गया है हालांकि हम औपचारिक अवसरों पर स्वागत करते और आभार प्रकट करने में शब्दों की बहुत फ़िजूलख़र्ची करते हैं. हिंदी अंचल का सामाजिक-राजनीतिक और आर्थिक परिवेश इस समय भाजपा और हिंदुत्व की राजनीति के प्रभाव में है, लगभग चपेट में. इस दौरान सार्वजनिक क्षेत्र और व्यवहार में, काम मेरी गिनती के हिसाब से, कुल पंद्रह क्रियाओं से निश्चय ही चलता है. पर माहौल कुछ ऐसा बनता गया है कि ये पंद्रह क्रियाएं ही ध्यान खींचती हैं.

ये पंद्रह क्रियाएं हैं: रोकना, दबाना, छीनना, लूटना, चिल्लाना, मिटाना, मारना, पीटना, भागना, डराना-धमकाना, ढहाना, तोड़ना-फोड़ना, छीनना, फुसलाना, भूलना-भुलाना.

आपको अपने आस-पास, पड़ोस-मोहल्ले, बाज़ारों, सार्वजनिक आयोजनों, जुलूसों, सभाओं, टेलीविजन चैनलों, लोकप्रिय फिल्मों, यात्राओं में इन क्रियाओं की रास या रौद्र लीला होती नज़र आएगी. यह आकस्मिक नहीं है कि राष्ट्रीय अपराध ब्यूरो द्वारा ज़ारी आंकड़ों के हिसाब से स्त्रियों-बच्चों-अल्पसंख्यकों-दलितों-आदिवासिों के विरुद्ध हिंसा-हत्या-बलात्कार आदि जघन्य अपराधों का लगभग दो तिहाई हिस्सा हिंदी अंचल में होता है जिसकी आबादी देश की कुल आबादी की लगभग आधी है.

दर्ज़ अपराधों के कम प्रतिशत में बाक़ायदा तहकीकात होती है और जिनमें हो पाती है उनमें इतनी कमियां होती हैं कि ज़्यादातर अपराधी बरी हो जाते हैं. आए दिन अदालतें हिंदी अंचल की पुलिस को उसकी काहिली, दिग्भ्रमित जांच, नाकाफ़ी सुबूत जुटाने के लिए निंदा करती रहती हैं और पुलिस को न शर्म आती है, न उसकी अपराधलिप्ति, सांप्रदायिकता आदि में कोई कमी आती है.

इन क्रियाओं का उदारता से उपयोग अब सिर्फ़ राजनेता और धर्मनेता भर नहीं कर रहे हैं. वह अब अनेक सामान्य नागरिकों, कर्मचारियों, दुकानदारों, व्यापारियों, पढ़े-लिखे युवकों, पत्रकारों, अध्यापकों आदि की दैनिक कर्मावली में शामिल हो गया है. वे और भी रोज़मर्रा की ज़रूरी क्रियाओं का भी उपयोग करते हैं जैसे चलना, जागना-सोना, खाना-पीना आदि. पर कई बार लगता है कि बाक़ी सब क्रियाएं अब इन पंद्रह क्रियाओं के अधीन होती जा रही हैं.

अगर अब सामाजिक जीवन में अधिकार चेतना, दायित्व-बोध, दूसरों-परायों की पीर जानना, नैतिकता, अंतःकरण आदि पिछड़ रहे हैं या कमज़ोर पड़ रहे हैं तो इसमें आश्चर्य नहीं होना चाहिए. लोकतंत्र ही नहीं हमारी मानवीयता में भी लगातार कटौती हो रही हैं.

हिंदी की अपूर्णता

शायद संसार की किसी सबसे विकसित मानी जाने वाली भाषा के बारे में यह नहीं कहा जा सकता कि उनसे किसी क़िस्म की पूर्णता हासिल कर ली है. जैसे मनुष्यता कभी पूर्णता नहीं पाती वैसे ही भाषा भी. दोनों ही हमेशा निर्माण की प्रक्रिया में रहते हैं. हिंदी को लेकर हाल में हुए एक परिसंवाद में यह बात, एक बार फिर, उभरी कि वह एक अधूरी भाषा है जो अपने जन्म से ही कई विडंबनाओं से घिरी रही है.

स्मृति के शिथिल पड़ने पर बात करते हुए कवि असद जै़दी ने उचित ही कहा कि स्मृति को अपनी रुचि और दृष्टि के अनुसार चुनने का किसी लेखक को अधिकार रहता है. विडंबना यह है कि अब युवा लोग स्मृति चुन नहीं रहे हैं, वे अक्सर उसकी यानी स्मृति की कोई ज़रूरत ही नहीं समझते और विस्मृति में आत्मतुष्ट हैं.

असद ने हिंदी साहित्य के, विशेषतः उसके लेखकों के, बढ़ते अकेलेपन का जिक्र किया. उन्होंने यह भी बताया कि जिस रीतिकाव्य को उसके प्रेम की लौकिकता पर इसरार के बावजूद, हिंदी आलोचना में निंदा की जा रही है वह अत्यंत समृद्ध काव्य था. जिस उर्दू में मीर-ग़ालिब आदि के माध्यम से उर्दू कविता अपने उरूज पर थी, उसी क्षेत्र में लिखी जा रही हिंदी कविता पतनशील कैसे हो सकती थी, जैसा कि हिंदी के कई वरेण्य आलोचकों ने मान लिया और हिंदी की अकादेमिक दुनिया में यह व्याख्या रूढ़ हो गई.

मृणाल पाण्डे ने इस ओर ध्यान खींचा कि हिंदी ने एक अवसर तब गंवाया जब उसने भक्ति काव्य में प्रश्नांकन और निर्गुण-सगुण विवाद तो व्यक्त किया पर सार्वजनिक जीवन में विवाद और प्रश्नांकन की गद्य भाषा विकसित नहीं की. यह एक अवसर गंवाने जैसा साबित हुआ. दूसरा अवसर अठारहवीं शताब्दी में हिंदी ने तब गंवाया जब उसने उर्दू से अपने सहज सहकार को छोड़कर उससे दूरी बनाना शुरू किया.

मृणाल ने इस ओर भी इशारा किया कि हिंदी की बोलियों में अब भी बड़ी तीख़ी व्यंग्य-प्रतिभा और नए शब्द और मुहावरे बनाने की क्षमता है जिसका हिंदी कम उपयोग करती है.

हम हिंदी लेखकों ने हिंदी की आत्मालोचना के भाव से उसकी कई अपूर्णताओं का ज़िक्र किया. पर बातचीत में यह बात अलक्षित चली गई कि हिंदी ने इस दौरान सर्जनात्मक अभिव्यक्ति के क्षेत्र में अभूतपूर्व हासिल किया है. सही है कि हिंदी में वैचारिक साहित्य का घोर अभाव है और उसकी सांस्कृतिक विपन्नता बढ़ती जा रही है. पर उतना ही सही यह भी है कि उसमें जो साहित्य पिछले लगभग सौ साल में लिखा गया है, उसका श्रेष्ठ संसार के या कि दूसरी भारतीय भाषाओं के साहित्य के श्रेष्ठ के समकक्ष आत्मविश्वास से रखा जा सकता है.

दूसरी तरफ़ यह भी सही है कि हिंदी में साहित्य की सामाजिकता या सामुदायिकता नहीं विकसित हो पाई जैसी कि उर्दू साहित्य, विशेषकर उर्दू कविता की है. यह दिलचस्प है कि लगभग दो घंटे से अधिक चली यह चर्चा एक निजी विश्वविद्यालय ने आयोजित की जो अभी और आरंभिक चरण में है. हिंदी को लेकर खुली बहस हमारे विख्यात सार्वजनिक विश्वविद्यालयों में शायद ही होती हो.

गिरने की गहराइयां

संसार का सबसे बड़ा लोकतांत्रिक चुनाव हो रहा है और यह साफ़ दिखाई दे रहा है कि लोकतंत्र को गिराया जा रहा है. गिराने के इस काम में कम से कम चार तबके शामिल हैं- सत्तारूढ़ राजनीति, चुनाव आयोग, प्रभावशाली साधन-विपुल मीडिया और लाचार यह सब देखते नागरिक जिनका एक बड़ा हिस्सा युवा है और वोट में भाग तक नहीं ले रहा है.

लोकतंत्र अपने आप या किसी बाहरी आक्रमण से नहीं गिर रहा है: उसे गिरा रहे हैं वे लोग और संस्थाएं जिन पर उसे पोसने-बचाने और सशक्त करने की नैतिक और संवैधानिक जिम्मेदारी है.

चुनाव में हमारे जैसे बहुधार्मिक समाज में धर्म और जाति के नाम पर वोट मांगने पर मनाही है. यह मनाही आचरण संहिता के रूप में लागू है. फिर भी, एक नहीं कई जनसभाओं में सत्तारूढ़ शीर्षनेता राम मंदिर, ‘राम बंगाल से घुसपैठिये निकाल देंगे’, घुसपैठिये, जिनके ज़्यादा बच्चे हैं, मंगलसूत्र आदि बातें धड़ल्ले से कह रहे हैं. यह मन-वचन-कर्म सभी में गिरावट का सार्वजनिक प्रमाण है. ये अक्सर घृणा भाषण है.

चुनाव आयोग राज के इतने आतंक में है कि नीति-शून्य हो गया है: उसमें हिम्मत नहीं बची कि वह इन वक्तव्यों पर रोक लगाने के लिए सख़्त क़दम उठाए. उल्टे अपनी कायरता और ‘राजभक्ति में वह हमारे लोकतंत्र के इतिहास में अब तक का सबसे कायर और निकम्मा चुनाव आयोग साबित हो रहा है.

तीसरा पक्ष है मीडिया. उसका बड़ा और प्रभावशाली हिस्सा सत्तारूढ़ राजनीति का बेशर्म पक्षधर बन गया है. मेरे देखे कुल एक अंग्रेज़ी दैनिक इंडियन एक्स्प्रेस ने संपादकीय लिखकर (जिसका शीर्षक है ‘नो, प्राइम मिनिस्टर’) सख़्त आलोचना की है. मीडिया कहां तो लोकतंत्र का प्रहरी होता था और कहां वह सत्ता का पूंछ हिलाऊ भक्त बनकर लोकतांत्रिक मूल्यों पर अपने आचरण और चुप्पी से कुठाराघात कर रहा है.

अंतिम पक्ष नागरिक स्वयं हैं. उनका एक बड़ा हिस्सा युवाओं का है. अगर लोकतंत्र सिमटा है, संविधान की अवज्ञा और बढ़ती है, समता-न्याय का सपना दुस्स्वप्न बनकर रह जाता है, पूंजी का कुछ घरानों में अकूत संग्रह और बढ़ता है, बेरोज़गारी और बेकारी लगातार बढ़ती जाती है तो सबसे अधिक प्रतिकूल प्रभाव युवा वर्ग पर ही पड़ने वाला है.

दुर्भाग्य से, युवाओं की बड़ी संख्या लोकतंत्र के प्रति उदासीन है और वोट डालने तक का कष्ट नहीं कर सक रही है. बहुत सारे युवा झूठों-जुमलों-झांसों की चपेट में हैं और हिंसा-घृणा-हत्या की मानसिकता से ग्रस्त होते जा रहे हैं. वे धर्म और जाति के चक्कर में लोकतंत्र को हाशिये पर डालकर अपना विकास और मुक्ति का सपना देख रहे हैं. लगता यह है कि दुनिया बदलने और बेहतर बनाने, न्यायसम्मत और समतामूलक समाज बनाने के प्रयत्न से युवा गिरकर फ़ौरी सफलता की झंझटों में फंस गए हैं.

आश्चर्य यह है कि इन युवाओं को यह भयानक यथार्थ सामने नज़र नहीं आ रहा कि बेरोज़गारी लोकतंत्र के इतिहास में सबसे ऊंचाई पर है. उनका लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं में सजगता और समझ से भाग लेने से विरत रहना लोकतंत्र भर को नहीं, खुद उनके जीवन को ख़तरे में डाल रहा है.

(लेखक वरिष्ठ साहित्यकार हैं.)