‘कथाकहन मेरी जिज्ञासा, जरूरत और जिद का परिणाम है’

कथा-लेखन की इस वार्षिक कार्यशाला ने बहुत कम समय में अपनी जगह बना ली है, और इस भ्रान्ति को भी तोड़ दिया है कि लेखकीय प्रतिभा जन्मजात होती है, उसे सिखाया नहीं जा सकता.

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कथा कहन में प्रतिभागी लेखक और साहित्यकार मनीषा कुलश्रेष्ठ. (दाएं) (सभी फोटो: स्पेशल अरेंजमेंट)

मैं भी हिंदी की दुनिया में इसी मुगालते के साथ आई थी कि लिखना प्रतिभाजनित होता है. लेकिन कुछ ही कहानियों के बाद मैं स्वयं से असंतुष्ट होने लगी, क्राफ्ट (शिल्प) को लेकर. मुझे कुछ नया सीखने की जरूरत थी शिल्प को लेकर, संवादों और कथानक में द्वंद्व की उपस्थिति को लेकर. फिर यूरोपियन उपन्यासों जैसी दृश्यात्मकता जो मुझे बहुत पसंद थी वह नरेशन में कैसे आए?

एकलव्य की तरह मैंने अपने वरिष्ठों की कथा-शैलियों को खंगाला. वे हाइब्रिड किस्म की थीं. वे कोई तयशुदा तकनीक का पता नहीं देती थीं. फिर वैश्विक साहित्य पढ़ा, यूरोपियन क्लासिक से लेकर लातिन अमेरिकी शैलियां. यहां तक कि बांग्ला, मराठी कथा शैलियां समझने का प्रयास किया. मलयालम साहित्य के अनुवाद में तकषि से लेकर बशीर को पढ़ा. खुद अनुवाद किए कि भाषा को बरतना सीख सकूं. क्योंकि अपने लेखन से संतुष्टि नहीं मिल रही थी. बहुत कुछ था जो मुझे सिलसिलेवार सीखने का मन था, मगर संभव न हुआ.

तब मुझे बतौर उपन्यासकार जर्मनी में हायडलबर्ग विश्वविद्यालय के साउथ एशियन स्टडीज़ डिपार्टमेंट में एक पेपर पढ़ने का सौभाग्य मिला. उस विश्वविद्यालय में क्रिएटिव राइटिंग पर भी पूरा विभाग था, जहां युवा और अधेड़ लेखन की बारीकियां सीख रहे थे. तो मुझे याद आया मैं विज्ञान स्नातक होकर हिंदी में एमए करने यह भी तो सोचकर आई थी कि मेरी रचनात्मकता को कोई दिशा मिलेगी. लेकिन हम हिंदी साहित्य का इतिहास और आलोचना, आदि, भक्ति और रीतिकालीन कविता और भाषा विज्ञान के पर्चे देते रहे. आधुनिक कविता, कहानी और नाटक में हम साठ के दशक पर ही अटके रहे. एक पर्चा तक हमारे पाठ्यक्रम में किसी किस्म की रचनात्मकता का नहीं था. हमारे यहां साहित्य के विभाग ‘रचनात्मकता’ को तवज्जोह देते ही नहीं हैं.

मैं जब हिंदी कहानी की दुनिया में आई तब साहित्यिक गोष्ठियां तो होती थीं, जिनमें वैचारिकी और साहित्य के सरोकारों पर बहुत बात होती थी. रचनात्मकता पर, कहानी के उत्तरआधुनिक स्वरूप और शिल्प पर कभी कोई बात नहीं होती थी. मानो जो कहानी की दुनिया में आ रहा है कोई विरला ही है, उसे रचनात्मकता सीखने की जरूरत नहीं. मैं पत्रिकाओं में लगातार लचर विवरणों और सपाट बयानी वाली कहानियों को भी छपते देख रही थी. जब भी हम युवाओं के कहानीपाठ होते तब भी उनके कथानक के वैचारिक पक्ष और अधिक से अधिक भाषा की पड़ताल हो जाती. कहानी के शिल्प, नरेशन में उत्तम, द्वितीय और तृतीय पुरुष का दृष्टिकोण, विविध शैलियां, भाषाई नवाचार, आरंभ, द्वंद्व और अंत का संतुलन, दृश्य की एनाटमी, कहानी में चरित्रों का विकसित होना, संवादों के निर्वाह वगैरह पर कोई चर्चा नहीं. फिर लिटरेचर फेस्टिवल्स का दौर आया.

हम बस कभी-कभी किसी बड़े लेखक को यह कहते सुन लेते थे – ‘मैं पहले पूरी कहानी मन में सोच लेता हूं, पात्रों का अतीत, वर्तमान और भूत, यहां तक कि पात्र कैसा दिखता है, बोलता है, क्या पहनता है और कैसे चलता है, सब. तब कलम उठाता हूं’. कोई कहता – ‘मैं बस पहली पंक्ति सोचता हूं, बाकी कथा खुद को लिखवाती चलती है.’ हम इस तरह के दो और अधिक अतिरेकों के बीच झूलते-झालते कच्चा-पक्का लिखना सीखे. लेकिन मलाल रहा कि काश कोई ‘कोर्स’ होता. भले हम उन तयशुदा नियमों को, खांचों को बाद में स्वयं तोड़ कुछ नया बनाते मगर कहानी का भवन बनाने की कला ईंट-दर-ईंट सीखी होती.

जब मैं पूरा भारत घूमकर स्थायी तौर पर जयपुर बसने आई और एक हमारे पारिवारिक मित्र ने अपने मनोरम ईको-रिसॉर्ट पर आमंत्रित किया और मुझे कहा आप हमारे यहां कोई साहित्यिक आयोजन करें, कोई लिटफेस्ट या गोष्ठी! मेरे मन में बरसों पुरानी चाह ने सिर उठाया – कार्यशाला! तीस नए लेखक और पंद्रह विशेषज्ञ. कथानक के चयन से लेकर आरंभिक वाक्य, पात्रों के विकास, भाषा, संवाद; यहां तक कि कॉपीराइट के मसले और प्रकाशक तक पहुंचने तक की बात हो. फिर कहानी पर बात है तो नए माध्यमों पर भी कक्षा हो. ऑडियोबुक्स, पॉडकास्ट, पटकथा, ग्राफिक नोवेल, रंगमंच की कहानी. मन में आशंका की तरह बना हुआ था हिंदी जगत का पूर्वाग्रह कि ‘लिखना सिखाया नहीं जा सकता.’ मगर अप्रैल 2024 में हम चौथा ‘कथाकहन’ बहुत सफलतापूर्वक संपन्न कर चुके हैं.

कथा कहन में लेखक और प्रतिभागी.

मेरा निजी अनुभव कहता है कि भले ही किसी नवेले को लिखना स्वाभाविक रूप से आता हो, उसमें सुधार की गुंजाइश हमेशा बनी रहती है. साहित्यिक कार्यशालाएं जन्मजात प्रतिभा को भी साहित्यिक सिद्धांत और लेखन तकनीक और कई उपयोगी युक्तियाँ सिखाती हैं.

हर कलात्मक क्षेत्र में कार्यशालाएं समय-समय पर होती हैं, कथक- भरतनाट्यम जैसे नृत्य, चित्रकला, अभिनय, फोटोग्राफी, सिनेमा, लेकिन साहित्य का अहं आड़े आ जाता है. मेरा यह मानना है कि अपने आप में कच्ची प्रतिभा कभी भी पर्याप्त नहीं होती है, भले ही आपके पास अर्नेस्ट हेमिंग्वे या चेखव जैसी साहित्यिक क्षमता हो. अपने अंदर ही उमड़ते हुए, आप तब तक स्वयं को मुकम्मल नहीं महसूस करेंगे जब तक आप इसे एक ऐसे शिल्प के रूप में नहीं देखते हैं जिसमें आपको और तराश की जरूरत है.

‘कथाकहन’ के पहले आयोजन के बाद मैं अज्ञेय के पत्र संकलनों की एक किताब पढ़ रही थी और मेरे भीतर उत्साह जागा कि अज्ञेय भी ‘वत्सल-निधि’ नाम से युवा लेखकों की एक कार्यशाला किया करते थे. यह उत्प्रेरक मेरे लिए काफी था अपनी जिद को एक मुकम्मल स्वरूप देने के लिए.

‘कथाकहन’ में हम देश भर से प्रतिभागियों के आवेदन मांगते हैं. करीब चालीस-पैंतालीस जिज्ञासुओं को चुनते हैं. उनसे आवास और भोजन का न्यूनतम शुल्क अवश्य लेते हैं ताकि आत्मनिर्भरता बनी रहे कार्यशाला की. फिर हम पंद्रह ऐसे विशिष्ट लेखकों को विशेषज्ञों के तौर पर बुलाते हैं जिनकी अलग-अलग क्षेत्रों में महारत है, जो लेखन कला की सैद्धांतिकी के माहिर हैं, जो नवेलों के स्तर पर आकर उपयोगी तकनीकें और कथालेखन में आने वाली सामान्य कठिनाइयों को खोल सकते हैं, जो कहानी के अन्य माध्यमों में भी काम करते हों, मसलन ऑडियो बुक्स, ग्राफिक नोवल, पटकथा लेखन.

मेरा मानना है कि जब इस तरह की रेजिडेंशियल वर्कशॉप में समान रुचियों वाले अन्य लोगों की संगति मिलती है तो रचनात्मकता का संक्रमण गहरे पैठता है. कथा लेखन पर सुबह की जमीनी और मनोरंजक गतिविधियों में सामूहिक तौर पर यहां-वहां से सुनकर रोचक संवाद एकत्र करना, वहीं मिले किसी पात्र का कैरीकैचर बनाना, कहानी पाठ के गुर सीखना भी कथाकहन की विशिष्टता है जो देश के अलग-अलग हिस्सों से आए लोगों को रचनात्मक-मित्रता के सूत्र में बांध लेता है.

कार्यशाला में पूरा बैच बाकी के साथियों के साथ अपना लेखन साझा करता है. प्रत्येक लेखक दूसरे के लेखन पर प्रतिक्रिया देने और लेने की स्वतंत्रता के बहाने सीखता है. यह परस्पर रचनात्मक आलोचना जो सामान्य गलतियों को सुधारने और आपकी व्यक्तिगत शैली विकसित करने में मदद करती है.

साहित्यिक कार्यशाला में सीखने वाले केवल लिखते ही नहीं हैं, बल्कि उनसे सत्र के दौरान सुझाई और उपलब्ध करवाई गई ढेर पाठ्य सामग्री का उपभोग और विश्लेषण करने की भी अपेक्षा की जाती है. वे विशेषज्ञों के सुझाए लेखकों के साहित्य और उनकी विशिष्ट शैलियों की पड़ताल करते हैं. अपनी शैली चुनते समय यह अनुभव बहुत उपयोगी रहता है. कार्यशालाएं निश्चित तौर पर आपको मांझती हैं, क्राफ्ट और कहन को विकसित करती हैं.

तीन दिन तक लगातार कहानी पर तरह-तरह से होने वाली बातें-गतिविधियां निश्चय ही एक नितांत नए लेखक के मन में भी उन सोई कहानियों को जगा देती है जिनको उसने कभी सोचा भी न था कि वे कोरा-पन्ना और कलम देखेंगी.

हालांकि, हम स्वयं इस कार्यशाला को निरंतर मुकम्मल बनाने के प्रयास में हैं कि विशेषज्ञ एक नवेले के स्तर पर आकर उसकी जिज्ञासा को समझें. यह एक मुकम्मल कोर्स बन सके, इस पर भी हम काम कर रहे हैं.

‘कथाकहन’ की शुरुआत के साथ बहुत से लोग कार्यशाला करने को उत्सुक हुए, जिसका मैं स्वयं स्वागत करती हूं कि नवेले लेखकों के पास अपने विकल्प उपलब्ध रहें. यह कार्यशाला पहले मेरी जिज्ञासा, फिर एक जरूरत, अंतत: जिद का परिणाम है.

(लेखिका वरिष्ठ साहित्यकार हैं)