हम प्रधानमंत्री नहीं, इस पद के उम्मीदवार भी नहीं, लेकिन प्रधानमंत्री होने का अधिकार हमारा है

जिस वक़्त हमारा चुनावी लोकतंत्र पूरे देश, ख़ासकर हिंदी प्रदेश में कठिन रास्ते से गुज़र रहा है, प्रस्तुत है यह नया स्तंभ जो हिंदी कविता में लोकतंत्र की गौरवपूर्ण उपस्थिति की याद दिलाता है.

//
(इलस्ट्रेशन: परिप्लब चक्रवर्ती/द वायर)
(इलस्ट्रेशन: परिप्लब चक्रवर्ती/द वायर)

इस जीवन में
मैं प्रधानमंत्री नहीं हुआ
इस जीवन में मैं प्रधानमंत्री के पद का
उम्मीदवार भी शायद हरगिज़ नहीं बनूं
पर होने का अधिकार हमारा है
भारत का भावी प्रधानमंत्री होने का
अधिकार हमारा है
 

तुम हंस सकते हो हंसो कि हां हां
हो जाओ अधिकार तुम्हारा है
तो सुनो कि हां अधिकार हमारा है

भारत के कोई कोने में
मर कर बेमौत जनम लेकर
भारत के कोई कोने में
खोजता रहूंगा वह औरत
काली नाटी सुंदर प्यारी
जो होगी मेरी महतारी
मैं होऊं मेरी मां होवे
दोनों में से कोई होवे
अधिकार हमारा है
भारत का प्रधानमंत्री
होने का अधिकार हमारा है.

कोई 50 साल पहले लिखी और प्रकाशित हुई रघुवीर सहाय की ‘अधिकार हमारा है’ शीर्षक यह कविता हर चुनाव के वक़्त याद आती है. ख़ास रघुवीर सहाय की शैली में लिखी यह कविता भारतीय मतदाता के राष्ट्र गान के रूप में पढ़ी जा सकती है. इसमें मतदाता शब्द कहीं नहीं है लेकिन बोलने वाला, या हम उसे बोलने वाली क्यों न कहें, दावा देश के सर्वोच्च पद पर कर रही है. लेकिन यह दावा तो एक मतदाता का ही हो सकता है.

कविता में कहने के अंदाज़ से साफ़ है कि प्रधानमंत्री के पद पर दावा करने वाला जानता है कि वह जिससे यह बात कर रहा है वह उसके दावे को क़बूल नहीं करता. वह यह भी जानता है कि उसका यह दावा जिस वक्त वह बात कर रहा है, सहज, स्वाभाविक स्वीकार्य नहीं. हालात ऐसे नहीं कि वह इस जन्म में प्रधानमंत्री बन पाए. वह भले न बन पाए लेकिन यह अधिकार उसका है, यह वह जानता है और सामने वाले को जतला भी देना चाहता है.

दावा याचना नहीं है. आज इस दावे की खिल्ली उड़ाई जाएगी लेकिन उससे वह झूठा साबित नहीं होता.

क्या यह दावा एक व्यक्ति का है या समुदाय का? या एक तरह के व्यक्ति और समुदाय का जो ताकतवर और सुंदर नहीं माना जाता? ‘काली नाटी’ लेकिन सुंदर और प्यारी मेरी महतारी भी इस पद की दावेदार है. वह हो या उसकी मां हो, दोनों ही प्रधानमंत्री बन सकते हैं.

‘भारत के कोई कोने में’ पर भी ध्यान दीजिए. वह मध्य क्षेत्र नहीं है, भारत का हृदय प्रदेश नहीं है. कोई कोना हो सकता है, जहां यह काली नाटी सुंदर महतारी और उसका बच्चा होगा.

‘भारत का भावी प्रधानमंत्री होने का अधिकार हमारा है.’ यह आज नहीं होगा लेकिन यह होना ही है, होकर रहेगा. यह जनतंत्र की यात्रा की कहानी है. अगर यह यक़ीन भारत के किसी कोने में पैदा आदमी को न हो, अगर वह यह इस रघुवीरी ठसके से न कह सके तो भारतीय जनतंत्र को सफल कहलाने का हक़ नहीं.

इस बार यह कविता याद आई एक खबर पढ़कर. ‘कांग्रेस को मुस्लिम वोट चाहिए… कैंडिडेट क्यों नहीं?’ कांग्रेस पार्टी की महाराष्ट्र इकाई के कार्यकारी अध्यक्ष मोहम्मद आरिफ़ (नसीम) ख़ान ने अपने पद से इस्तीफ़ा देते हुए कहा कि उनसे मुसलमान यह सवाल कर रहे हैं. इस लोकसभा चुनाव में महाराष्ट्र की महाविकास अघाड़ी के 48 उम्मीदवारों की सूची में एक भी मुसलमान का नाम नहीं है. कुछ लोग यह भी कह रहे हैं कि ख़ान साहब की नाराज़गी दरअसल उन्हें टिकट न मिलने की है.

जो हो, यह तो अकाट्य तथ्य है कि भारतीय जनता पार्टी के विरोधी गठबंधन ने, जिसे धर्मनिरपेक्ष भी कहा जा सकता है, हालांकि अब वह ख़ुद को ऐसा नहीं कहता, एक भी मुसलमान को इस योग्य नहीं पाया कि उसे किसी भी लोकसभा क्षेत्र से अपना उम्मीदवार बनाए. इस पर ख़ान साहब की तकलीफ़ क्या सिर्फ़ उनकी तकलीफ़ है?

इस इस्तीफ़े के पहले यह खबर आई थी कि गुजरात में भी भाजपा विरोधी गठबंधन ने एक भी मुसलमान को उम्मीदवार नहीं बनाया. कर्नाटक, बिहार, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, राजस्थान जैसे राज्यों में भी मुसलमान आबादी के मुक़ाबले चुनाव में उम्मीदवार के रूप में उनकी उपस्थिति नगण्य है.

मुसलमानों को दूसरे समुदायों के बराबर अधिकार हैं, यह बतलाने के लिए प्रायः तर्क दिया जाता है कि उनको बाक़ी की तरह ही मताधिकार है. क्या उन्हें कोई वोट देने से रोक रहा है? वोट देने का हक़ औरतों का भी है, दलितों, आदिवासियों का भी. निरक्षर को भी साक्षर को भी. यही तो जनतंत्र है.

जनतंत्र यह है. सार्वभौम मताधिकार जनतंत्र की नींव है. लेकिन क्या वह उतना ही है? मताधिकार के साथ जुड़ा हुआ है प्रतिनिधित्व का अधिकार. अगर वह न होता तो फिर अनुसूचित जातियों के लिए सीटें क्यों आरक्षित की जातीं? या औरतें क्यों मांग करतीं कि विधानसभाओं या संसद में उनके लिए जगहें आरक्षित की जाएं?

क्यों दलित या आदिवासी या पिछड़े या औरतें सिर्फ़ वोट देकर संतुष्ट नहीं? जनतंत्र की सेहत का अंदाज़ इससे लगाया जा सकता है कि क्या उसने हर कोने के मतदाता को यह ताक़त भी दी है कि वह हिंदुस्तान की सारी आबादी के प्रतिनिधित्व का दावा कर सके?

यह सवाल आज से कोई 52 साल पहले रघुवीर सहाय अपनी कविता में पूछ रहे थे:

‘इस जीवन में
मैं प्रधानमंत्री नहीं हुआ
इस जीवन में मैं प्रधानमंत्री के पद का
उम्मीदवार भी शायद हरगिज़ नहीं बनूं
पर होने का अधिकार हमारा है’

यह मतदाता कौन हो सकता है? भारत में यह आदिवासी हो सकता है, दलित हो सकता है, मुसलमान या ईसाई भी हो सकता है. लेकिन और ईमानदारी से पूछें, कौन है इनमें जिसकी उम्मीद सबसे कम है प्रधानमंत्री बनने की?

भारत में पिछड़ी जाति हो या दलित या औरत, सब यह सोच सकते हैं कि वे प्रधानमंत्री के पद तक पहुंचें. और हरेक राजनीतिक दल उनसे वादा भी कर सकते हैं कि वे उन्हें प्रधानमंत्री बनाना चाहते हैं. लेकिन जिसे यह सोचने का अधिकार नहीं और जिसे कोई यह विश्वास नहीं दिलाएगा, वह निश्चय ही मुसलमान है. मुसलमान मतदाता तो सकता है लेकिन इस देश के किसी राज्य में मुख्यमंत्री होने या देश का प्रधानमंत्री होने की वह कल्पना भी शायद ही कर सकता है.

मताधिकार लेकिन तब तक पूर्ण नहीं और अर्थपूर्ण नहीं जब तक मतदाता को प्रधानमंत्री होने का अधिकार न हो. कविता आगे कहती है:

‘भारत का भावी प्रधानमंत्री होने का
अधिकार हमारा है’

इस दावे पर कोई हंसे तो हंसे, अधिकार तो है:

‘तुम हंस सकते हो हंसो कि हां हां
हो जाओ अधिकार तुम्हारा है
तो सुनो कि हां अधिकार हमारा है’

इन पंक्तियों में हां के दुहराव पर हमारा ध्यान जाना चाहिए. प्रधानमंत्री होने के मेरे दावे का तिरस्कार और उस तिरस्कार का अस्वीकार.

जनतंत्र में मतदाता होने का मतलब सिर्फ़ वोट डालने का हक़ नहीं है. वह समाज के संगठन और संचालन में पूरी भागीदारी का अधिकार है. दुनिया के सारे जनतांत्रिक देशों में भारत इस मामले में विलक्षण है कि उसके संविधान ने हर किसी को, उसकी सामाजिक, शैक्षिक, आर्थिक स्थिति से निरपेक्ष मताधिकार दिया. यह अमेरिका जैसे देश में, जो दुनिया का सबसे पहला जनतंत्र होने का दम भरता है, नहीं था. वहां भी कालों, औरतों, संपत्तिहीन लोगों, आदि को एकबारगी हर जगह मताधिकार नहीं मिल गया था. औरतों को, कालों को इसके लिए संघर्ष करना पड़ा था.

भारत के संविधान में मताधिकार को लेकर कोई दुविधा नहीं है. लेकिन क्या हर किसी को देश या समाज का प्रतिनिधि होने का अधिकार या अवसर है?

यह बहस संविधान सभा में बड़ी उत्तेजना के साथ हुई. ज़ेड ए. लारी ने इस बहस में हिस्सा लेते हुए कहा कि जनतंत्र के दो उसूल हैं. एक, आख़िरकार बहुमत ही शासन करेगा और दूसरा यह कि प्रत्येक व्यक्ति को अधिकार हो कि सरकार को चुनने में उसकी हिस्सेदारी हो, सरकार में उसका प्रतिनिधित्व हो.

उन्होंने जॉन स्टुअर्ट मिल के इस तर्क को उद्धृत किया कि देश में अपनी आबादी के अनुपात में प्रत्येक राजनीतिक मत को विधायिका में प्रतिनिधित्व का अधिकार है.

अगर मैं अपनी संसद, विधानसभा या सरकार में अपना चेहरा नहीं देख पाता तो वह मेरी कैसे और क्योंकर हो! प्रायः तर्क दिया जाता है कि सरकार या विधायिका में औरत के होने से औरत के हित के क़ानून या नीतियों का निर्माण नहीं होता. यही बात दलितों या आदिवासियों पर लागू होती है. कहा जाता है कि असल बात है सही विचारधारा का होना और उसे लागू करने की ईमानदारी और सदिच्छा. इस दृष्टि से हिंदू मुसलमान या सिख के हित का ध्यान रख सकता है, सवर्ण दलित के भले के लिए क़ानून लागू कर सकता है.

लेकिन क्या यह पूरी तरह सच है?

अगर यह सच है भी, तो भी एक औरत कह सकती है कि मुझे भी मौक़ा दीजिए कि मैं पुरुषों का प्रतिनिधित्व कर सकूं. दलित भी यही बात सवर्ण को कह सकते हैं कि वे उन्हें भी उनकी नुमाइंदगी का मौक़ा दें और मुसलमान भी अपेक्षा कर सकते हैं कि उन्हें देश का नेतृत्व करने लायक़ माना जाए.

संविधान सभा की बहसों में आनुपातिक प्रतिनिधित्व के विचार के प्रति प्रायः अरुचि दिखलाई गई. जवाहरलाल नेहरू तक का ख़्याल था कि अगर अल्पसंख्यक समुदाय इसकी ज़िद करेंगे तो बहुसंख्यक समुदाय के भीतर उनको लेकर बदगुमानी पैदा होगी. यह उन्हीं के लिए नुक़सानदेह होगा क्योंकि अपनी तादाद की वजह से बहुसंख्यक समुदाय के लोगों का बहुमत सरकार में होगा.

बाबा साहब अंबेडकर राष्ट्र के लिए एकरूपता को जितना ज़रूरी मानते थे उतना इस बात को कि समुदायों में संस्कृति, स्मृतियों की और हितों की साझेदारी राष्ट्रीयता को जन्म देती है. वह साझेदारी भारत जैसे स्वभावतः विभाजित देश में कैसे पैदा हो सकती है?

कोई उच्च जाति का हिंदू पुरुष या उत्तर भारत का व्यक्ति शायद दावा नहीं करेगा कि देश का प्रधानमंत्री होने का अधिकार मेरा है-  क्योंकि वह इसे स्वाभाविक रूप से अपना मानता है. तमिलनाडु, मिज़ोरम, केरल के किसी व्यक्ति का प्रधानमंत्री होना खबर बन जाता है. मनमोहन सिंह के प्रधानमंत्री बनने को जनतंत्र की ताक़त के तौर पर पेश किया जाता है. देखिए, एक अति अल्पसंख्यक सिख भारत का प्रधानमंत्री बन सकता है! लेकिन क्या यही बात मुसलमान के बारे में कही जा सकती है?

क्या उच्च जातियां एक पिछड़े या दलित को बिना झिझक अपना प्रतिनिधि चुन सकती हैं? क्या बहुसंख्यक हिंदू किसी मुसलमान को अपना प्रतिनिधि चुन सकते हैं?

जब उनकी पार्टी सरकार में थी तब राहुल गांधी से यही सवाल अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय में एक छात्रा ने पूछा था कि क्या ऐसा वक्त आएगा कि कोई मुसलमान भारत का प्रधानमंत्री बन सके तो उन्होंने उसका उत्तर सीधा नहीं दिया. उन्होंने जवाब दिया था कि देखिए, मनमोहन सिंह सिख होने के कारण नहीं, अपनी क़ाबिलियत की वजह से प्रधानमंत्री बने. तो जो योग्य होगा वह प्रधानमंत्री बन सकता है, वह कोई भी हो.

राहुल गांधी अच्छी तरह जानते हैं कि यह चतुर उत्तर था, ईमानदार नहीं. वरना जब उनकी पार्टी पर भाजपा ने यह कहकर हमला किया कि जीतने पर वह गुजरात में अहमद पटेल को मुख्यमंत्री बना देगी तो पार्टी रघुवीर सहाय की भाषा में जवाब दे सकती थी कि अहमद पटेल भारत के, गुजरात के मतदाता हैं और गुजरात का मुख्यमंत्री बनने का अधिकार उनका है. उनकी पार्टी यह जवाब नहीं दे सकी.

लेकिन रघुवीर सहाय का किरदार तो ताल ठोंककर कह रहा है कि एक दिन वह भारत का प्रधानमंत्री बन कर रहेगा क्योंकि वह आत्मविश्वास से भरा मतदाता है. उसे भारत के जनतंत्र ने हिम्मत दी है कि वह ख़ुद को प्रधानमंत्री की कुर्सी पर देख सके. उसे अपने जनतंत्र के अधूरेपन का अहसास है इसलिए वह भविष्य की बात कर रहा है:

एक दिन ऐसा आएगा जब वह प्रधानमंत्री बन सकेगा. लेकिन अगर भारतीय जनतंत्र को पूर्णता हासिल करनी है तो उसे इस दावे को हक़ीक़त में बदलने की तैयारी करनी होगी.

फिर से कविता पढ़ें:

इस जीवन में

मैं प्रधानमंत्री नहीं हुआ

इस जीवन में मैं प्रधानमंत्री के पद का

उम्मीदवार भी शायद हरगिज़ नहीं बनूं

पर होने का अधिकार हमारा है

भारत का भावी प्रधानमंत्री होने का

अधिकार हमारा है

मैं होऊं मेरी मां होवे

दोनों में से कोई होवे

अधिकार हमारा है

भारत का प्रधानमंत्री

होने का अधिकार हमारा है. 

लिखते-लिखते सोचता हूं कि शायद यह कविता गुनगुनाते हुए जुनैद आज अपना वोट देने बूथ पर जाता. यह उसका दूसरा चुनाव होता. लेकिन वह दिल्ली से वल्लभगढ़ जाते हुए ट्रेन में घेरकर मार डाला गया. मार डाला गया क्योंकि वह जुनैद था. उसे 18 का नहीं होने दिया गया.

फिर बूथ पर कौन जाएगा और रघुवीर सहाय की इस कविता के इस ठस्सेदार किरदार की भूमिका कौन निभाएगा? जुनैद हो या जुनैद की मां, दोनों का अधिकार भारत का प्रधानमंत्री बनने का है. वह नहीं है, उसकी मां है. क्या वह यह कविता गा सकती है?

(लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय में पढ़ाते हैं.)

pkv games https://sobrice.org.br/wp-includes/dominoqq/ https://sobrice.org.br/wp-includes/bandarqq/ https://sobrice.org.br/wp-includes/pkv-games/ http://rcgschool.com/Viewer/Files/dominoqq/ https://www.rejdilky.cz/media/pkv-games/ https://postingalamat.com/bandarqq/ https://www.ulusoyenerji.com.tr/fileman/Uploads/dominoqq/ https://blog.postingalamat.com/wp-includes/js/bandarqq/ https://readi.bangsamoro.gov.ph/wp-includes/js/depo-25-bonus-25/ https://blog.ecoflow.com/jp/wp-includes/pomo/slot77/ https://smkkesehatanlogos.proschool.id/resource/js/scatter-hitam/ https://ticketbrasil.com.br/categoria/slot-raffi-ahmad/ https://tribratanews.polresgarut.com/wp-includes/css/bocoran-admin-riki/ pkv games bonus new member 100 dominoqq bandarqq akun pro monaco pkv bandarqq dominoqq pkv games bandarqq dominoqq http://ota.clearcaptions.com/index.html http://uploads.movieclips.com/index.html http://maintenance.nora.science37.com/ http://servicedesk.uaudio.com/ https://www.rejdilky.cz/media/slot1131/ https://sahivsoc.org/FileUpload/gacor131/ bandarqq pkv games dominoqq https://www.rejdilky.cz/media/scatter/ dominoqq pkv slot depo 5k slot depo 10k bandarqq