अत्याचारी और उसकी याद

आम चुनावों के दौरान जब हमारा देश, ख़ासकर हिंदी प्रदेश कठिन रास्ते से गुज़र रहा है, प्रस्तुत है हिंदी कविता में जनतंत्र की गौरवपूर्ण उपस्थिति की याद दिलाते इस स्तंभ की दूसरी क़िस्त.

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(इलस्ट्रेशन: परिप्लब चक्रबर्ती/द वायर)
(इलस्ट्रेशन: परिप्लब चक्रवर्ती/द वायर)

तुमको लोग भूलते जा रहे हैं

क्योंकि तुम जाने जाते रहे हो अपने अत्याचारों के कारण

और आज तुम हाथ खींचे हुए हो

कि तुम्हारे अत्याचारों को लोग भूल जाएं

पर लोग तुम्हीं को भूले जा रहे हैं

करो कुछ जिससे कि वह शक्ति दुष्टता की

लोग फिर देखें और लोग भयंकर मुग्ध हों

एक राष्ट्र के पतन का लक्षण है कि

वे जो जीवन भर परोपजीवी रहे

सत्ता के तंत्र में

आज उससे बाहर होकर यह भ्रम फैला सकते हैं कि

वे किसी दिन समाज बदल देंगे

और अभी सिर्फ़ मौक़ा देखते हुए बैठे हैं.

रघुवीर सहाय की यह छोटी-सी कविता उनकी मृत्यु के बाद प्रकाशित हुई. उनकी रचनावली में संकलित की गई. लेकिन लगता है यहां संपादक की निगाह चूक गई. कविता को ध्यान से पढ़ने से साफ़ हो जाता है कि इसमें दो कविताएं मिल गई हैं. एक कविता ख़त्म हो जाती है ‘लोग फिर देखें और लोग भयंकर मुग्ध हों’ पर. उसके बाद की पांच पंक्तियों को, जो शुरू होती हैं ‘वे जो जीवन भर’ से उन्हें अलग कविता के रूप में पढ़ा जा सकता है.

यह चूक इसलिए हुई हो सकती है कि जैसा संपादक ने लिखा है, रघुवीर सहाय की ऐसी ढेर सारी कविताएं पर्चियों पर, यहां तक कि सिगरेट की डिब्बियों के पीछे लिखी मिलती हैं. इस वजह से इस तरह की चूक क़तई मुमकिन है. लेकिन कविता का ‘शीर्षक’ थोड़ा भ्रामक है. वह कविता से मेल नहीं खाता. बहरहाल! हम कविता पर लौटें.

कविता एक अत्याचारी के बारे में है. अत्याचारी और लोगों के बारे में. उनके बीच के रिश्ते के बारे में. वह अत्याचारी है और लोकप्रिय है. आज उसने अपना हाथ अत्याचार से खींच लिया है. और उस वजह से लोग उसे भूलते जा रहे हैं. कविता यह नहीं बतलाती कि वह अत्याचारी कौन है. वह अत्याचारी शासक भी हो सकता है. या कोई नेता. एक अत्याचारी नेता जिसकी प्रसिद्धि का कारण उसका अत्याचार है. इस अत्याचार ने ही लोगों को उसके प्रति आकर्षित किया है. उसी जुल्म की वजह से लोगों ने उसे चुना है.

अत्याचारी रघुवीर सहाय की एक दूसरी कविता में भी दिखता है. लेकिन उसमें अलग तरीक़े से. ‘स्वच्छंद लेखक’ कविता में भी अत्याचार को याद रखने या भूलने का प्रसंग है:

लोग भूल जाते हैं
दहशत जो लिख गया
कोई किताब में
लोग भूल जाते हैं
झेली थी यातना
जो अपने आप में
अत्याचारी का मुंह
लोग भूल जाते हैं
उसके मुस्काने पर

पहली कविता का अत्याचारी कौन है? यह इस दूसरी कविता को पढ़ने से मालूम होता है.

अत्याचारी का चेहरा उसके मुस्कुराने से बदल जाता है और उसकी दहशत और यातना के प्रमाण जो किताबों में लिखे हैं, लोग भूल जाते हैं. यह जिस जगह हो रहा है वह जनतंत्र है यह आगे की पंक्तियों से जान पड़ता है:

पांच बरस बहुत बरस
होते हैं एक ग़ुलाम
औ’ गरीब देश में
इतने में गया हुआ
वक्त लौट आता है
एक नए वेश में

5 साल की इकाई काल गणना के लिए भारत जैसे जनतंत्रों में ही इस्तेमाल की जाती है. जनतंत्र का जीवन एक चुनाव से दूसरे चुनाव के बीच बंटा होता है. स्वाभाविक है कि इन वर्षों में वह भूल जाता है जो पहले हुआ था. लेकिन गया हुआ वक्त नए भेस में लौट आता है. असल बात है हत्या और अत्याचार:

हत्या कमजोर की

सीधे-सीधे हत्या
गांव-गांव होती है
कोई रोता नहीं
हां, मारी नहीं गई
तो विधवा रोती है

मारे गए व्यक्ति से सहानुभूति जतलानेवाला कोई नहीं. उसे वाणी देने का काम जिनका है वे आज ख़ामोश हैं:

आज मौन देख रहे हैं
जाता है शासक
हिंसा के रास्ते

यह हिंसा जो शासक करता है उसमें वह जनता को भी भागीदार बनाता है. और उस हिंसा को देखते हुए वाणी या भाषा के अभ्यासी जो चुप हैं वे भी उस दमन चक्र के लिए ज़िम्मेदार हैं जो जनता पर चलाया जाता है:

दोनों मिलकर के यों
नया दमन चक्र
यह प्रेम से चलाते हैं.

जो अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के लिए अन्यथा चिंतित दिखते हैं और शासक के इस दमन पर मौन हैं, वे भूल जाते हैं कि बोलने का अधिकार सिर्फ़ उन्हीं का नहीं:

जो मारा गया है
उसकी भी बोली थी
लोग भूल जाते हैं.

कविता आख़िर में सवाल करती है:

वह बोली कहां गई?
उस पर बंदूक ने
लगाया प्रतिबंध है

जनता, वह जनता जिसका दमन किया जा रहा है, बोल नहीं सकती. इस कविता में अत्याचारी और जनता के बीच रिश्ता क्या है? एक हिस्सा जिसका दमन होता है और दूसरा जिसे शासक हथियार देता है. यानी शासक और जनता इस हिंसा में एकमेक हो जाते हैं. ज़रूरत इस जनता की कुछ और है लेकिन उसे शासक हिंसा का अधिकार देते हैं:

देते हैं हथियार
शासक ग़रीबों को
पानी नहीं देते.

जनता के एक हिस्से के ख़िलाफ़ दूसरे को हिंसा का अधिकार मिल जाने पर वह मानने लगती है कि वह जो हिंसा या दमन कर रहा है, वह उसी की तरफ़ से कर रहा है.

इस प्रकार दमन जन सहमति से चलाया जाता है. आम तौर पर माना जाता है कि अत्याचारी जबरन समाज पर या देश पर क़ब्ज़ा करता है. लेकिन यह कविता इसका प्रत्याखान करती है. दूसरी कविता को यह कहती है कि उस शासक को ख़ुद को लोकप्रिय बनाए रखने के लिए अपने अत्याचारी रूप को उतना ही भयानक या प्रभावकारी बनाए रखना चाहिए.

इस अत्याचारी को जनता पसंद करती है उसके अत्याचार के कारण. उसके बावजूद नहीं. अत्याचारी सीधे रास्ते चुनाव के ज़रिये आते हैं. जन समर्थन से आते हैं. अगर जन समर्थन बनाए रखना है तो अत्याचार भी बनाए रखना होगा. अत्याचारी अगर अपने उस रूप को बदलने की कोशिश करे तो जनता उसे अपना नेता मानने से इनकार कर सकती है. जिसे उसके जुल्म की वजह से चुना था, वह अगर जुल्म करना जारी न रखे तो जनता उसे भूल जा सकती है:

लोग तुम्हीं को भूले जा रहे हैं
करो कुछ जिससे कि वह शक्ति दुष्टता की
लोग फिर देखें और लोग भयंकर मुग्ध हों

हिटलर की लोकप्रियता उसके अत्याचार के कारण ही थी. डोनाल्ड ट्रंप की लोकप्रियता अप्रवासियों, मुसलमानों के ख़िलाफ़ उनकी हिंसक राजनीति के कारण ही है. और हम जो जनता हैं भारत की, हमें कौन-सा नेता पसंद है? इस सवाल का जवाब पिछले दो चुनावों में, दो बार 5- 5 साल के बाद भारत की जनता ने दिया है.

भारतीय जनता पार्टी के नरेंद्र मोदी को क्यों चुना गया?

वे लोग जिनके पास कलम है, यह बताते रहे कि दुष्टता और अत्याचार उसके चुने जाने का कारण नहीं था. लेकिन आज वह जो फिर दुष्टता की शक्ति अपने भाषणों में प्रदर्शित कर रहा है, वह क्यों? क्या इसलिए कि वह दुष्टता ही थी जिसके चलते जनता ने उसे वरा था, उसके लोग फिर देखें और उस पर भयंकर मुग्ध हों?

(लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय में पढ़ाते हैं.)

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