यह वह अयोध्या नहीं है जिसको सार्वजनिक कल्पना में विहिप और भाजपा ने स्थापित किया है. यह वह अयोध्या भी नहीं है जिसे दिल्ली के तथाकथित लिबरल्स और मार्क्सवादी बुद्धिजीवियों ने सार्वजनिक कल्पना में स्थापित कर दिया है. यह एक सामान्य शहर है.
मेरा बचपन अपने बाबा के साथ में बीता. मैं प्रायः उन्हीं के साथ रहा करता था. जब वे किसी से बहस करते और कोई उनकी बात नहीं मानता तो वे अपना हाथ पूरब दिशा की ओर उठाते और कहते- जानें वही अजुध्यानाथ (वही अजुध्यानाथ जानें). अजुध्यानाथ यानी अयोध्या के राजा रामचंद्र. वे अपनी बात में राजा रामचंद्र की गवाही देते.
रामचंद्र उनके जीवन वैसे ही समाहित थे जैसे गेहूं के दाने में आटा होता है. नहाते समय, दुखी होने पर और खुश होने पर वे तुलसीदास की चौपाइयां गाते थे जिनमें राम के गुणों का बखान होता था.
राम उनके जीवन में थे. राम की जन्मभूमि उनके घर के ठीक पूरब में, मात्र 45 किलोमीटर दूर थी. वे चैत राम नवमी को अयोध्या दर्शन करने की कोशिश करते थे, कभी जा पाते थे और कभी नहीं जा पाते थे. वे सावन झूला देखने जाते थे.
अयोध्या में मणिपर्वत नामक एक जगह बरगद के कई पेड़ हैं. वहीं पर सावन में झूले का आयोजन होता है जिसमे भगवान राम, लक्ष्मण और मां सीता की वेशभूषा में किशोर वय के लड़के झूला झुलाए जाते हैं. अयोध्या-फैज़ाबाद के नागरिक सहित अवध के लोग बड़ी श्रद्धा के साथ यह मेला देखने आते हैं.
एक सामान्य हिंदू मानस मानता है कि अयोध्या में उसके भगवान राम का घर है. उसका कण-कण पवित्र है. एक जगह के रूप में पूरी अयोध्या ही पवित्र है. ऐसा मेरे बाबा भी मानते थे. इसकी परिक्रमा की जाती है.
कार्तिक महीने में चौदह कोसी परिक्रमा होती है. इसमें पूरी अयोध्या, दर्शन नगर, फैज़ाबाद शहर का एक बड़ा हिस्सा आ जाता है. वे भी एकाध बार चौदह कोसी परिक्रमा करने गए थे, जब उनकी देह में ताकत थी. चौदह कोसी परिक्रमा पैदल ही की जाती है, इसमें किसी पालकी या मोटर वाहन का निषेध होता है. हर साल लाखों की संख्या में लोग चौदह कोसी परिक्रमा करते हैं.
इसी अयोध्या में हनुमान गढ़ी है. यह राम के अनन्य भक्त हनुमान का स्थान है. जो भी अयोध्या का दर्शन करने आता है, वह हनुमान गढ़ी जाता है. मंगलवार का दिन विशेषकर उन्हीं के लिए है. इस दिन अयोध्या में काफी चहल-पहल रहती है.
यहीं हनुमान गढ़ी परिसर के ठीक बगल में बच्चों का पहला मुंडन होता है. यहीं पर मेरा भी पहला मुंडन नौ साल की उम्र में हुआ था और मुझे आज भी याद है कि मैं अपनी दादी और बड़े भाई के साथ यहां आया था. मुझे बहुत अच्छा लगा था. पूरे अवध के इलाके में राम की तरह हनुमान उसके घरेलू धार्मिक वृत्त में शामिल हैं.
लोग नई साइकिल लेते हैं, कार लेते हैं या ट्रैक्टर लेते हैं, विवाह करते हैं तो अयोध्या और सरयू नदी का दर्शन करने आते हैं. सभी तीर्थ स्थलों की तरह अयोध्या भी ‘मुक्ति’ देती है. बहुत सारे लोगों की इच्छा होती है कि उनका दाह-संस्कार अयोध्या में सरयू नदी के किनारे हो.
सरयू के किनारे सैकड़ों लोगों का दाह संस्कार होता है. यह सब बताने का आशय केवल यही है कि अयोध्या एक जगह के रूप में लोगों के जीवन में शामिल है, विशेषकर अवध के इलाके में. लोग उसे प्यार करते हैं. वह उनके सुख-दुःख में है.
रामजन्म भूमि का ताला खोलो
लेकिन यह सब वृत्तांत एकरैखिक नहीं हैं. इसमें कई प्रधानमंत्री, केंद्रीय मंत्री, मुख्यमंत्री और कई राजनेता शामिल हैं. जब मैं कक्षा दो में पढ़ता था, रात में मुझे पिता जी पहाड़ा रटाते. तब 20 तक का पहाड़ा, मुख्यमंत्री, राज्यपाल, प्रधानमंत्री और राष्ट्रपति का नाम जानना बड़ी बात मानी जाती थी.
मेरे घर कोई आता तो पिता मुझे बुलाकर कहते कि 17 का पहाड़ा सुनाओ या भारत के प्रधानमंत्री, राष्ट्रपति या उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री और राज्यपाल का नाम बताओ. मैं बता देता और वे खुश हो जाते. इसी स्मृति में श्री राजीव गांधी का नाम जुड़ा है(मुझे बचपन में अपने बड़े लोगों के नाम के आगे ‘श्री’ लगाना सिखाया गया था).
तो एक दिन पता चला कि ‘ताला खुल गया’. यह 1987 की बात है. मेरे यहां टीवी और रेडियो दोनों थे, अयोध्या से घर नजदीक थे. इसलिए यह खबर सबको पता थी. मेरे पिता उस दिन काफी खुश थे. वे फिल्म देखने के काफी शौकीन थे. गांव के कई अन्य लोग भी उनकी तरह फिल्म देखने के शौकीन थे. चंदे पर नजदीकी कस्बे रगड़गंज से ‘वीडियो’ आता जिसमें एक वीसीआर, एक टीवी और 5-6 कैसेटें होतीं.
इसी दौर में, इन्हीं वीडियो कैसेटों में कारसेवकों की हत्या वाले वीडियो दिखाए जाने लगे. यह 1990 के बाद की बात है. तब मुलायम सिंह यादव का नाम गांव-गांव में मुल्ला मुलायम के रूप में मशहूर होने लगा था. मैंने पहली बार लालकृष्ण आडवाणी, अशोक सिंहल और विनय कटियार का नाम सुना था. ‘कारसेवक’ शब्द मैंने पहली बार तभी सुना था.
बात मई 1991 की है. राजीव गांधी की हत्या हो गई. मेरे पिता राजीव गांधी को तकनीक पसंद, सौम्य होने के साथ-साथ राम मंदिर का ताला खुलवाने का भी श्रेय देते थे. उनकी मृत्यु से मेरे पिता को धक्का लगा था. उसी साल मैंने कक्षा 6 का इम्तिहान दिया था.
मुझे भी बहुत दुःख हुआ था. वे पहले व्यक्ति थे, जिन्हें प्रधानमंत्री के रूप में मैंने पहली बार जाना था, मैंने उनका नाम रट लिया था, जैसे मैने पहाड़ा रटा था.
शायद उसी साल के जाड़ों की बात है. मेरे घर मेरे पिता के एक परिचित आते थे. उनके पास 26 इंच वाली एक साइकिल होती थी. साइकिल में एक झोला लटका होता था जिसमें उनका एक जांघिया और सूती धोती होती थी. सुबह नहाकर वे उसे पहन लेते थे.
कुर्ता शायद उनके पास एक ही था. वे शाम को मेरे घर कभी-कभार रुकते थे और सुबह होते ही चले जाते थे. मैंने अभी तक उनके जितना सादगी पसंद और सरल इन्सान नहीं देखा. वे केवल ‘आडवाणीजी’ की बात करते थे.
यह 1992 के जाड़ों की बात है. अभी हवाओं में हल्की-हल्की तुर्शी आने लगी थी. नवंबर में गेंहू सहित रबी की फसलें बोई जा रही थी. मैं कक्षा सात का विद्यार्थी था. स्कूल जाते समय हम एक नारा सुनते. कभी-कभी उसमें मेरी और मेरे गांव के अन्य बच्चों की आवाज शामिल हो जाती.
हम नारा लगाते- तेल लगाओ डाबर का, …(बाकी बातें इसी के लय में होतीं. हम बाबर की बेटी को गाली देते). गोंडा में काफी गाली दी जाती है, इसलिए कुछ अटपटा नहीं लगता था.
हां, हमें अब पता चलने लगा था कि बाबर मुसलमान था. उसने अयोध्या में राम का मंदिर गिराकर एक मस्जिद बनवाई है. इस मस्जिद को तोड़ दिया जाना चाहिए. हवा में यह सब कुछ घुला था.
फिर एक दिन शाम को, जब गाय-भैंस चरागाहों से चरकर अपने खूंटों पर लौटती हैं, तभी मेरे पिता जी के मित्र आए. उन्होंने मेरे पिता जी से कहा कि कल चार-पांच लोगों के लिए खाना तैयार करवा दीजिएगा.
अगले दिन शाम को मेरे पिता ने बताया कि बाबरी मस्जिद ढहा दी गयी. शाम को पिता के दोस्त आए और उनके साथ चार या पांच और लोग थे. सबके पास साइकिलें थी. उन्होंने घर पर बनी पूड़ी-सब्जी खायी. पूड़ी-सब्जी खाकर मैं बहुत खुश था.
मेरी मां: अयोध्या
फिर मैं बड़ा होने लगा. जैसे किसानों के बेटे बड़े होते हैं- खेतों में काम करते हुए, थोड़ा-बहुत पढ़ते हुए. पिता जी बारहवीं पास थे इसलिए वे शिक्षा की कीमत जानते थे. उनके पास पैसे नहीं थे तो उन्होंने मुझे अयोध्या के कामता प्रसाद सुंदर लाल साकेत स्नातकोत्तर कॉलेज में पढ़ने के लिए भेज दिया. यह 1999 का साल था.
मैंने इतना बड़ा कॉलेज पहली बार देखा था और लाइब्रेरी में इतनी सारी किताबें! अब रहने की परेशानी थी. फैज़ाबाद के मेरे एक नजदीकी रिश्तेदार ने अयोध्या के एक मंदिर में रहने के लिए कमरा दिला दिया. यह मंदिर शेषशायी विष्णु का मंदिर था. महंत जी और भंडारी काफी उदार थे.
मुझे एक कमरा मिल गया. किराये के रूप में मुझे कुछ नहीं देना था. मैं गर्मी की छुट्टियों में केवल एक बोरी गेहूं लाकर मंदिर में दे देता था. यह मेरी कोई अकेली कहानी नहीं थी. अपने ग्रेजुएशन के दौरान ही मैंने जाना कि मेरी तरह हजारों लोग अयोध्या की मंदिरों में रहकर पढ़ाई कर रहे थे. अयोध्या न होती हम सब गरीबों के, किसानों के और हां, दलितों और पिछड़ों के बहुत बच्चे पढ़ न पाते.
अयोध्या हमारी मां थी. हम में से कई लोग प्रोफेसर बने, कुछ अधिकारी बने, अध्यापक बने, कुछ आगे नहीं बढ़ पाए लेकिन वे आज भी अपने पति/ पत्नी, बच्चों के साथ अयोध्या आते हैं. उनके मन के कोने में एक अयोध्या रहती है.
यह वह अयोध्या नहीं है जिसको सार्वजनिक कल्पना में विश्व हिंदू परिषद और भाजपा ने स्थापित किया है. यह वह अयोध्या भी नहीं है जिसे दिल्ली के तथाकथित लिबरल्स और मार्क्सवादी बुद्धिजीवियों ने सार्वजनिक कल्पना में स्थापित कर दिया है. यह एक सामान्य शहर है.
अयोध्या के बगल में ही, सरयू नदी के उत्तर में बस्ती जिला पड़ता है. वहीं के कवि अनिल कुमार सिंह ने लिखा भी था-
अयोध्या एक शहर का नाम है
जैसे भोपाल…
मनुष्य रहते हैं इस शहर में
जिनमें रहता है भगवान
और चूंकि भगवान मनुष्य में रहता है
इसलिए वह अल्ला भी हो सकता है
…
हमारी अयोध्या हमें रोजी-रोटी देती है
जिन्दा रखती है
हम उसे पत्नी की तरह प्यार करते हैं
बच्चों की तरह दुलराती है हमें वह.
अनिल कुमार सिंह घोषित और प्रतिबद्ध मार्क्सवादी कवि हैं. उन्हें इस कविता के लिए भारत भूषण अग्रवाल पुरस्कार मिला था. हिंदी में किसी युवा कवि के लिए यह बहुत ही महत्वपूर्ण पुरस्कार माना जाता है.
अनिल कुमार सिंह की कविता में जो अयोध्या बच्चों की तरह दुलराती है, उसी ने तो मुझे और मेरे दोस्त दुर्गेश त्रिपाठी को पढ़ने के लिए ठौर दी थी. हम दोनों के पिता किसान थे. दुर्गेश त्रिपाठी ने जीव विज्ञान की किसी शाखा में एमएससी की थी.
आजकल वे अध्यापक हैं. मैंने प्राचीन इतिहास में एमए किया. मैं तीन साल एक मंदिर में रहा. अयोध्या ने मुझे और मेरे कई दोस्तों को पाला-पोसा.
गोलबंदी
बड़े होने पर मैंने जाना कि यह गोलबंदी किस प्रकार की गई थी और जिसमें मेरे गांव के लोग उसमें मानसिक रूप से शामिल हो गए थे. इसमें मेरे पिता भी थे. हालांकि, वे कारसेवा में नहीं गए थे और जब कारसेवा हो रही थी तब गेंहू बोया जा रहा था.
किसान के लिए कारसेवा से ज्यादा उसका गेंहू का खेत महत्वपूर्ण था, लेकिन उनकी ही तरह अवध के इलाके के किसानों ने भले ही कम संख्या में ‘राम जन्म भूमि आंदोलन’ में भाग लिया था, लेकिन किसानों के एक बड़े हिस्से का नैतिक समर्थन इसके साथ था.
यह नैतिक समर्थन राजीव गांधी द्वारा ताला खुलवाने, 1989 के बाद प्रचार से उपजा था. उनके मन में राजा राम तो थे ही. ‘आडवाणीजी’ और अशोक सिंघल ने इसे एक धार्मिक गोलबंदी में बदल दिया.
(रमाशंकर सिंह स्वतंत्र शोधकर्ता हैं.)