कविता का हस्तक्षेप

हर राजनीतिक दल जनता को जागरूक करना चाहता है. लेकिन अगर ‘पब्लिक’ सब जानती है तो उसे जागरूक करने की आवश्यकता ही क्यों हो?

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(इलस्ट्रेशन: परिप्लब चक्रवर्ती/द वायर)
(इलस्ट्रेशन: परिप्लब चक्रवर्ती/द वायर)

जब मैं अपने ही जैसे किसी आदमी से बात करता हूं,
साक्षर है पर समझदार नहीं है. उसमें समझ है लेकिन
साहस नहीं है. वह अपने ख़िलाफ़ चलने वाली
साज़िश का विरोध खुलकर नहीं कर पाता.
और इस कमजोरी को मैं जानता हूं. लेकिन इसीलिए
यह आम मामूली आदमी मेरा साधन नहीं है
यह मेरे अनुभव का सहभागी है, बनता है.

जब मैं उसे भूख और नफ़रत और प्यार और ज़िंदगी
का मतलब बतलाता हूं-और मुझे कविता में
आसानी होती है-जब मैं ठहरे हुए को हरकत
में लाता हूं—एक उदासी टूटती है, ठंडापन ख़त्म
होता है और वह ज़िंदगी के ताप से भर जाता है.

मेरे शब्द उसे ज़िंदगी के कई स्तरों पर ख़ुद को
पुनरीक्षण का अवसर देते हैं, वह बीते हुए वर्षों
को एक-एक कर खोलता है.
वर्तमान को और पारदर्शी पाता है, उसके आर पार
देखता है. और इस तरह अकेला आदमी भी
अनेक कालों और अनेक संबंधों में एक समूह में
बदल जाता है. मेरी कविता इस तरह अकेले को
सामूहिकता देती है और समूह को साहसिकता.

इस तरह कविता में शब्दों के ज़रिये एक कवि
अपने वर्ग के आदमी को समूह की साहसिकता से
भरता है जबकि शस्त्र अपने वर्ग-शत्रु को
समूह से विच्छिन्न करता है. यह ध्यान

रहे कि शब्द और शस्त्र के व्यवहार का व्याकरण
अलग-अलग है. शब्द अपने वर्ग मित्रों में कारगर
होते हैं और शस्त्र अपने वर्ग-शत्रु पर.

सुदामा पांडे धूमिल की इस कविता पर नज़र ठहर गई. धूमिली अंदाज़ से बिलकुल अलग इस कविता ने इस चुनाव प्रचार के शोर शराबे के बीच क्यों ध्यान खींच लिया? क्या इसलिए कि 24 घंटे शब्दों के हमलों के बीच यह कविता शायद भाषा के जनतांत्रिक कर्तव्य की याद दिलाती मालूम पड़ती है? लेकिन कविता तो कविता के बारे में है. कविता के काम के बारे में. ध्यान से पढ़ें तो वह भाषा के एक बड़े मक़सद की बात करती है.

भाषा का वह कर्तव्य क्या है? हम इस पर आगे बात करेंगे.

कोई 50 साल पहले लिखी इस कविता में धूमिल को धूमिल बनानेवाला परिचित क्रोध, क्षोभ, छटपटाहट, अस्वीकार नहीं है. है भाषा के दायित्व का गंभीर एहसास.

भाषा के इस दायित्व का जनतंत्र से गहरा रिश्ता है. बल्कि जनतंत्र तो भाषा का ही व्यापार है. वही उसकी ताक़त है और उसी में उसके लिए ख़तरा भी है. जनतंत्र में भाषा के माध्यम से ही सत्ता का निर्माण होता है. हथियारों के बल पर अपनी प्रभुता स्थापित नहीं की जाती. भाषा के सहारे बहुमत निर्माण किया जाता है और उस बहुमत के बल पर सत्ता हासिल की जाती है. लेकिन जनतंत्र मात्र वह नहीं. वह निरंतर चलने वाला वार्तालाप है. ऐसा जिसमें अलग-अलग पक्ष एक दूसरे से विवाद करते हैं, लेकिन उसकी परिणति संवाद में होनी चाहिए.

विवाद का समय है चुनाव प्रचार. लेकिन उसके समाप्त होने के बाद जब संसद में जब ये विवादी साथ बैठते हैं तो उनका जिम्मा संवाद स्थापित करने का है. तो विभाजन के बाद संयोजन. उसका दायित्व दोनों प्रतिद्वंद्वी पक्षों का है. लेकिन सत्ता पक्ष का ज़्यादा है क्योंकि बहुमत उसके पास है. तो प्रलोभन यह हो सकता है कि अल्पमत की आवाज़ की उपेक्षा कर दे जाए और बहुमत के, संख्या के बल पर सारा फ़ैसला कर लिया जाए.

लेकिन उसके पहले भी जब विवाद दो या दो से ज़्यादा पक्षों के बीच चल रहा हो तो भी संवाद की प्रक्रिया वहां भी चलती रहती है. क्योंकि विवाद राजनीतिक दलों के बीच भले हो, वे जनता से तो संवाद करना चाहते ही हैं.

इस संवाद का उद्देश्य क्या है? और वह किसके द्वारा शुरू किया जाता है? जनतंत्र में प्रायः जनता का गुणगान करते हुए उसे सर्वोपरि बतलाया जाता है. लेकिन जनतंत्र का ही एक प्रिय शब्द है जनजागरण. हर राजनीतिक दल जनता को जागरूक करना चाहता है. अगर ‘पब्लिक’ सब जानती है तो उसे जागरूक करने की आवश्यकता ही क्यों हो?

इस प्रश्न पर विचार करते ही स्वीकार करना पड़ता है कि समाज में भाषा के व्यवहार में असमानता है. भाषा सबके पास है. सब भाषा का व्यवहार करते हैं लेकिन एक तबका तो है जो भाषा में छिपे ख़तरों को पहचानता है. भाषा जगा सकती है तो सुला भी सकती है. सचेत भी करती है और सम्मोहन में डालकर बेबस भी.

यह कविता दिलचस्प है. इस कविता में शब्द और शस्त्र के बीच के अंतर की पहचान है. वह लेकिन आख़िरी हिस्से में है. शुरुआत तो शुरू से ही की जानी चाहिए. पहले हिस्से में कवि जिससे बातचीत करना चाहता है, उसकी पहचान है: वह साक्षर है, लेकिन समझदार नहीं है. संभवतः इसीलिए हमारे संविधान निर्माताओं ने मताधिकार के लिए समझ को महत्त्व दिया, साक्षरता को नहीं. समझ साक्षरता की समानुपाती नहीं है. यानी साक्षरता के स्तर से समझ नहीं तय होती.

कविता का या भाषा का काम समझ पैदा करने का है. समझ एक दूसरे के बीच एक रिश्तों की और अपने चारों तरफ़ घट रही घटनाओं के बीच के न दीखनेवाले रिश्तों की भी. लेकिन यह समझ हो भी तो दूसरा गुण जो किसी को ‘मतदाता’ बनाता है, वह है साहस. इस साहस के बिना वह पूरा जनतांत्रिक व्यक्ति नहीं बन सकता. क्योंकि आख़िर गांधी ने स्वराज की परिभाषा देते हुए कहा था कि यह मात्र मुझ जैसों का राज नहीं. स्वराज वह है जिसमें मैं सत्ता के अन्याय का, या जिसे ग़लत समझता हूं, उसका विरोध करने की आज़ादी मुझे हो. विरोध करने की आज़ादी का इस्तेमाल साहस के बिना कैसे हो सकता है?

किसी में साहस भरने का काम उसे अपने सहभागी बनाए बिना संभव नहीं. क्या लोग सिर्फ़ ज़रिया हैं या उनसे आपका बराबरी का नाता है और उनकी और आपकी ज़िंदगी में कोई साझेदारी भी है:

यह आम मामूली आदमी मेरा साधन नहीं है
यह मेरे अनुभव का सहभागी है, बनता है.

समझ और साहस के साथ चाहिए जीवन के प्रति उत्सुकता और उत्साह. उसमें दिलचस्पी. उसमें हिस्सा लेने की. यानी व्यक्ति को एक सक्रिय व्यक्ति होना चाहिए. उसमें ज़िंदगी की गर्माहट होनी चाहिए:

मैं उसे भूख और नफ़रत और प्यार और ज़िंदगी
का मतलब बतलाता हूं-और मुझे कविता में
आसानी होती है-जब मैं ठहरे हुए को हरकत

में लाता हूं—एक उदासी टूटती है, ठंडापन ख़त्म
होता है और वह ज़िंदगी के ताप से भर जाता है.

जीवन में रुचि का अर्थ ही है लोगों में रुचि. मुक्तिबोध की पंक्तियां याद आ जाती हैं:

एकदम ज़रूरी-दोस्तों को खोजूं
पाऊं मैं नए-नए सहचर
सकर्मक सत्-चित्-वेदना भास्वर.

धूमिल जब ठहरे हुए को हरकत में लाने की बात करते हैं तो शायद मुक्तिबोध की ‘सकर्मक सत्-चित्-वेदना भास्वर’ उनके मन में कहीं उठ रही हो!

जनतंत्र का काम अंततः समूह निर्माण का है. जनतंत्र की बुनियाद व्यक्तिगत मताधिकार पर है, लेकिन वह व्यक्ति समूह की अंग है. राष्ट्र भी एक समूह या सामूहिकता का भाव है. वह सामूहिकता कैसे बनती या बनाई जाती है?  सामूहिकता का यह निर्माण एक स्तर पर व्यक्ति के ख़ुद की पहचान से होता है. इतिहास की समझ से. वह काल के किस बिंदु पर स्थित है? उससे, इतिहास से उसका रिश्ता क्या है? भाषा का काम इन संबंधों का बोध पैदा करना है:

इस तरह अकेला आदमी भी
अनेक कालों और अनेक संबंधों में एक समूह में
बदल जाता है.

जैसे व्यक्ति में साहस होना चाहिए, वैसे ही समूह में भी:

मेरी कविता इस तरह अकेले को
सामूहिकता देती है और समूह को साहसिकता.

साहस और उद्धतपन में फर्क है. एक जनता का निर्माण करता है और दूसरा हिंसक भीड़ का. सामूहिकता का निर्माण गांधी भी कर रहे थे और लेनिन भी. मुसोलिनी का तो सिद्धांत ही सामूहिकता का था. इन सामूहिकताओं के चरित्र में अंतर है. रूसी लेखक और लेनिन के मित्र गोर्की ने देखा कि लेनिन एक हिंसक सामूहिकता का निर्माण कर रहे हैं और इसके लिए उन्होंने अपने मित्र की कड़ी आलोचना की.

कविता का अंत लेकिन सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण है. वहां वह शब्द और शस्त्र के बीच अंतर करती है:

इस तरह कविता में शब्दों के ज़रिये एक कवि
अपने वर्ग के आदमी को समूह की साहसिकता से
भरता है जबकि शस्त्र अपने वर्ग-शत्रु को
समूह से विच्छिन्न करता है. यह ध्यान
रहे कि शब्द और शस्त्र के व्यवहार का व्याकरण
अलग-अलग है. शब्द अपने वर्ग मित्रों में कारगर
होते हैं और शस्त्र अपने वर्ग-शत्रु पर.

धूमिल जिस समय कविता लिख रहे थे, जनतंत्र के प्रति, जनतांत्रिक सामूहिकता के प्रति संदेह और अधैर्य ही बौद्धिक समाज का मुख्य भाव था. वह राममनोहर लोहिया की राजनीति में था और नक्सलवादियों में भी.

‘नक्सलबाड़ी में वसंत के वज्रनाद’ ने धूमिल जैसे कवियों को भी खींचा था. शब्द या शस्त्र? या दोनों ही?

शब्द अपने मित्रों की साहसिक सामूहिकता का निर्माण करते हैं और शस्त्र जिस पर इस्तेमाल किए जाते हैं उसे समूह से विच्छिन्न करते हैं.

क्या कविता वर्ग मित्रों के लिए शब्द की और वर्ग शत्रुओं के लिए शस्त्र की वकालत कर रही है? क्या जनतांत्रिक चेतना वर्ग मित्र और वर्ग शत्रु के इस अलंघ्य विभाजन की चुनौती का सामना करते हुए ही नहीं बनती? और क्या कवि को नहीं मालूम कि अनेक बार शस्त्र खून बहाएं उसके पहले शब्द ही शस्त्र में बदल दिए जाते हैं? कविता का काम इसी के ख़िलाफ़ संघर्ष का तो है!

(लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय में पढ़ाते हैं.)

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