संयुक्त मोर्चा
मैं…ज…हूं…ज
और तुम…न…हो
हम दोनों मिलकर ‘जन’ बनाते हैं.
मेरा जानना
और तुम्हारा नकारना
हमें इस काबिल बनाते हैं
कि हम
चेहरे को चेहरा
और चाकू को चाकू कह सकें.
कल तक वे चेहरे को चाकू
और चाकू को चेहरा कहते रहे
और हम इसे बुत की तरह सहते रहे.
लेकिन यह देखो हम किस तरह
एक दूसरे के सामने खड़े हैं
एक अदद बटन और चुटकी भर
आटे की सुविधा ने
हमें बाग़ी बना दिया है
जबकि हमारी पीठ बुरी तरह
महसूसती है कि हमारी रीढ़ पर
दांत भेड़ियों के गड़े हैं.
मैं…ज…हूं…ज
और तुम…न…हो
हम दोनों मिलकर ‘जन’ बनाते हैं
तुम मुझे कहीं भी देख सकते हो
सुबह-सुबह जब आसमान
मुंह धोये पेड़ों में
नारंगी के फांकें बांटता है
तुम मुझे बेकारी की पसली में
चहलक़दमी करते हुए
देख सकते हो
मेरा चलना
बरफ़ की सिल्ली में
सैकड़ों उदास आंखों का चलना है
या फिर
तुम मुझे देख सकते हो
शाम के धुंधलके में
दीवारों पर एक नया नारा लिखती हुई
हलफल कांपती ललछौहीं कूंची में
मैं भाषा के जबड़े में कैंसर की गांठ हूं
मेरा जानना
मेरा जलना है
और तुम कहां रहते हो
संसद के पीछे
दंतचियार रिश्वती हथेली पर
या काम रोको प्रस्ताव की सूची में
बहरहाल तुम जहां भी रहते हो
यह पहला मौक़ा है कि हम दोनों
साथ हैं. थकान पर चुस्की मारते हुए
बिल्कुल ताज़ा और गरम
चाय के प्यालों की तरह
और लगभग उस माहौल में
जबकि हमें निर्णय लेना है
तो आओ, एक निर्णय लें
हम दोनों मिलकर
अपने जानने और अपने नकारने का
एक संयुक्त मोर्चा बनाएं
आज की भूख से भूख के अगले पड़ाव तक
लिख दें—
यह रास्ता जनतंत्र को जाता है
और इस तरह
धुन्ना कविताओं और
चुन्ना राजनीति
और मुन्ना विद्रोह को
ठेंगा दिखाएं.
मैं…ज…हूं…ज
और तुम…न…हो
हम दोनों मिलकर ‘जन’ बनाते हैं.
धूमिल की इस कविता में उनकी पिछली कविता के मुक़ाबले वे धूमिल अधिक मौजूद हैं जिन्हें हिंदी के पाठक पहचानते हैं. इस कविता के स्वर में बेचैनी है. धूमिल का ख़ास तीखापन है और सीधापन भी. आप यह भी पहचान सकते हैं कि यह कविता तब लिखी गई है जब जनतांत्रिक संवेदना के दायरे में अभी मनुष्येतर प्राणियों का शुमार नहीं हुआ था. यानी हीनतर मानवीय वृत्तियों के लिए उपमा और प्रतीक के तौर पर भेड़िया, सुअर, गीदड़ आदि का इस्तेमाल करने के पहले कवि शायद ही कभी दुविधा का अनुभव करते हों.
लेकिन यह सवाल जब धूमिल लिख रहे थे, उस वक्त के सारे लेखकों से किया जा सकता है. इसे चाहें तो उस वक्त की चेतना की सीमा भी कह सकते हैं. यह जनतांत्रिक चेतना मनुष्यकेंद्रित, उसके लाभ के विचार से सीमित थी.
इस नुक़्ताचीनी में लेकिन कहीं कविता हमारे हाथ से फिसल न जाए. कविता में एक बेचैनी है लेकिन खेल भी है. ज और न, इन दो अक्षरों को लेकर किया गया खेल. वर्णमाला के ये दो अक्षर आसपास आते हैं तो जनतंत्र की बुनियादी और सबसे अहम इकाई की शक्ल बनती है. वह जन है.
जन अकेला है लेकिन जैसा हम धूमिल की दूसरी कविता के ज़रिये जान चुके हैं कि जनभाव अकेले इंसान से नहीं बनता. वह लोगों के साथ आने से, सामूहिकता से निर्मित होता है. लेकिन वह सामूहिकता जनतांत्रिक किस प्रक्रिया से बनती है?
जनतांत्रिक सामूहिकता का निर्माण होता है जानने और नकारने या इनकार करने से. यह समझना मुश्किल नहीं कि जाने बिना नकारना संभव नहीं. कोई पूछ सकता है कि आख़िर नकारने से ही शुरुआत क्यों?
जानना जन बनने की शुरुआत है. जानना इसीलिए अधिकार है. वह वैकल्पिक नहीं हो सकता. वह सत्ता की मर्ज़ी पर नहीं छोड़ा जा सकता. और जानना अकेले एक आदमी के बस की बात नहीं. उसके लिए उसे और साधन चाहिए. सिर्फ़ जनसंचार माध्यम नहीं, जिसे आज हम मीडिया कहते हैं, बल्कि शोध संस्थानों, विश्वविद्यालयों, यहां तक कि लेखकों, कवियों, सबका काम है जनता को जनता बनाने या बनाए रखने के लिए जानने के इस काम में उसकी मदद करना.
जनतंत्र में सब कुछ जन है लेकिन वह उस तंत्र या सत्ता के सामने कितना निरुपाय नज़र आता है जिसे उसी ने अपने फ़ैसले से बनाया है. सत्ता की स्वाभाविक प्रवृत्ति गोपनीयता ही है. यानी वह जनता को या तो इस योग्य नहीं मानती कि उसे सबकुछ बतलाया जाए या वह घबराती है कि जानने के बाद जनता उसे नकारना शुरू कर सकती है.
क्यों धूमिल जो आज से कोई 50 साल पहले लिख रहे थे, वह इतना अहम है, यह इस बात से ही मालूम हो जाता है कि भारत के जन को सूचना या जानने का अधिकार भारत में उसके ‘स्वराज’ आने के कोई 60 साल बाद ही मिला. वह भी ख़ुद ब ख़ुद नहीं. और क्यों सरकार बार बार अदालत को यह कहती है कि जनता को जानने का हक़ नहीं.
हमें भारत की सबसे बड़ी अदालत में सरकार का बयान याद करना चाहिए कि जनता को यह जानने का हक़ नहीं कि जिस ‘चुनावी बॉन्ड’ के सहारे पार्टियां चुनाव लड़ती हैं, वह किसने ख़रीदा और किसे दिया. या वह सरकारी स्टैंड भी कि प्रधानमंत्री द्वारा स्थापित किए गए ‘पीएम केयर’ फंड का पैसा कहां से आ रहा है और कहां जा रहा है! या कोरोना संक्रमण के दौरान ऑक्सीजन आपूर्ति को लेकर गोपनीयता का सरकार की ज़िद. या जब अदालत ही कहती है कि मतदाता को जानने का हक़ नहीं कि अपने बारे में जो जानकारी उम्मीदवार ने दी है, वह सही है नहीं.
जानना पहली सीढ़ी है. उसके सहारे या उसके बल पर जनतंत्र का रास्ता खुलता है. सत्ता के निर्णय की जांच करने का और उसे नकारने का अधिकार जन को जन बनाता है.
अगर जानने के साथ नकारने का अधिकार न हो तो जनतंत्र संभव नहीं. जनतंत्र में नकारने का अधिकार विरोध का प्रस्थान बिंदु है. जनता को विरोध का अधिकार है. वह सरकार द्वारा लाए गए क़ानून का विरोध कर सकती है, उसके द्वारा लिए गए किसी शासकीय निर्णय का विरोध कर सकती है. जनता के जीवन के बारे में निर्णय अगर लिया जाए और वह उसे अपने ख़िलाफ़ मालूम हो तो उसे उसे नकारने और उसका विरोध करने का अधिकार है. सच्चाई को जैसी वह है, पहचानना और बता सकना इसके बाद ही संभव होता है:
मेरा जानना
और तुम्हारा नकारना
हमें इस काबिल बनाते हैं
कि हम
चेहरे को चेहरा
और चाकू को चाकू कह सकें.
जानना लेकिन एक तकलीफ़देह क्रिया और प्रक्रिया है. वह फिर चैन से नहीं रहने देती:
मैं भाषा के जबड़े में कैंसर की गांठ हूं
मेरा जानना
मेरा जलना है
जनतंत्र का जन कबीर है जो जानने के कारण जागता और रोता है जबकि बाक़ी न जानने के कारण चैन से सोते हैं. या मुक्तिबोध की कविता ‘अंधेरे में’ का वह पागल जिसके गाने से सुनने वाली का चैन चला जाता है, नींद उड़ जाती है. जानना जलना है. इसलिए कि उसके साथ नकारने की चुनौती लगी आती है. वही जनतांत्रिक दायित्व है. जानने के बाद ख़ामोश बैठना जनतंत्र के साथ द्रोह है.
इसलिए कविता इस मोर्चे का प्रस्ताव करती है:
हम दोनों मिलकर
अपने जानने और अपने नकारने का
एक संयुक्त मोर्चा बनाएं
आज की भूख से भूख के अगले पड़ाव तक
लिख दें—
यह रास्ता जनतंत्र को जाता है
यह भूख सिर्फ़ 5 किलो अनाज की नहीं, यह कहने की ज़रूरत न होनी चाहिए. यह एक बड़ी भूख है, अपने आपको हासिल करने की. जनतंत्र कुछ नहीं अगर वह इस बड़ी भूख को जगा न सके और आत्मा के लिए खुराक भी जुटा न सके. कविता इसलिए क्षुद्रता से ऊपर उठने की चुनौती देती है.
…इस तरह
धुन्ना कविताओं और
चुन्ना राजनीति
और मुन्ना विद्रोह को
ठेंगा दिखाएं.
कविता को बड़ी कविता होना होगा, राजनीति को गहराई हासिल करनी होगी और विद्रोह को अपने वक्त के सबसे बड़े और असली सवाल को पहचान कर उससे टकराते हुए अर्थवान होना होगा. तब जनतंत्र का रास्ता खुलेगा. रास्ता जो अंतहीन है.
(लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय में पढ़ाते हैं.)
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