ग्वालियर: ‘बीहड़, बागी और बंदूक’ के लिए पहचाने जाने वाले चंबल की एक और पहचान है, जिससे कम लोग परिचित हैं. बंदूक यहां बग़ावत के लिए सिर्फ बाग़ी या डकैतों ने नहीं उठाई, बल्कि बड़ी संख्या में यहां के युवा देश की सुरक्षा के लिए भारतीय सेना में शामिल होते आए हैं. शहीदों की लंबी फ़ेहरिस्त वाले कई गांवों के बेशुमार घरों ने सैनिकों की पीढ़ियां दी हैं.
मध्य प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान की सरकार द्वारा जुटाए आंकड़े बताते थे कि राज्य के शहीद हुए कुल जवानों में से करीब 45 फीसदी भिंड- मुरैना ज़िलों से थे. अगर समीपवर्ती ग्वालियर ज़िले को जोड़ दें, संख्या और अधिक हो जाती है.
ग्वालियर स्थित एसएफ ग्राउंड पर युवाओं को सेना, पुलिस और अर्द्धसैनिक बलों के लिए शारीरिक प्रशिक्षण दे रहे सूरज बताते हैं, ‘एक समय सेना में भर्ती के लिए जितने फॉर्म मध्य प्रदेश के सभी ज़िलों में भरे जाते थे, उतने इन तीन ज़िलों (भिंड, मुरैना और ग्वालियर) में ही भर जाते थे.’
लेकिन अग्निपथ योजना के बाद परिस्थितियां बदल गई हैं. चंबल के युवाओं का सेना से मोहभंग होने लगा है. मुरैना ज़िले की कैलारस तहसील के निवासी मनु सिकरवार कहते हैं:
‘देश के लिए शहीद होना गर्व की बात है, लेकिन हमारे शहीद होने पर न हमारे घर वालों को पेंशन लाभ मिलेगा और न अन्य लाभ जो सेना के नियमित जवान को मिलते हैं. मेरे पीछे मेरा परिवार है, कम से कम मेरे जाने के बाद इतना तो हो कि वो जीवन भर परेशान न हों.’
दो साल पहले तक 20 वर्षीय मनु सेना में जाना चाहते थे और जी-जान से तैयारी में जुटे थे. अग्निपथ योजना ने उनके सपनों का गला घोंट दिया. ‘अग्निपथ योजना के कारण सेना में जाने का सपना छोड़ना पड़ा क्योंकि वहां कोई भविष्य नहीं है. चार साल बाद वापस आकर मुझे कोई और काम देखना पड़ता, एक नई दिशा में मेहनत करनी पड़ती और रोजगार के लिए धक्के खाने पड़ते.’
मनु अकेले नहीं थे. उनके कई दोस्त सेना का सपना लिए जी रहे थे, लेकिन आज सभी अन्य नौकरियों की तलाश में हैं. मनु दिल्ली में प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी कर रहे हैं, लेकिन आज भी कहते हैं कि उनकी पहली पसंद सेना ही है क्योंकि उनके पिता भी सैनिक हैं.
कई अधिकारियों का तर्क है कि सेना को आप रोजगार गारंटी योजना की तरह नहीं देख सकते. फौज़ अपनी जरूरतों के अनुसार भर्तियां करती है, और देश को समझना चाहिए कि अग्निवीर योजना सेना के आधुनिकीकरण और संगठन को सुदृढ़ बनाने में मदद करेगी.
लेकिन इससे परे यह भी सत्य है कि देश के कई हिस्सों में सेना एक परम्परा, एक जुनून है, गर्व से जीने का अनिवार्य माध्यम है. अग्निपथ योजना इस परम्परा को झटके से ख़त्म कर रही है. चंबल अंचल में सेना से जुड़ने की लम्बी परम्परा रही है. मुरैना शहर के भानु जादौन के दादा और ननिहाल में मामा सेना का हिस्सा रहे हैं. आज भानु अग्निवीर बनने की उम्र सीमा पार कर चुके हैं, लेकिन योजना लागू होते वक्त वह पात्र थे. कोविड महामारी से पहले हुई शारीरिक दक्षता परीक्षा वह पास कर चुके थे, लेकिन कोविड के चलते बाकी प्रक्रिया में देरी होती रही और फिर अग्निपथ योजना आ गई. योजना के पहले वर्ष में उन्हें उम्र में दो साल की रियायत मिली थी, लेकिन उन्होंने अग्निवीर न बनने का विकल्प चुना.
‘परिवार में बचपन से ही आर्मी कल्चर देखा था, इसलिए वहीं जाने का फितूर था. लेकिन 4 साल की सीमित नौकरी के कारण परीक्षा देने में रुचि नहीं ली. मेरे जैसे बहुत से लड़के हैं जिनका अग्निपथ योजना के कारण सेना से मन उठ गया.’
भानु अब एक निजी कंपनी में कलेक्शन एजेंट बन गए हैं.
‘द वायर’ मुरैना ज़िला मुख्यालय से तकरीबन 30 किलोमीटर दूर बसे काजी बसई गांव पहुंचा. करीब 5 हजार की आबादी वाले इस गांव में 80 से 90 फीसदी मुसलमानों के घर हैं. प्रथम विश्वयुद्ध के समय से यहां के लोग फौज में जाते रहे हैं.
गांव के पूर्व सरपंच हाज़ी मोहम्मद रफीक़, जो 36 सालों तक सीमा सुरक्षा बल (बीएसएफ) में सेवा देने के बाद रिटायर हुए थे, बताते हैं कि अब तक उनके गांव से तकरीबन 3,000-3,500 लोग विभिन्न सुरक्षा बलों का हिस्सा रह चुके हैं और 7 लोग शहीद हुए हैं. लोग पांच-पांच पीढ़ियों से सुरक्षा बलों में सेवा दे रहे हैं. वर्तमान में भी गांव के 350 से अधिक लोग भारतीय सेना, भारत-तिब्बत सीमा पुलिस (आईटीबीपी), बीएसएफ और केंद्रीय रिजर्व पुलिस बल (सीआरपीएफ) में सेवाएं दे रहे हैं.
अग्निपथ योजना पर ग्रामीण कहते हैं, ‘बिल्कुल वाहियात है अग्निवीर बनवो, जामे तो शहीद को भी दर्जा नहीं मिलेगो.’
अग्निवीरों को ड्यूटी के दौरान मृत्यु की स्थिति में अनुग्रह राशि और बीमा का तो प्रावधान है लेकिन उन्हें नियमित सैनिकों के समान पेंशन और शहीदों के परिजनों को मिलने वाली अन्य सुविधाओं से वंचित रखा गया है. इसके अतिरिक्त, योजना के तहत चार साल की सेवा समाप्ति के बाद अग्निवीर को ‘एक्स-सर्विसमैन’ भी नहीं माना जाएगा.
ग्रामीणों ने बताया कि पहले हर भर्ती में काजी बसई गांव के 4-5 लड़के चुने जाते थे. योजना आने के बाद जो पिछली भर्ती हुई, उसमें पहली बार ऐसा हुआ कि गांव से कोई नहीं चुना गया.
वासिफ मोहम्मद ने अग्निपथ योजना आने से पहले सेना की भर्ती रैली में भाग लिया था, लेकिन योजना आते ही सेना में जाने का विचार त्याग दिया. ‘अग्निवीर में शायद ही गांव के किसी लड़के को रुचि हो,’ वह कहते हैं. पहले अग्निवीर बनो, फिर स्थायी होने के लिए मेहनत करो और अगर स्थायी नहीं हुए तो अन्य भर्तियों के लिए कोशिश करो. ‘बेहतर है कि किसी और स्थायी नौकरी के लिए मेहनत करें.’
तस्वीर का एक स्याह पक्ष पूर्व सरपंच हाजी मोहम्मद बताते हैं, ‘जो बच्चे सेना की तैयारी कर रहे थे, अब उन्होंने किराने, लोहे और काठ (फर्नीचर) की दुकानें खोल ली हैं.’
वासिफ ने किराने की दुकान खोल ली है और उनके हमउम्र मोसाइद अब्बासी बढ़ई (कारपेंटर) का काम करने लगे हैं.
मुरैना की पोरसा तहसील में एक गांव तरसमा भी है, जिसने अब तक देश को 17 शहीद दिए हैं. गांव में करीब 400 घर हैं और 5 शहीद स्थल. सरपंच सत्यभान तोमर के अनुसार, ‘हर घर में 2-3 फौजी हैं. किसी-किसी घर में तो पांच पुरुष हैं और पांचों फौजी.’ तोमर कहते हैं कि यहां भी ‘अग्निवीर’ को लेकर उत्साह नहीं है.
मुरैना ज़िले की कैलारस तहसील में सुरक्षा बलों में भर्ती के लिए फिजिकल ट्रेनिंग सेंटर चलाने वाले रामनारायण सिकरवार कहते हैं, ‘हमारे क्षेत्र में इसलिए भी फौज की नौकरी को अधिक प्राथमिकता दी जाती है क्योंकि यहां ज्यादातर बच्चे कम पढ़ने-लिखने वाले होते हैं. शारीरिक तौर पर वे मजबूत होते हैं. जब सेना में नौकरी बस 4 साल की है तो वह कहीं और काम-धंधा देखने के लिए मजबूर हो गए हैं.’
वासिफ की किराने की दुकान पर आपसी चर्चा में मशग़ूल गांव के बुजुर्ग नवी मोहम्मद, अता मोहम्मद और हसीर मोहम्मद ‘द वायर’ से कहते हैं, ‘यहां करने कोई और काम नहीं है. फौज के अलावा लड़कों ने कुछ सोचा ही नहीं था, अब सरकार चार साल की नौकरी करा रही है तो वही करनी पड़ेगी, वरना करो मेहनत-मजदूरी.’
‘अग्निपथ’ के बाद औंधे मुंह गिरी फिजिकल की तैयारी करने वालों की संख्या?
सेना से रिटायर उदय भदौरिया बीते 7 वर्षों से ग्वालियर स्थित भिंड रोड पर एक फिजिकल ट्रेनिंग सेंटर चलाते हैं, जहां सेना, पुलिस, एनडीए और अर्द्धसैनिक बलों के लिए शारीरिक परीक्षा की तैयारी कराई जाती है. वह बताते हैं, ‘जब अग्निपथ योजना नहीं थी तब देश भर से छात्र मेरे पास सेना की तैयारी के लिए आते थे, लेकिन अब दायरा सिर्फ भिंड, मुरैना, ग्वालियर, गुना, शिवपुरी, दतिया, धौलपुर के बच्चों तक ही सिमट गया है.’
उन्होंने बताया कि सेना की तैयारी के लिए आने वाले बच्चों की संख्या करीब आधी रह गई है. उनके ट्रेनिंग सेंटर में अग्निवीर बैच में बच्चों की संख्या बहुत कम रह गयी है.
शहर के एसएफ ग्राउंड में चलने वाले एक अन्य ट्रेनिंग सेंटर के प्रशिक्षक सूरज का कहना है, ‘85 फीसदी बच्चों ने सेना से किनारा कर लिया है. पहले मेरे सेना के बैच में 100-200 बच्चे हुआ करते थे, आज की तारीख में बस 10-15 बच्चे आ रहे हैं.’
यही स्थिति मुरैना के जौरा तथा कैलारस, और भिंड के अंबाह स्थित ट्रेनिंग सेंटर्स में देखी गई.
जौरा में करह सरकार फिजिकल एकेडमी चलाने वाले गिर्राज सिंह बैंस बताते हैं कि एक समय जौरा के करीब एक हजार बच्चे सेना की तैयारी करते थे, आज संख्या 100-200 तक सिमट गई है. वहीं, उनकी एकेडमी में आने वाले अभ्यर्थियों की वर्तमान संख्या 300-400 के बीच है, जिसमें अग्निवीर करीब 100 हैं. बैंस के मुताबिक, योजना आने से पहले सबसे ज्यादा संख्या सेना के बैच में ही हुआ करती थी.
वहीं, कैलारस स्थित आरिफ पठान के सेंटर में पहले सेना के बैच में 40-50 बच्चे हमेशा हुआ करते थे. वर्तमान अग्निवीर बैच में सिर्फ 5 लड़के हैं.
गौरतलब है कि एनडीए, आईटीबीपी, सीआरपीएफ, बीएसएफ में भर्ती के लिए अधिकतम आयु सीमा 19 से 23 वर्ष के बीच है, वहीं अग्निवीरों के लिए भर्ती की आयु 17.5 से 21 वर्ष निर्धारित है. अत: सेना से जब एक ‘अग्निवीर’ 21.5 से 25 वर्ष के बीच सेवानिवृत्त होगा, तो इन परीक्षाओं के लिए पात्रता खो देगा.
अग्निवीर योजना आने से पहले वर्ष 2017-18 से 2019-20 के बीच तीन सालों में समूचे मध्य प्रदेश से सेना में जाने वाले युवाओं की कुल संख्या 7,025 रही थी. संसद में प्रस्तुत आंकड़ों के मुताबिक, वर्ष 2017-18 में 2,352; 2018-19 में 1,570 और 2019-20 में 3,103 युवा राज्य से सेना में भर्ती हुए थे.
द वायर ने बीते दो वर्षों में अग्निपथ योजना के तहत भिंड, मुरैना और ग्वालियर ज़िलों से सेना में भर्ती किए गए युवाओं की संख्या का पता लगाने के लिए ग्वालियर स्थित सेना भर्ती कार्यालय से संपर्क किया, लेकिन कार्यालय ने इस संबंध में कोई भी जानकारी देने से इनकार कर दिया.
चार साल बाद न रोजगार और न परिवार
अग्निपथ योजना में अग्निवीरों का अविवाहित होना अनिवार्य है. योजना में एक खंड है:
‘केवल अविवाहित उम्मीदवार ही अग्निवीर के तौर पर पंजीकरण कराने के पात्र होंगे और चार साल की सेवा अवधि के दौरान शादी नहीं कर सकेंगे. जो शादी करेंगे, उन्हें सेवा से मुक्त कर दिया जाएगा. इसके अलावा, केवल अविवाहित अग्निवीर ही नियमित कैडर में सिपाही या समकक्ष पद के लिए वापस भर्ती/नामांकन के पात्र होंगे.‘
लेकिन चंबल, विशेष तौर पर ग्वालियर के ग्रामीण क्षेत्र और भिंड-मुरैना में अमूमन कम उम्र में शादी कर दी जाती है. वर्दी मिलते ही शादी की तैयारियां शुरू हो जाती हैं.
गिर्राज का कहना है, ‘यहां 25 साल का लड़का तो बूढ़ा समझा जाता है. मां-बाप की सोच होती है कि लड़का 10वीं-12वीं पास करे और सेना में भर्ती होते ही शादी कर दें.’
अग्निवीर भले शादी न कर सकें, रिश्ता तो पक्का कर सकते हैं. लेकिन अस्थायी नौकरी के चलते रिश्ता आसानी से नहीं मिलता. ‘दो साल में किसी अग्निवीर का मुरैना में रिश्ता पक्का नहीं हुआ है. मेरे पास लड़की वालों के फोन आते हैं कि कोई फौज/फोर्स में हो तो बताओ, लेकिन अग्निवीर न हो,’ गिर्राज कहते हैं.
आरिफ पठान कहते हैं, ‘यहां 20-21 की आयु में शादी हो जाती है. कई शादीशुदा मेरे पास अन्य भर्तियों की तैयारी के लिए आते हैं, किसी के तो बच्चे भी हैं. इसलिए यह डर भी है कि 25 साल के सेवानिवृत्त ‘बेरोजगार’ अग्निवीर से कौन रिश्ता जोड़ेगा? उस पर तो नौकरी जाने और अविवाहित रह जाने की दोहरी मार पड़ेगी.’
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