जनतंत्र जनता के निर्माण का एक अभियान है जो कभी थमता नहीं

मौन उस वक़्त भाषा का सबसे बड़ा गुण हो जाता है जब सबसे अभ्यर्थना और जय-जयकार की मांग हो रही हो. जब सारे हाथ उठे हों, तो अपना हाथ बांधे रख सकना भी एक अभिव्यक्ति है. हिंदी कविता और जनतंत्र पर इस स्तंभ की सातवीं क़िस्त.

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(इलस्ट्रेशन: परिप्लब चक्रवर्ती/द वायर)
(इलस्ट्रेशन: परिप्लब चक्रवर्ती/द वायर)

परम गुरु
दो तो ऐसी विनम्रता दो
कि अंतहीन सहानुभूति की वाणी बोल सकूं
और यह अंतहीन सहानुभूति
पाखंड न लगे.

दो तो ऐसा कलेजा दो
कि अपमान, महत्त्वाकांक्षा और भूख
की गांठों में मरोड़े हुए
उन लोगों का माथा सहला सकूं
और इसका डर न लगे
फिर कोई हाथ ही काट खाएगा.

दो तो ऐसी निरीहता दो
कि इस दहाड़ते आतंक के बीच
फटकार कर सच बोल सकूं
और इसकी चिंता न हो
कि इस बहुमुखी युद्ध में
मेरे सच का इस्तेमाल
कौन अपने पक्ष में करेगा.

यह भी न दो
तो इतना ही दो
कि बिना मरे चुप रह सकूं.

विजय देवनारायण साही के संग्रह ‘साखी’ की अंतिम कविता है: ‘प्रार्थना: गुरु कबीरदास’ के लिए. चुनावी कोलाहल के बीच इस कविता ने ध्यान खींचा. चुनावी शोर यानी शब्दों, भाषा का चौतरफ़ा प्रहार. ऐसी भाषा हमला करती है, चोट पहुंचाती है, विभाजित करती है.

इसके पक्ष में कहा जा सकता है कि चुनावी भाषा की यह बाध्यता है. उसमें दो पक्ष होते हैं. अपने पक्ष के साथ दूसरे पक्ष का भी निर्माण करना पड़ता है. वह पक्ष जिसके ख़िलाफ़ नहीं तो जिसके बरक्स अपना पक्ष निर्मित किया जाना है. उसे छोटा दिखलाना, किसी भी तरह ग़लत साबित करना चुनावी भाषा का कर्तव्य है. इसलिए चुनावी भाषा में कटुता, आक्रामकता का होना लाज़िमी है. वह विभेदकारी होगी ही, वह एक पक्ष को कमजोर करने के मक़सद से ही इस्तेमाल की जाएगी.

भारत के पहले आम चुनाव में एक सभा में बोलते हुए जवाहरलाल नेहरू कहते हैं कि यह बात तो उनकी समझ में आती है कि चुनावी भाषणों में कुछ कड़वाहट होगी, लेकिन वे यह देखकर हैरान हैं कि लोग ऐसी भाषा का इस्तेमाल कर रहे हैं जिसमें झूठ और हिंसा है. नेहरू को थोड़ी आक्रामकता से परहेज़ नहीं, लेकिन वे असभ्य भाषा को बर्दाश्त नहीं कर पाते. ऐसी ग़ैरज़िम्मेदार भाषा जो नुक़सान पहुंचाती है वह सिर्फ़ चुनाव तक महदूद नहीं रहता, समाज को तोड़कर रख देता है.

कविता पर लौट आएं. इसे आम तौर पर एक व्यक्ति की प्रार्थना के रूप में पढ़ा जा सकता है. किसी भी स्थिति में रह रहे व्यक्ति की अपनी भाषा के लिए प्रार्थना.ले किन इसे एक सामाजिक भाषा की खोज की कविता के रूप में भी पढ़ सकते हैं. या और आगे बढ़कर कहें तो एक राजनीतिक भाषा की तलाश की कविता की तरह. और आगे बढ़ें तो जनतांत्रिक भाषा का संधान करनेवाली कविता.

यह भाषा जो मुझे बनाती है. यह कविता एक तरह से जनतांत्रिक भाषा और जनतांत्रिक व्यक्ति की खोज की कविता है. जनतांत्रिक व्यक्ति आख़िरकार अपनी भाषा के माध्यम से ही किसी को समझ में आता है.

कबीरदास का नाम यहां मानीखेज है. कबीर की प्रसिद्धि उनकी भाषा के बेलौसपन या बेधड़कपन के कारण है. कबीर का मतलब है ऐसा आलोचक जो किसी का ख़याल या लिहाज़ नहीं करता. वह सत्य से प्रतिबद्ध है. इसकी परवाह उसे नहीं कि उसकी बोली की नोंक किसे चुभती है. कबीरी बानी का मतलब है ईमानदार ज़बान, वह जो रणनीति नहीं जानती.

अगले ज़माने के सयानों की सलाह है बोलते समय स्थान काल पात्र का ध्यान रखने की. लेकिन कबीर परंपरा इसे नहीं मानती. वह जो देखती है, उसे बोलने को बाध्य है. लोक परंपरा में कबीर आलोचक के रूप में ही जाने जाते हैं.

जनतांत्रिक भाषा या जनतंत्र के लिए उपयुक्त भाषा का मुख्य काम क्या आलोचना है? या जैसा फासीवादी भाषा के अध्येता विक्टर क्लेमपेरर लिखते हैं, प्रत्येक भाषा को समस्त मानवीय आवश्यकताओं को पूरा करने की क्षमता (या इच्छा?) रखनी चाहिए. वह तर्कशील प्रवृत्ति को संतुष्ट करती है, लेकिन भावना को भी, यह संप्रेषण है और संवाद भी, यह एकालाप है और प्रार्थना भी, यह इल्तिजा है, आदेश और उद्बोधन भी है.

यह बात जनतांत्रिक भाषा पर भी लागू होगी. उसका काम जन के निर्माण का है. जन अपनी पूरी गरिमा में ख़ुद को हासिल कर सके और दूसरों के सामने उद्घाटित भी कर सके. एकांत और सार्वजनिकता, दोनों में. यानी जनतांत्रिक भाषा को व्यक्ति का एकांत स्वीकार करना चाहिए और उसे मात्र उसकी सार्वजनिकता में रहने के लिए बाध्य नहीं करना चाहिए.

क्लेमपेरर नाज़ी या फासीवादी भाषा के बारे में कहते हैं कि वह किसी को निजता देने के लिए तैयार नहीं: ‘तुम कुछ नहीं हो, तुम्हारे लोग ही सब कुछ हैं.’ तुम हमेशा अपने लोगों की निगरानी में हो.

भाषा जनतांत्रिक वह है जो मुझे मेरा एकांत देती है, लेकिन मुझे अकेला, एकाकी नहीं करती. उस एकांत में हमेशा एक झरोखा है, एक दरवाज़ा है. जिसे मैं अपनी मर्ज़ी से खोल सकता हूं लेकिन जिसे कोई खटखटाए तो उसे भीतर आ पाने का आश्वासन भी हो. या जिस दरवाज़े के पीछे अपने एकांत में रहते हुए मुझे किसी खटखटाहट का इंतज़ार भी हो. भाषा हमेशा एक संभावना है, रिश्ता बनाने की, उसे खोजने की.

साही की कविता पढ़ते हुए शायद मैं कहीं और निकल गया. शायद मैं इस कविता की अतिव्याख्या कर रहा हूं. कविता तीन गुणों की कामना की कविता है:

परम गुरु
दो तो ऐसी विनम्रता दो
कि अंतहीन सहानुभूति की वाणी बोल सकूं
और यह अंतहीन सहानुभूति
पाखंड न लगे.

विनम्रता पहला गुण है. उससे ही संभव है अंतहीन सहानुभूति की वाणी, यानी वह जो हर किसी के लिए है, हर परिस्थिति के लिए है. सिर्फ़ अपने या अपने जैसे लोगों के लिए नहीं. मात्र अपने देश, राष्ट्र, वर्ग, अपनी जाति, अपनी भाषा, अपनी जेंडर पहचान तक जो सीमित न हो.
लेकिन यह अंतहीन सहानुभूति अर्थपूर्ण होनी चाहिए. ज़बानी जमाख़र्च नहीं. उसका एक क्रियात्मक पक्ष है. उससे हीन वह पाखंड बन जाती है.

दूसरा गुण भाषा का या व्यक्ति का निष्कवच साहस का होना चाहिए. जनतांत्रिक कर्तव्य है उन सबके पास जाना जो ‘अपमान, महत्त्वाकांक्षा और भूख की गांठों में मरोड़े हुए’ हुए हैं. अपमान और भूख के साथ ‘महत्त्वाकांक्षा’ पर ध्यान देना चाहिए. क्या यह असंगत है? जो महत्त्वाकांक्षा से सताए हैं, वे भी तो सहानुभूति के हक़दार हैं!

जब मैं किसी का माथा सहलाने जाऊं तो हमेशा प्रतिदान की अपेक्षा के साथ नहीं. गांधी नोआख़ाली में थे या फिर दिल्ली में तो क्या वे नहीं जानते थे कि उन्हीं में से कोई उनकी हत्या कर सकता है जिनके लिए वे मारे-मारे फिर रहे हैं? क्या जिसने नाथूराम को भेजा था गांधी की हत्या के लिए वह नहीं जानता था कि गांधी ने नोआख़ाली में हिंदुओं के लिए अपनी जान की बाज़ी लगा दी थी?

सहानुभूति के लिए शर्त की ज़रूरत नहीं. क्या किसी राजनीतिक दल को किसानों के लिए इसलिए बोलना बंद कर देना चाहिए कि वे उसे वोट नहीं देते?

अंतहीन सहानुभूति के लिए विनम्रता के साथ बड़ा कलेजा भी होना चाहिए. और फिर सच देखने और बोलने की ताक़त:

इस दहाड़ते आतंक के बीच
फटकार कर सच बोल सकूं
और इसकी चिंता न हो
कि इस बहुमुखी युद्ध में
मेरे सच का इस्तेमाल
कौन अपने पक्ष में करेगा.

मुझे इन पंक्तियों को पढ़ते हुए रूसी लेखक मैक्सिम गोर्की याद आ गए. अपने मित्र व्लादिमीर लेनिन के नेतृत्व में की जा रही ‘बोल्शेविक क्रांति’ की क्रूरता के ख़िलाफ़ वे बेहिचक लिख रहे थे. उन पर इल्ज़ाम लगा कि पूंजीवादी दुनिया उनके लिखे का इस्तेमाल क्रांति के ख़िलाफ़ कर सकती है, लेकिन इस बात से गोर्की विचलित नहीं हुए. उन्हें सच को लेकर उस वक्त कोई दुविधा नहीं थी. जब सुविधाजनक सत्य ही बोला जाता है तो वह सत्य की सत्ता को ही समाप्त कर देता है. असुविधाजनक सत्य इसका इंतज़ार नहीं करता कि उसके लिए मुनासिब वक्त कौन सा होगा.

अगर यह सब न हो तो बिना मरे चुप रहने का वरदान ही मिले. मौन उस वक्त भाषा का सबसे बड़ा गुण हो जाता है जब सबसे अभ्यर्थना और जय-जयकार की मांग हो रही हो. जब सारे हाथ उठे हों, तो अपना हाथ बांधे रख सकना भी एक अभिव्यक्ति है.

जनतंत्र आख़िरकार सहानुभूति की अंतहीन खोज है. एक जनता के निर्माण का अभियान है जो कभी किसी बिंदु पर रुकता नहीं, जिसका कोई आख़िरी पड़ाव नहीं. इस यात्रा के पाथेय हैं विनम्रता, दुख को पहचानने की शक्ति, निष्कवच साहस और ईमानदारी.

(लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय में पढ़ाते हैं.)

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