भूमंडलीकरण की बाज़ारोन्मुख आंधी में कट्टरता और सांप्रदायिकता अयोध्या के बाज़ार की अभिन्न अंग बनीं तो अभी तक बनी ही हुई हैं.
अयोध्या को छूकर बहने वाली सरयू में छह दिसंबर, 1992 की त्रासदी के बाद भी ढेर सारा पानी बह चुका है. फिर भी यह सच है कि बदलने को नहीं आ रहा कि उस दिन बाबरी मस्जिद का ढहाया जाना एक इब्तिदा भर थी और उसके साथ चल निकला प्रगतिशील सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक व संवैधानिक मूल्यों के ध्वंस का सिलसिला अभी तक जारी है.
हां, इधर ‘नया भारत’ बनाने के अभियानों के बीच यह इतना ‘शातिर’ कहें, ‘शांत और चुपचाप’ या कि ‘बेआवाज़’ हो चला है कि कई कानों को उसकी ख़बर ही नहीं होती.
वैसे ही, जैसे उन्मत्त कारसेवकों द्वारा ‘विवादित’ बाबरी मस्जिद के साथ अयोध्या की 24 अविवादित मस्जिदों पर बोले गए धावों की नहीं हुई थी और जब किशोरों, बूढ़ों व महिलाओं समेत कोई डेढ़ दर्जन लोगों की क्रूर हत्याओं की ही ख़बर नहीं हुई तो उनके 458 घरों व दुकानों में तोड़फोड़ व आगजनी की कैसे होती?
ऐसे में मारे जाने वालों को इस विडंबना से ही कैसे निजात मिल सकती थी कि दुनिया भर के मीडिया के अयोध्या में उपस्थित होने के बावजूद आतताइयों के हाथों उनका जानें गंवाना ख़बर नहीं बन सका.
तभी तो 25 साल बाद भी यह त्रास जस का तस है कि भले ही बाबरी मस्जिद के गुनहगारों पर मुक़दमे चल रहे हैं, उक्त डेढ़ दर्जन निर्दोषों के हत्यारों की खोज का एक भी उपक्रम संभव नहीं हुआ. दिखावे के लिए भी नहीं. मनुष्य के जीवन की इससे बड़ी हेठी भला और क्या हो सकती है?
प्रसंगवश, बाबरी मस्जिद के स्वामित्व संबंधी विवाद में सर्वोच्च न्यायालय का फैसला आना अभी बाकी है, लेकिन ध्वंसधर्मियों ने अपना फैसला पहले ही कर रखा है.
अयोध्या में अब सारे के सारे रास्ते राम जन्मभूमि को ही जाते हैं. बाबरी मस्जिद की तरफ एक भी नहीं जाता.
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रमुख मोहन भागवत अब नए दर्प के साथ कह रहे हैं कि अयोध्या में सिर्फ मंदिर बनेगा, सो भी ‘वहीं’ तो समझा जा सकता है कि केंद्र में नरेंद्र मोदी और उत्तर प्रदेश में योगी आदित्यनाथ की सरकारें बनने के बाद से अब तक का आख़िरी ध्वंस संघ परिवारियों की तथाकथित शर्म का हुआ है.
आजकल वे विवाद के समाधान के नाम पर अपने तमाम खोल उतारकर सद्भाव का जामा पहनने की कोशिशों में मुब्तिला हैं और उसकी बिना पर दूसरे पक्ष का संपूर्ण आत्मसमर्पण चाहते हैं तो लगता है, अपनी जली हुई शर्म की राख झाड़ रहे हैं. लेकिन वे जो भी करें, सबसे बड़ा सवाल यह है कि उनके लिए सुभीते की यह स्थितियां निर्मित कैसे हुईं?
समझने चलें तो याद आता है कि विवाद में एक समय मुख्य बिंदु यह बन गया कि क्या बाबरी मस्जिद किसी मंदिर को तोड़कर बनाई गई थी, तो राष्ट्रपति ने संविधान के अनुच्छेद 143 के अनुसार सुप्रीम कोर्ट से इस बाबत अपनी राय देने को कहा था. उस सुप्रीम कोर्ट से जो बाबरी मस्जिद के ध्वंस को ‘राष्ट्रीय शर्म’ की संज्ञा दे चुका था.
लेकिन 1994 में उसने यह कहकर कोई राय देने से इनकार कर दिया कि अयोध्या एक तूफान है जो गुज़र जाएगा, लेकिन उसके लिए सुप्रीम कोर्ट की गरिमा और सम्मान से समझौता नहीं किया जा सकता.
अयोध्या के इस तूफान के सामने सर्वोच्च न्यायालय ने जैसी दृढ़ता दिखाई, वैसी न दूसरी अदालतों ने दिखाई और न ख़ुद को धर्मनिरपेक्ष कहने वाली शक्तियों व सरकारों ने ही.
इसलिए आज इसकी आड़ में फासीवाद की प्रतिष्ठा कर रहे संघ परिवारियों को कठघरे में खड़े करने की ज़रूरत है तो उनसे लड़ने का दावा करने वालों से यह पूछने की भी कि यह कैसी लड़ाई लड़ रहे हैं वे, जिसमें हर मोर्चे के बाद उनका दुश्मन बढ़ी हुई ताकत के साथ और निरंकुश होकर सामने आ जाता है?
यह प्रश्न भी इसी से जुड़ा हुआ है कि अगर पुरानी रणनीति कारगर सिद्ध नहीं हो रही तो क्या उस पर पुनर्विचार करने और उसके खोट दूर करने का समय नहीं आ गया है? आख़िरकार किसी भी धार्मिक व राजनीतिक संघर्ष में उससे जुड़े सामाजिक व आर्थिक पहलुओं की उपेक्षा करके कैसे विजय पाई जा सकती है?
आख़िर ये शक्तियां कब समझेंगी कि 1986 में फैज़ाबाद की ज़िला अदालत के आदेश पर विवादित ढांचे के ताले खोले जाने, 1989 में विहिप द्वारा ‘वहीं’ मंदिर का शिलान्यास किए जाने, मंडल आयोग की सिफारिशें लागू होने के बाद 1990 में उग्र कारसेवा आंदोलन व 1992 में बाबरी मस्जिद के ध्वंस तक इन पहलुओं की एक लंबी श्रृंखला है.
यह श्रृंखला एक तरफ कांग्रेस द्वारा भाजपा से उसका हिंदू कार्ड छीनने की कोशिशें करने व विफल होने की कहानी कहती है तो दूसरी ओर भूमंडलीकरण की बाज़ारोन्मुख आंधी के अनर्थों तक भी जाती है.
गौरतलब है कि यह बाज़ार जैसे-जैसे ‘खुला’ और ‘उदार’ हुआ, मनुष्य की सामूहिक मुक्ति की भावनाएं कमज़ोर करने लगा और उसका सारा ज़ोर मनुष्य को अलग-थलग व अकेला कर नाराज़ भीडे़ं खड़ी करने व उसकी कुंठाओं व भय को भुनाने पर हो गया. कट्टरता और सांप्रदायिकता इस बाज़ार की अभिन्न अंग बनीं तो अभी तक बनी ही हुई हैं.
यह सिर्फ संयोग नहीं था कि राजीव गांधी के प्रधानमंत्रित्व में नई आर्थिक नीतियों के उद्घोष व विरोध के बीच सरकारी दूरदर्शन ने जनवरी 1987 में हर रविवार की सुबह ‘रामायण’ धारावाहिक का प्रसारण शुरू किया.
आज यह कहना मुश्किल है कि ‘जयसीताराम’ व ‘राम-राम’ जैसे विनम्र अभिवादनों को ‘जय श्रीराम’ की आक्रामकता तक यह धारावाहिक ले गया या विहिप, पर इस पर दोनों की परस्पर निर्भरता काफी कुछ कह देती है.
90-92 में विहिप के जो कारसेवक अयोध्या आए उनमें से अनेक अयोध्या में वहीं धारावाहिक वाली अयोध्या तलाशते थे जो वास्तव में कहीं नहीं थीं.
कारसेवकों में से अधिकांश ऊंची जातियों के और खाए-पीए अघाये वर्ग के थे और मंडल आयोग की सिफारिशें लागू किए जाने से नाराज़ थे. वे कच्ची उम्र के बेरोजगार थे, या फिर अपने रोज़गार से असन्तुष्ट.
अपवाद के तौर पर ही उनमें कोई गरीब या आशिक्षित था. उनके चेहरे पर आमतौर पर गर्व का भाव होता था और वे समझते थे कि अयोध्या में अपनी सेवाएं देकर वे नए इतिहास का निर्माण कर रहे हैं.
धर्मनिरपेक्षता के लिए लड़ने वालों ने उन्हें उनके हाल पर छोड़ देने की गलती की, तो उनके अयोध्या आने से वे संत-महंत बहुत खुश थे जो अब तक उत्तर प्रदेश व बिहार के गांवों-कस्बों के छोटे-बड़े किसानों व दुकानदारों की पीढ़ियों से हासिल हो रही पारंपरिक श्रद्धा व चढ़ावे पर गुज़र-बसर करते थे.
अयोध्या में अमीर कारसेवकों की आमदरफ़्त बढ़ने से उनका बाज़ार बढ़ रहा था और उन्हें इसके लिए विश्व हिंदू परिषद् का कृतज्ञ होने में कोई समस्या नहीं थी.
तब पूंजी का प्रवाह बढ़ने से अयोध्या में नए निर्माणों की झड़ी-सी लग गई थी. पहले जो संत-महंत एक-दो रुपयों के लिए रिक्शेवालों से किच-किच करते दिखते थे, लग्ज़री कारों में नज़र आने लगे और सशस्त्र गार्डों के पहरे में निकलने लगे.
उनका यह रुतबा पर्यटकों व नेताओं के अलावा पत्रकारों के एक समुदाय को भी सुभीते का लगता था. धीरे-धीरे अयोध्या की टूटी-फूटी बेंचों वाली चाय की दुकानें ‘श्रीराम फास्टफूड आउटलेट्स’ में बदलने लगीं और यह सिलसिला जल्दी ही रक्तरंजित इतिहास की पुस्तकों और कारसेवा के दौरान हुई पुलिस फायरिंग के एलबमों, कैसेटों और सीडियों तक जा पहुंचा. जब तक आम लोग इस सबको ठीक से समझते, बहुत देर हो गई थी.
आज, जब इस देरी के कारण देश बेहद ख़तरनाक फासीवादी मोड़ पर आ खड़ा हुआ है, ख़ुद को बहुलतावादी और धर्मनिरपेक्ष कहने वाली शक्तियों ने इन सारे परिप्रेक्ष्यों को उनकी समग्रता में नहीं समझा तो हमारा भावी इतिहास उन्हें क्षमा नहीं करने वाला.
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं और फैज़ाबाद में रहते हैं.)