राष्ट्रवाद एक तरह की क़बीलाई मानसिकता है

राजनीतिक दल अक्सर दूसरे दलों पर वोट बैंक यानी किसी ख़ास समुदाय की राजनीति करने का आरोप लगाते हैं. लेकिन वे भूल जाते हैं कि यह इल्ज़ाम लगाते वक्त वे उस जनता से रिश्ता तोड़ देते हैं जिसे वे अपने प्रतिद्वंद्वी का वोट बैंक कहकर लांछित कर रहे हैं. कविता और जनतंत्र पर इस स्तंभ की आठवीं क़िस्त.

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(इलस्ट्रेशन: परिप्लब चक्रवर्ती/द वायर)
(इलस्ट्रेशन: परिप्लब चक्रवर्ती/द वायर)

हम एक जन बन सकेंगे
अगर हम चाहें
जब हम सीख लेंगे कि हम फ़रिश्ते नहीं
और शैतानियत सिर्फ़ दूसरों का विशेषाधिकार नहीं.

हम एक जन बन सकेंगे
जब हम हर उस वक़्त
पवित्र राष्ट्र को शुक्राना देना बंद करेंगे
जब भी एक ग़रीब शख़्स को रात की एक रोटी मिल जाए.

हम एक जन बन सकेंगे
जब हम सुल्तान के चौकीदार और सुल्तान को
बिना मुक़दमे के ही पहचान लेंगे.

हम एक जन बन सकेंगे
जब एक शायर एक रक्कासा की नाभि का वर्णन कर सकेगा.

हम एक जन बन सकेंगे
जब हम भूल जाएंगे कि हमारे क़बीले ने क्या कहा है हमें
और जब वाहिद शख़्स छोटे ब्योरे की अहमियत भी पहचान सकेगा.

हम एक जन बन सकेंगे
जब एक लेखक सितारों की ओर सिर उठा कर देख सकेगा
बिना यह कहे कि हमारा देश अधिक महान है और अधिक सुंदर.

हम एक जन बन सकेंगे
जब नैतिकता के पहरेदार सड़क पर एक तवायफ़ को हिफ़ाज़त दे पाएंगे
पीटने वालों से.

हम एक जन बन सकेंगे
जब फ़िलिस्तीनी अपने झंडे को सिर्फ़ फुटबॉल के मैदान में
ऊंट दौड़ में
और नकबा के रोज़ याद करे.

हम एक जन बन सकेंगे
अगर हम चाहें
जब गायक को एक दो मज़हबों के लोगों की शादी के वलीमा पर
सूरत अल रहमान पढ़ने की इजाज़त हो.

हम एक जन बन सकेंगे
जब हमें तमीज हो सही और ग़लत की.

महमूद दरवेश की यह कविता (संकलन – ‘A River Dies of Thirst’) पिछले कुछ सालों से बार-बार याद आती रही है. भारत नाम के जनतंत्र में जन का विघटन होते देख, दूर एक ऐसे वतन फ़िलिस्तीन के शायर की आवाज़ सुनाई पड़ती है जो अभी सिर्फ़ ख़यालों में है. उस शायर की, जिसके लोगों की अपने वतन की तमन्ना से दुनिया के सारे ताकतवर मुल्क इतना खफा हैं कि वे उन लोगों को ही, उस जनता को ही बमों से उड़ा देना चाहते हैं.

शायर क्यों और कैसे अपने वक्त में रहता है और उससे कई कदम आगे भी, यह महमूद दरवेश की इस कविता को पढ़कर समझ में आता है. जिस कवि की जनता को उसके पड़ोसी इंसानियत का हक़ नहीं दे रहे हैं, वह उस वक्त भी यह सोच सकता है और अपने लोगों को कह सकता है कि:

हम एक जन बन सकेंगे
अगर हम चाहें
जब हम सीख लेंगे कि हम फ़रिश्ते नहीं
और शैतानियत सिर्फ़ दूसरों का विशेषाधिकार नहीं.

जनतंत्र इतिहास के एक क्षण में घटित होने वाली एक परिघटना नहीं, वह एक प्रक्रिया है. उसी प्रकार जन का गठन या निर्माण भी किसी एक घोषणा के ज़रिये, किसी संविधान को स्वीकार कर लेने मात्र से नहीं हो जाता. वह भी एक लंबी प्रक्रिया है. समय- समय पर होने वाले चुनाव भी इस जन या जनता के गठन का एक अवसर हैं. चुनाव एक ऐसा वक्त है जब समाज के लोग एक दूसरे से संवाद करते हैं. इस संवाद के क्रम में जन का निर्माण होता है.

हम प्रायः राजनीतिक दलों को दूसरे दलों पर यह आरोप लगाते हुए देखते हैं कि वे वोट बैंक बना रहे हैं. अलग- अलग वोट बैंक यानी अलग- अलग हितों के समुदाय जिनमें एक दूसरे से समानता ही नहीं, बल्कि विरोध है. लेकिन वे यह भूल जाते हैं कि ख़ुद जब वे इल्ज़ाम लगाते होते हैं तो वे उस जनता से रिश्ता तोड़ते हैं जिसे वे अपने प्रतिद्वंद्वी का वोट बैंक कहकर लांछित कर रहे हैं.

यह कविता लेकिन इससे बड़े सवाल की कविता है: जन होते हैं या गठित किए जाते हैं? ध्यान से पढ़ें, यह कविता जन के होने की नहीं, ‘एक जन’ होने की शर्तों की कविता है. राष्ट्र ‘एक जन’ के ख़याल पर टिका हुआ है. किन शर्तों को पूरा करने भारत के लोग ‘एक जन’ बन सकेंगे? या अमरीका के लोग? या फ़िलिस्तीन के लोग ही?

प्रायः नेता अपनी जनता को श्रेष्ठता भाव और विशेषाधिकार का भ्रम देते हैं. वे ख़ुद को उस विशेषाधिकार के संरक्षक के तौर पर पेश करते हैं और जनता को उसे छीन लिए जाने की साज़िशों से सावधान रहने की चेतावनी देते हैं. लेकिन शायद उन्हें इस भ्रम से आज़ाद करते हुए कहना है कि उन्हें मालूम होना चाहिए कि वे फ़रिश्ते नहीं, बल्कि वे भी शैतान हो सकते हैं. किसी भी जनता में कोई आंतरिक गुण या दोष नहीं होते. इस समझ से विनम्रता और आत्मनिरीक्षण की सावधानी पैदा होती है.

इन पक्तियों को पढ़ते हुए मुझे आज से कोई 95 साल पहले लिखे गए भगत सिंह के एक निबंध की याद आ गई जिसमें उन्होंने जवाहरलाल नेहरू और सुभाष चंद्र बोस के विचारों की तुलना की है. नेहरू अपने मित्र सुभाष के विचारों की आलोचना करते हुए कहते हैं कि प्रत्येक राष्ट्र के पास दुनिया को देने के लिए कोई ख़ास संदेश है. यही सुभाष बाबू को लगता है, लेकिन ख़ुद उन्हें अपने देश में कोई ख़ास बात नज़र नहीं आती जो किसी दूसरे मुल्क में न हो.

यह बात दो राष्ट्रों के लिए जितनी ठीक है उतनी ही उन लोगों के लिए जो किसी धर्म, भाषा की समानता के कारण ख़ुद को एक तरह के लोग मानते हैं. क्या हिंदू आंतरिक रूप से सहिष्णु हैं, क्या मुसलमान अनिवार्यत: बराबरी के उसूल में यक़ीन करते हैं और क्या ईसाई स्वभावत: करुणाशील होते हैं? या क्या आदिवासी किसी प्रकार की शत्रुता के विचार से परे होते हैं? क्या दक्षिण भारतीय प्रगतिशील और हिंदीभाषी दक़ियानूस होते हैं? क्या जापानी क्रूर होते हैं और अंग्रेज सभ्य?

जवाहरलाल नेहरू ने पत्रकार आरके करंजिया को एक इंटरव्यू में कहा था कि अपनी जापान यात्रा में उन्होंने देखा जापानी लोग कितने विनम्र, सभ्य, परिश्रमी होते हैं. उन्हें देखकर यह कल्पना करना मुश्किल था कि अभी कुछ बरस पहले जापानियों ने चीनी या कोरियाई लोगों के साथ कितनी क्रूरता की थी. नेहरू महमूद दरवेश की तरह ही करंजिया को कहते हैं कि प्रत्येक जन में फ़रिश्ता और शैतान होने की संभावना रहती है.

कविता एक दूसरे प्रश्न पर भी विचार करती है. वह है राष्ट्र और जन का रिश्ता. क्या जन को मान्यता तभी मिलेगी जब वह लगातार, सुबह शाम राष्ट्र से अपनी वफ़ादारी का ऐलान करता रहे? क्या हम हमेशा राष्ट्र को अपने जीवन के लिए कृतज्ञता अर्पित करते रहें? महमूद दरवेश इससे सहमत नहीं:

हम एक जन बन सकेंगे
जब हम हर उस वक़्त
पवित्र राष्ट्र को शुक्राना देना बंद करेंगे
जब भी एक ग़रीब शख़्स को रात की एक रोटी मिल जाए.

संप्रभु लोग हैं, जन हैं. राष्ट्र वे बनाते हैं, राष्ट्र उन्हें जन्म नहीं देता.

जैसे नेहरू वैसे ही महमूद दरवेश को मालूम था कि उपनिवेशवाद से लड़ते हुए संकीर्णता और श्रेष्ठता, दोनों भाव हमें ग्रस सकते हैं. हमें यह लग सकता है कि अकेले हमारे साथ ही अन्याय हुआ है और हम भूल सकते हैं कि हमारे भीतर भी अन्याय की पर्याप्त क्षमता है. उपनिवेशवाद से संघर्ष करते हुए अपने देश में अच्छाई खोजना शायद वक्ती ज़रूरत हो, लेकिन मेरा देश सबसे महान है या मेरा झंडा विश्व को विजय करने वाला है या उसे ऐसा करना चाहिए, यह एक हीन विचार है.  यह हमें दूसरों की अच्छाई या अनेक गुणों को देखने और सराहने से रोक देता है. यहां तक कि हम कुदरत को भी आज़ाद निगाहों से नहीं देख पाते:

हम एक जन बन सकेंगे
जब एक लेखक सितारों की ओर सिर उठा कर देख सकेगा
बिना यह कहे कि हमारा देश अधिक महान है और अधिक सुंदर.

एक जन बनना यानी राष्ट्रवाद के दबाव से ख़ुद को आज़ाद करना. राष्ट्रवाद एक तरह की क़बीलाई मानसिकता ही है. लेकिन ‘एक जन’ की बुनियाद है लाखों, करोड़ों अलग- अलग जन. वे सब जो अलग- अलग वाहिद शख़्स हैं.

व्यक्ति बुनियादी इकाई है इस जन की. हर किसी की आवाज़ की अहमियत है. किसी तस्वीर को देखते वक्त, किसी उपन्यास को पढ़ते समय हम छोटे से छोटे तथ्य, ब्योरे को नज़रअंदाज़ नहीं कर सकते:

हम एक जन बन सकेंगे
जब हम भूल जाएंगे कि हमारे क़बीले ने क्या कहा है हमें
और जब वाहिद शख़्स छोटे ब्योरे की अहमियत भी पहचान सकेगा.

अलग- अलग, भिन्न- भिन्न लोगों के एक दूसरे में विलय से ‘एक जन’ नहीं बनता. वह बनता है इनके एक दूसरे से भावनात्मक रिश्ता बनाने की इच्छा से. और उस रिश्ते को समाज की मान्यता से. क्या वह रिश्ता सबको क़बूल है:

हम एक जन बन सकेंगे
अगर हम चाहें
जब गायक को एक दो मज़हबों के लोगों की शादी के वलीमा पर
सूरत अल रहमान पढ़ने की इजाज़त हो.

एक जन बनना हमारी इच्छा पर है: अगर हम चाहें. संबंध बनाने की इच्छा. और अपने से नितांत भिन्न से रिश्ता बनाने की प्रस्तुति. समाज द्वारा उस इच्छा को पवित्रता मानने की तैयारी.

जनों का ‘एक जन’ बनना इसलिए एक तैयारी है, एक सफ़र है, एक प्रक्रिया है, एक प्रयत्न है. इन सबका आधार एक बहुत मामूली, लेकिन सबसे मुश्किल चीज़ का होना है: विवेक. और न्याय बोध:

हम एक जन बन सकेंगे जब हमें तमीज हो सही और ग़लत की

आमीन!

(लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय में पढ़ाते हैं.)

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