रायपुर/नई दिल्ली: छत्तीसगढ़ के बस्तर इलाके में आदिवासियों को एक बार फिर भेदभाव का शिकार होना पड़ा है. बस्तर जिले के दरभा क्षेत्र के छिंदबहार गांव के निवासी ईश्वर कोर्राम की मृत्यु पच्चीस अप्रैल को हुई थी, लेकिन ग्रामीणों ने यह कहकर गांव में उनका अंतिम संस्कार नहीं होने दिया कि वह ईसाई धर्म अपना चुके थे. उनके बेटे सार्तिक कोर्राम पुलिस के पास गये, लेकिन जब कोई मदद नहीं मिली उन्हें अंततः बिलासपुर हाईकोर्ट का दरवाजा खटखटाना पड़ा.
सत्ताईस अप्रैल को दिए अपने फैसले में जस्टिस राकेश मोहन पांडेय ने रामायण के इस श्लोक का उल्लेख किया: ‘मित्राणि धन धान्यानि प्रजानां सम्मतानिव, जननी जन्म भूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी.’ यानी मित्र, धन, धान्य आदि का संसार में बहुत अधिक सम्मान है, लेकिन माता और मातृभूमि का स्थान स्वर्ग से भी ऊपर है. अदालत ने यह भी कहा कि भारतीय संविधान के अनुच्छेद 21 में किसी व्यक्ति को सम्मानपूर्वक अंतिम संस्कार का अधिकार शामिल है. कोर्ट ने अपने फैसले में कहा कि जीवन के अधिकार का तात्पर्य है, मानवीय गरिमा के साथ एक सार्थक जीवन जिसमें मृत्यु का संस्कार भी शामिल है.
अदालत के निर्देश के बाद जाकर उन्हें अगले दिन गांव में दफनाया जा सका. इस तरह ईश्वर के पार्थिव शरीर को अपने ही गांव में दो गज़ ज़मीन के लिए पूरे तीन दिन इंतज़ार करना पड़ा.
ईश्वर कोर्राम ने कुछ समय पहले ईसाई धर्म अपनाया था. इसलिए गांव के आदिवासी उनके शव को दफनाने का विरोध कर रहे थे.
ऐसी ही घटना पिछले साल कांकेर जिले में भी सामने आयी थी जब ग्रामीणों ने एक आदिवासी महिला के अंतिम संस्कार का विरोध किया था जिन्होंने कुछ समय पहले ईसाई धर्म अपनाया था. पुलिस के हस्तक्षेप के बाद ही अंतिम संस्कार हो सका था. बीते साल 2 नवंबर को नारायणपुर जिले के एक गांव में तेरह वर्षीय किशोरी सुनीता की टाइफाइड से मृत्यु हो गयी. जब उस लड़की का अंतिम संस्कार किया जाने लगा, गांव के कई लोगों ने उन्हें ईसाई धर्म के अनुसार क्रिया कर्म करने से रोका था. ग्रामीणों ने कहा कि अगर आपको गांव की ज़मीन पर अंतिम संस्कार करना है तब आपको आदिवासियों की रीतियों के अनुसार करना होगा. बाद में लड़की का अंतिम संस्कार गांव से दस किलोमीटर दूर नारायणपुर जिला मुख्यालय के समीप किया गया.
द वायर से बात करते हुए छत्तीसगढ़ क्रिश्चियन फोरम के अध्यक्ष अरुण पन्नालाल ने बताया कि यह कोई नयी घटना नहीं है. ऐसे मामले पूरे छत्तीसगढ़ से सामने आ रहे हैं, जहां आदिवासी ईसाइयों की मौत के बाद उनके गांव में उनका अंतिम संस्कार करने के लिए परिवार वालों को काफी मुश्किलों का सामना करना पड़ता है. पन्नालाल ने बताया कि जब मदद के लिए परिवार पुलिस के पास जाता है तो पुलिस उन्हें किसी अन्य गांव में अंतिम संस्कार करने की सलाह देती है. ‘कई बार अंतिम संस्कार के बाद कब्र में से मृतकों के शरीर को बाहर निकाल कर फेंक दिया जाता है, और पुलिस कुछ भी नहीं करती है, यहां तक कि कई मामलों में लाश को बाहर निकालने में लोगों की मदद भी करती है’, पन्नालाल ने कहा.
पन्नालाल ने ईश्वर कोर्राम वाले मामले में हाई कोर्ट के फैसले का स्वागत करते हुए कहा कि ‘हाई कोर्ट ने हमारे पक्ष में आदेश जारी किया है.’ उन्होंने कहा, ‘हाई कोर्ट का यह फैसला एक ख़ास केस के लिए है, लेकिन ऐसी घटनाएं पूरे छत्तीसगढ़ से सामने आ रही हैं. हम हाई कोर्ट में एक याचिका दायर करने जा रहे हैं जहां इन सारे मामलों का जिक्र करेंगे और कोर्ट से आग्रह करेंगे कि वह ऐसा आदेश पारित करे जिससे सारे पुलिस थानों को निर्देश जारी किए जाएं कि अगर कहीं भी इस तरह की घटना हो रही है तो उसको रोका जाए और किसी भी आदिवासी ईसाई को मरने के बाद सम्मानपूर्वक अंतिम संस्कार नसीब हो, जो भारत के हर नागरिक का जन्मसिद्ध अधिकार है.’
भाजपा की भूमिका
पिछले वर्षों में बस्तर के आदिवासी क्षेत्र में ऐसे कई मामले सामने आए हैं. इनमें से कई मामलों में संघ परिवार की भूमिका साफ़ देखी जा सकती है. साल 2022 के आखिरी और 2023 के शुरूआती महीनों में नारायणपुर जिले में ईसाई आदिवासियों पर कई हमले किए गए, उनके साथ मारपीट की गई, उन्हें अपने धर्म का पालन करने से रोका गया. 9 से 18 दिसंबर के बीच तक़रीबन 1000 ईसाई आदिवासियों को अपना घर छोड़ना पड़ा. जनवरी 2023 के शुरुआत में भाजपा कार्यकर्ताओं ने एक चर्च के अंदर तोड़फोड़ की थी और पुलिसवालों पर भी हमला कर दिया था. घटना के बाद कई भाजपा नेताओं की गिरफ़्तारी भी हुई थी. उसी दौरान भाजपा के पूर्व विधायक भोजराज नाग ने धर्म परिवर्तन कर चुके आदिवासियों के खिलाफ नारायणपुर में एक रैली निकाली, जिसके दौरान उन्हें वहां से बेदखल करने के नारे लगाए गए थे. छत्तीसगढ़ बचाओ आंदोलन की एक फैक्ट-फाइंडिंग टीम ने पता लगाया था कि भाजपा के नेताओं द्वारा निकाली गई रैलियों में ‘रोको, टोको, ठोको’ जैसे नारे लगाए गए.
अक्टूबर 2022 में सुकमा में ईसाई आदिवासियों के साथ मारपीट के मामले सामने आए थे. जब पीड़ितों ने थाने का रुख किया तो पुलिस द्वारा प्राथमिकी भी दर्ज नहीं की गई. माड़वी जोगा नाम के एक आदिवासी पुलिसकर्मी ने जब अपने वरिष्ठ अधिकारियों से मामले का संज्ञान लेने का अनुरोध किया तब उनके साथ मारपीट की गयी. जोगा से उनके हथियार ले लिए गए और नक्सल-प्रभावित क्षेत्र में उन्हें बिना किसी हथियार के छोड़ दिया गया.
यह स्थिति बस्तर तक सीमित नहीं है. सितंबर 2021 में कुछ लोगों की शिकायत पर दो पादरियों को पूछताछ के लिए राजधानी रायपुर की पुलिस ने थाने बुलाया था. कुछ देर बाद वहां कुछ गुंडे गये और थाने में ही उन दो पादरियों की पिटाई कर दी.
पिछली कांग्रेस सरकार के दौरान धर्मांतरण को लेकर भाजपा लगातार हमलावर रही थी. भाजपा ने कांग्रेस प्रदेश अध्यक्ष और बस्तर के तत्कालीन सांसद दीपक बैज पर धर्मांतरण को बढ़ावा देने का आरोप लगाया था. प्रदेश की वर्तमान भाजपा सरकार धर्मांतरण रोकने के लिए कानून लाने की तैयारी में है. कानून का मसौदा तैयार हो चुका है. इसमें अनुसूचित जनजाति (एसटी) और अनुसूचित जाति (एससी) वर्ग के लोगों का जबरन धर्मांतरण कराने के खिलाफ बेहद सख्त सजा का प्रावधान रखा गया है. ऐसे मामलो में 2 से लेकर 10 वर्ष तक सजा हो सकती है. सामूहिक धर्मांतरण के मामलों में 3 से 10 वर्ष की सजा का प्रावधान रखा गया है.
मार्च में हुए विधानसभा के सत्र के दौरान प्रदेश के धर्मस्व मंत्री बृजमोहन अग्रवाल ने सदन में बताया था कि पूर्ववर्ती कांग्रेस सरकार में धर्मांतरण को लेकर 3,500 से ज्यादा शिकायतें मिली थीं.
आदिवासी जीवन की विडंबना
बस्तर में लंबे समय से काम कर रहे एक राष्ट्रीय समाचार पत्र के वरिष्ठ पत्रकार बताते हैं कि 2008-09 के पहले तक बस्तर में धर्मांतरण कोई मुद्दा नहीं था. इसके बाद ईसाई मिशनरी की सक्रियता बढ़ी. ऐसे में आदिवासी समाज के कुछ लोगों ने ईसाई धर्म अपना लिया. इनके खिलाफ प्रतिरोध बढ़ता गया और धीरे-धीरे बस्तर संभाग की कई पंचायतों ने धर्म परिवर्तन कर चुके लोगों को शव दफनाने के लिए जमीन नहीं देने का फैसला कर लिया. इसी वजह से विवाद की स्थिति बनती है.
बस्तर में धर्म परिवर्तन करने वालों में सबसे बड़ी संख्या महारा समाज के लोगों की है. अगस्त 2023 में केंद्र सरकार ने महारा को अनुसूचित जाति (एससी) में शामिल कर दिया था. महारा बस्तर के मूल निवासियों में शामिल हैं. बस्तर में इनकी कुल आबादी करीब दो से ढाई लाख मानी जाती है, लेकिन भेदभाव और सामाजिक प्रताड़ना के कारण इस समाज के लोगों ने धर्म परिवर्तन करना शुरू कर दिया. महारा आदिवासी समाज का अभिन्न हिस्सा माने जाते हैं. देवी-देवताओं के पूजा- पाठ से लेकर शादी- विवाह के अवसरों पर इन्हें बुलाया जाता है. इन शुभ अवसरों पर मांदरी (वाद्य यंत्र) इसी समाज के लोग बजाते हैं. लेकिन अब यह समुदाय अपनी ही भूमि पर अजनबी होता जा रहा है.