इन दिनों आम चुनाव हो रहे हैं और ख़ासकर सत्तारूढ़ राजनेता बेलगाम भाषण दे रहे हैं. उन्हीं के सबसे बड़े राजनेता ने एक धार्मिक संप्रदाय को निशाने पर लेते हुए उन्हें ‘घुसपैठिया’ क़रार दिया है. संयोगवश, इसी समय मैनेजर पांडेय की पुस्तक ‘दारा शिकोह: संगम-संस्कृति का साधक’ का मरणोत्तर प्रकाशन राजकमल ने किया है. उससे पता चलता है कि दारा शिकोह ने 52 उपनिषदों का फ़ारसी अनुवाद किया था. यह अनुवाद ‘विश्व की किसी भी भाषा में उपनिषदों का पहला अनुवाद था’.
तो भारत के बल्कि हिंदू आध्यात्मिक ज्ञान का विश्व ज्ञान में प्रवेश एक ‘घुसपैठिये’ ने कराया था. दारा शिकोह ने सन 1657 में इन अनुवाद को ‘सिर्रे अकबर’ के नाम से प्रकाशित किया जिसका अर्थ है ‘महान रहस्य’. इस ग्रंथ की एक पांडुलिपि फ्रेंच यात्री बर्नियर अपने साथ यूरोप ले गया. एक फ्रेंच अनुवादक ने उसके दो अनुवाद किए, फ्रेंच और लैटिन में. लैटिन अनुवाद 1801-02 में दो भागों में ‘उपनिखत’ नाम से प्रकाशित हुआ. उसी अनुवाद को जर्मन दार्शनिक शोपेनहावर ने पढ़ा और उपनिषदों के ज्ञान की गहराई और व्यापकता से मुग्ध हुआ.
नोबेल पुरस्कार प्राप्त मेक्सिकन कवि-चिंतक आक्तावियो पाज़ ने अपनी पुस्तक ‘इन लाइट ऑफ इंडिया’ में लिखा है कि ‘दारा शिकोह के अनुवाद के प्रभाव की व्यापकता इतनी थी कि उसमें एक ओर नीत्शे प्रभावित हुआ तो दूसरी ओर इमर्सन भी.’ दारा तो यह भी मानता था कि उपनिषद ईश्वर प्रदत्त पहली किताब है जिसका उल्लेख कुरान में भी है. उसने कुरान का हवाला दिया- ‘कुरान में यह लिखा है कि एक किताब है जो छिपी हुई है. उसको पवित्र व्यक्तियों के अलावा कोई छू नहीं सकता. यह संसार के मालिक या ईश्वर की देन है.’
दारा ने फ़ारसी में रूबाइयां भी लिखी थीं. उनमें से कुछ हिंदी अनुवाद में इस तरह हैं:
‘ऐ, वो कि हर जगह खुदा की तलाश में भटक रहे हो, (क्या तुम्हें मालूम है कि) तुम खुद ही खुदा का हिस्सा हो और उससे जुदा नहीं हो. तुम्हारी खुद की तलाश ऐसी है कि समुद्र में मौजूद एक क़तरा समुद्र को ढूंढ रहा हो.
घड़े के अंदर और बाहर से हवा भरी होती है और घड़े के अंदर आवाज़ गूंजती रहती है. (लेकिन) जब वो टूटकर आवाज़ के साथ बिखर जाता है, तो ऐसा ही होता है जैसे पानी का बुलबुला टूटकर समुद्र हो गया (या समुद्र का हिस्सा हो गया).
पड़ोसी, सहपाठी और हमसफ़र सब वही हैं, भिखारी के कशकोल (कटोरे) और बादशाह के ताज में वही है. प्रजा के सम्मेलन और लोगों के घरों में भी, क़सम उसकी ही है, कसम उसकी, सब वही है.’
दारा के संस्कृत में एक प्रशस्तिपत्र गोस्वामी को लिखा था जो इस पुस्तक में मूल संस्कृत में अविकल हिंदी अनुवाद के साथ प्रकाशित है.
आजकल हिंदुत्व के समर्थन में बहुत वाचाल जो धर्माचार्य हैं वे अपने हृदय सम्राट को ऐसी संस्कृत में पत्र नहीं लिख सकते क्योंकि उनका हिंदू धर्म के साथ-साथ संस्कृत का ज्ञान भी बहुत सतही है. दारा की पक्की धारणा थी कि ‘इस्लाम और हिंदू धर्म दो समुद्रों की तरह हैं जिनके बीच संगम संभव है.’ उसका विशद प्रतिपादन करते हुए दारा ने संस्कृत में एक पूरा ग्रंथ लिखा: ‘समुद्रसंगम’.
यह सब कारनामे एक घुसपैठिये के हैं जिसकी पहल और अवदान को भारतीय बहुलता, ग्रहणशीलता, खुलेपन में यक़ीन रखने वाले लेाग बहुत कृतज्ञता से याद करते हैं. चूंकि वह दिवंगत है इसलिए देश से तो नहीं निकाला जा सकता, लेकिन उनका बस चले तो जो इतिहास बदलने में लगे हैं, इस घुसपैठिये तो स्मृति और पाठ्यपुस्तकों आदि से निकाल सकते हैं!
रुक्मिणी वैभव
कई सदियों से तथाकथित इतिहास राजनीति से इतना आक्रांत है कि वह उसके अलावा अन्य क्षेत्रों से, ज्ञान और सृजन के अहातों से जो राष्ट्र-निर्माण होता है उसे बहुत कम हिसाब में लेते हैं. सच तो यह, फिर भी, है कि ऐसे निर्माण में ज्ञान और सृजन की गहरी और संघर्षशील शिरकत रही है. इस शिरकत के कई तेजस्वी व्यक्तित्व और संस्थाएं हैं. उन्हीं में से एक हैं रुक्मिणी देवी अरुंडेल.
चेन्नई के विख्यात कलाक्षेत्र की, और इसलिए भरतनाट्यम के आधुनिक पुनराविष्कार की संस्थापक के रूप में उन्हें नृत्य के क्षेत्र में अविस्मरणीय माना जाता है, उन्हें भारत में आधुनिकता की एक निर्णायक नेत्री के रूप में प्रायः नहीं देखा जाता. इस समय हम तरह की विस्मृति के दौर में हैं: स्मृति को सुनियोजित रूप से अपदस्थ किया जा रहा है. ऐसे में अंग्रेज़ी में रुक्मिणी देवी पर एक नई पुस्तक का, जो वीआर देविका ने मनोयोग से लिखी है, प्रकाशित होना (नियोगी बुक्स) प्रासंगिक है.
पुस्तक से यह पता चलता है कि कलाक्षेत्र में विकसित भरतनाट्यम की शैली रुक्मिणी देवी के संगीत, प्रकृति और मनुष्येतर प्राणियों के उनके गहरे प्रेम से उपजी थी. जो परिवेश कलाक्षेत्र में बना उसमें सभी धर्मों के प्रति आदर, परिष्कार और स्वच्छता, संयम आदि के भाव सक्रिय थे. दुनिया भर की अपनी यात्राओं ने उन्हें कला में प्रामाणिकता, गहरी स्थानीयता और परंपरा के पुनराविष्कार के लिए प्रेरित किया था.
उनका आग्रह था कि सच्ची संस्कृति सर्जनात्मक होती है और वह अनायास ही अभिव्यक्ति के नए ढंग और नए रूप विकसित करती है. सर्जनात्मक अभिव्यक्ति को कभी सीमित नहीं किया जा सकता, अगर अनुभव उसके पीछे हो. परंपरा में विश्वास या अविश्वास का प्रश्न नहीं उठता: न ही पुराने और नए का मामला होता है. उनका इसरार था कि ‘मैं वह चाहती हूं जो सच हो.’
उनके द्वारा स्थापित और कई वर्षों तक संचालित कलाक्षेत्र, विशेषतः भरतनाट्यम के क्षेत्र में, प्रतिमान रहा है, प्रशिक्षण, उत्तराधिकार और प्रयोग के नाते. वे मानती थीं कि ‘सभ्यता बिना नैतिकता के संभव नहीं है, न ही बिना नैतिकता के कोई धर्म या संस्कृति हो सकते हैं… जबकि संसार में ऐसा कोई देश नहीं है जो क्रूरता से रहित हो, हमारा अंतःकरण जाग सकता है, ताकि हम सोच सकें, समझ सकें और महसूस कर सकें.’
एक आरोप यह लगता रहा है कि उन्होंने शास्त्रीय नृत्य को उसकी ऐन्द्रियता से अलग कर दिया और उसमें देवदासियों के अवदान की उपेक्षा की. कलाक्षेत्र की नृत्यशैली में भक्ति और श्रृंगार के बीच में संतुलन था और जो उस समय की जनरुचि के अनुकूल था.
1958 में राष्ट्रीय नृत्य सेमिनार में रुक्मिणी देवी ने स्पष्ट कहा था: ‘देवदासियों और दूसरों ने जो नाचा, अपने रीति-रिवाज़ों और उन परिस्थितियों के अनुसार जिसमें वे जीते थे, वे निष्ठावाले लोग थे और उत्कृष्ट कोटि के कलाकार. आज भी देवदासियां ही हैं जिनसे हम भरतनाट्यम के लिए अच्छे विचार और सुझाव पा सकते हैं.’
घुसपैठिया हिंदुत्व
जब घुसपैठियों पर बहस चल ही निकली है तब यह मुक़ाम है कि हम हिंदू धर्म स्वयं में जो बाहर से नहीं इसी पुण्यभूमि से उपजा और इन दिनों बहुत तेज़ी से फैल रहा घुसपैठिया हिंदुत्व है, उसे भी हिसाब में लें. यह याद रखना चाहिए कि कई अन्य धर्मों की तरह हिंदू धर्म एकतान नहीं है: उसमें कई संप्रदाय, पंथ आदि हैं.
हिंदू धर्म की इस लगभग जैविक बहुलता को अतिक्रमित कर हिंदुत्व जो एकतानता, एक मंदिर, एक देवता आदि प्रस्तावित कर रहा है उसका कोई तर्कसंगत और आध्यात्मिक औचित्य या प्रतिपादन हिंदू धर्म के किसी संस्थापक ग्रंथ से नहीं मिलता. हमारे यहां तो ‘महाभारत’ में कहा गया है कि वही धर्म अपनाना चाहिए जिसका दूसरे किसी धर्म से विरोध न हो. हिंदुत्व, इसके उलट, अपने को दूसरे धर्मों के विरोध में आक्रामक रूप से अवस्थित करता है. उसके लगभग स्थायी भाव घृणा-असत्य-हिंसा है जिन्हें, फिर, हिंदू तत्व-चिंतन से कोई समर्थन नहीं मिलता.
यह पहले भी हमने लक्ष्य किया है कि हिंदुत्व के प्रतिपादक और उसके अटल अनुयायी किसी हिंदू अध्यात्म या चिंतन की परंपरा का कभी उल्लेख नहीं करते, कर सकते. असल में तो हिंदुत्व एक शुद्ध राजनीतिक विचारधारा है जो धर्म में घुसपैठ कर रही है.
स्वयं राजनीति में, अपनी अपार सफलता के बावजूद, वह संवैधानिक मूल्यों यानी स्वतंत्रता-समता-न्याय-बंधुता को नहीं मानती और उनका खुलेआम उल्लंघन या अवमूल्यन उसका स्वभाव ही है. भारतीय समाज इस समय बहुत बिखरा-बिफरा समाज है और उसके ऐसा हो जाने के लिए काफ़ी हद तक हिंदुत्व ज़िम्मेदार है. सचाई यह है कि हिंदुत्व हिंदू धर्म और भारतीय राजनीति में घुसपैठिया है.
(लेखक वरिष्ठ साहित्यकार हैं.)