एक असंवेदनशील सरकार और उसके अनैतिक समर्थक

हमारे समाज का पतन हो गया है. उन्मादपूर्ण भीड़ द्वारा निर्दोष व्यक्ति की हत्या, घर वापसी, एंटी-रोमियो दल, निरंकुश गौरक्षा दल और देश के प्रधानमंत्री और उनके अनुयायियों द्वारा मुसलमानों के लिए घृणा फैलाने के लिए बयानबाज़ी, ये सब समाज की दिनचर्या का हिस्सा बन चुके हैं.

(इलस्ट्रेशन: परिप्लब चक्रवर्ती/द वायर)

यह फ्रांत्स काफ्का की किसी कथा का या कोई कपोलकल्पित किस्सा नहीं है, बल्कि यह नरेन्द्र मोदी के भारत में दैनिक स्तर पर घटित हो रहा है. कभी महात्मा गाँधी की पवित्र-स्थली रहा हमारा भारत आज अपराध, कट्टरता और अन्याय की भूमि बन गया है.

पिछले महीने सुप्रीम कोर्ट ने नागपुर विश्वविद्यालय की पूर्व प्रोफेसर, शोभा सेन को जमानत दे दी, जिन्हें 2018 में गिरफ्तार किया गया था. एनआईए के विवादित कथन के अनुसार वह ‘लोकतंत्र और राज्य को हिंसक रूप से उखाड़ फेंकने’ के लिए नक्सलवादी षड्यंत्र में सहयोग कर रही थीं. लेकिन ‘षड्यंत्र’ और ‘आतंकी गतिविधियों’ के आरोपों की सत्यता यह है कि शोमा सेन जातिवाद, सांप्रदायिकता और दलितों के विरुद्ध होने वाले अत्याचारों के खिलाफ बोलने की वजह से छह साल सलाखों के पीछे रही हैं. उन्हें जमानत भी कई कठोर शर्तों के साथ दी गई है. उन्हें अपना पासपोर्ट जमा करना है और हर पखवाड़े स्थानीय थाने में रिपोर्ट करनी है. क्या यही न्याय है?

दिसंबर 2017 में रिटायर्ड जज पीबी सावंत और रिटायर्ड जज बीजी कोलसे-पाटिल ने गैर-लाभकारी एवं गैर सरकारी संगठनों के साथ एल्गार परिषद की एक सभा आयोजित की. इस सभा में देश के कई प्रतिष्ठित समाजसेवी सम्मिलित हुए, जिन्होंने अपना सारा जीवन गरीबों और वंचितों के अधिकारों के लिए न्योछावर किया है. इस सभा ने न केवल भीमा कोरेगांव की लड़ाई की दो सौवीं वर्षगांठ मनाई, बल्कि जातिवाद, सांप्रदायिकता और हिंदुत्व जैसी संकीर्ण विचारधाराओं की समाप्ति के लिए संकल्प लिए. एल्गार परिषद ने इस सरकार की मूल विचारधारा पर कठोर प्रहार भी किया. इसके बाद कहा जाता है कि केंद्र सरकार की एजेंसियों ने उनके कंप्यूटर में फ़र्ज़ी चीज़ें डालकर उन्हें फंसाने की कोशिश की.

हमारे समाज की बुराइयों से लड़ने का साहस विरले ही जुटा पाते हैं और लोगों के प्रेरणास्रोत बन जाते है. आज धर्म का उपयोग प्रायः नफरत और भेदभाव को उकसाने के लिए किया जाता है. और जो लोग आज इन बुराइयों से लड़ना चाह रहे हैं एवं संवैधानिक मूल्यों को लागू करने की मांग कर रहे हैं, उन्हें बहुसंख्यकवादियों द्वारा आतंकवादी के रूप चिन्हित किया जा रहा है.

भारत की अखंडता और प्रभुता को चोट पहुंचाने वाले ‘तथाकथित’ षड्यंत्रकारी और एल्गार परिषद कार्यक्रम के आरोपियों में एक 84 वर्षीय बीमार वृद्ध जेसुइट पादरी स्टेन स्वामी भी शामिल थे, जिनकी जमानत का अनुरोध बार-बार खारिज कर दिया गया था. अंततः 5 जुलाई, 2021 को जेल में उनकी मृत्यु हो गई. वह राज्य की बर्बरता के शिकार हो गए.

आज सच बोलना और शासन को आईना दिखाना अपराध बन गया है. केरल के पत्रकार सिद्दीक कप्पन को पीएफआई के साथ संबंध के आरोप में यूएपीए और पीएमएलए के तहत लगभग तीन साल जेल में रखा गया. उन्हें ‘केवल मुसलामानों’ और ‘सांप्रदायिक दंगों’ पर रिपोर्टिंग करने का अपराधी माना गया, तथा उन पर राजद्रोह और सांप्रदायिक शत्रुता को बढ़ावा देने का आरोप लगाया गया. एक और उदाहरण जलवायु परिवर्तन के विरोध में आवाज़ उठाने वाली दिशा रवि हैं, जिन्हें ग्रेटा थनबर्ग के साथ मिलकर ‘आर्थिक, सामाजिक, सांस्कृतिक युद्ध छेड़ने एवं भारतीय राज्य के खिलाफ असंतोष फैलाने’ की साजिश रचने के लिए गिरफ़्तार किया गया था.

शारीरिक रूप से अक्षम प्रोफेसर जीएन साईबाबा ने माओवादियों से संबंधों के आरोप में लगभग 10 साल जेल में बिताए, जिसमें अधिकांश समय वह एकांत कारावास में थे. अंततः उन्हें इस साल मार्च में बॉम्बे हाईकोर्ट ने बरी कर दिया. साईबाबा के मामले ने यह सिद्ध कर दिया कि हमारी शिथिल न्यायप्राणाली और शासन की क्रूरता, व्यक्ति के निजी स्वतंत्रता के मौलिक अधिकार की कोई रक्षा नहीं कर सकती. क्रूर शाषन प्रणाली के शिकार हुए लोगों की संख्या अनगिनत है- उमर खालिद, संजीव भट, शरजील इमाम और ना जाने कितने अन्य.

जब किसी व्यक्ति के मौलिक अधिकारों की अवहेलना हो रही है, तब कोई सार्वजनिक आक्रोश भी नहीं होता. सलमान रुश्दी की ‘मिडनाइट चिल्ड्रेन’ ने मेरी पीढ़ी को विश्वास जगाया था कि हम एक सहिष्णु और परोपकारी समाज के अंग हैं. क्या यह एक मिथक और भ्रम था जो पिछले दशक से टूटता जा रहा है?

कभी-कभी हम सोचने पर मजबूर हो जाते हैं कि क्या हम पृथ्वी के सबसे क्रूर और स्वार्थी लोगों में एक हैं? हाल में मैंने यह लिखा कि लोकसभा चुनाव ‘राष्ट्र की आत्मा को वापस लाने’ की लड़ाई है, तो एक प्रिय मित्र ने गुस्से में जवाब दिया, ‘राष्ट्र की आत्मा क्या अभी कहीं बची है?’ इसके बाद उन्होंने महाकवि दिनकर की कालजयी कृति की चार पंक्तियां सुनाई:

‘वृथा है पूछना, था दोष किसका?
खुला पहले गरल का कोष किसका?
ज़हर अब तो सभी का खुल रहा है,
हलाहल से हलाहल धुल रहा है.’

देश के नेता हम नागरिकों के लिए दिशा निर्धारित करते हैं . मोदीजी का भारत एक बिगड़े हुए लड़के के नारे से परिभाषित होता है: ‘घर में घुस कर मारूंगा!’ हम चीन की ताकत के सामने चुप हैं, जो हमारे देश के एक बड़े भाग पर अनाधिकृत रूप से अपने पैर पसार रहा है. यहां तक कि छोटा सा देश मालदीव भी हमारी परवाह नहीं करता, लेकिन बीमार और पस्त पाकिस्तान से निपटने के लिए 56 इंच की फूली हुई छाती तत्पर हैं. ऐसा लगता है कि देश के प्रधानमंत्री दूर से मणिपुर में अंतहीन जातीय दंगों को देख रहे हैं. क्या यह अकड़ नक़ली है?

लगता है कि हमारे बेकार,रोगी, और भावनाहीन समाज ने सहानुभूति और करुणा की क्षमता ही खो दी है. दयालुता और शालीनता को दुर्बलता के लक्षण के रूप में देखा जाता है. हमारे संविधान निर्माताओं द्वारा कल्पना की गई मानवीय, धर्मनिरपेक्ष गणराज्य की झलक भी आज के खोखले समाज में नज़र नहीं आती. ऐसा लगता है कि मुसलमानों का सामाजिक बहिष्कार और सांस्कृतिक उन्मूलन अब राज्य की नीति है. मुसलमानों को ‘घुसपैठिया’ बताने और उन्हें ‘ज्यादा बच्चे पैदा करने वाले’ बताकर मोदीजी ने साफ तौर पर तय कर लिया है कि मुसलमानों को निशाना बना कर सांप्रदायिक माहौल को उबालते रहना बहुसंख्यकों का दिल जीतने का सबसे कारगर तरीका है. क्या यह दुःख की बात नहीं है कि उनका शुद्ध द्वेष और खतरनाक बहुसंख्यकवाद हम में से कई लोगों को आकर्षित करता है?

हमारे समाज का पतन हो गया है. उन्मादपूर्ण भीड़ द्वारा निर्दोष व्यक्ति की हत्या, घर वापसी, एंटी-रोमियो दल, निरंकुश गौरक्षा दल और देश के प्रधानमंत्री और उनके अनुयायियों द्वारा मुसलमानों के लिए घृणा फैलाने के लिए बयानबाजी, ये सब समाज की दिनचर्या का हिस्सा बन चुके हैं. आज राज बुलडोज़र एवं गोली मारने से चलता है. और इस राज को समाज के एक बहुत बड़े हिस्से का समर्थन प्राप्त है. यह समर्थन राज्य को मुस्लिम विरोधी नितियों के लिए वैचारिक आधार प्रदान करता है. देश के एक बड़े बर्ग को लगता है कि नागरिकता संशोधन कानून का उद्देश्य चुनावी लाभ लेने का है. भारत के मुसलमान भी इससे भयभीत हैं, विशेषकर वो लोग जो भारत के नागरिक तो हैं, लेकिन उनके पास जन्म तथा नागरिकता सिद्ध करने का कोई दस्तावेजी प्रमाण नहीं है.

आज हमारे देश का एक बर्ग यह मानने लगा है कि हमें लोकतंत्र की जरूरत नहीं है. हाल ही में पीईडब्ल्यू रिसर्च सेंटर, जो देश के संभ्रात वर्ग की सोच को भलीभांति उजागर करने में दक्ष है, ने दावा किया कि 2023 के सर्वेक्षण में 85 प्रतिशत लोगों ने कहा कि सैन्य शासन या एक सत्तावादी नेता द्वारा शासन देश के लिए अच्छा है. यह संस्था,जो स्वयं को निष्पक्ष होने का दावा करती है, अगस्त 2023 में इस निष्कर्ष पर पहुंची थी कि लगभग दस में से आठ भारतीयों का मोदीजी के प्रति अनुकूल दृष्टिकोण था. पर यह भी सच है कि उनकी पार्टी ने कभी भी 37 प्रतिशत से अधिक वोट हासिल नहीं किया है. क्या यह आश्चर्य की बात नहीं है कि इन विशेषज्ञों द्वारा पाए गए परिणाम और निष्कर्ष सत्यता के पैमाने में कम हैं? मार्क ट्वेन ने कहा है: ‘झूठ, सफ़ेद झूठ और फिर आंकड़े!’

अगाथा क्रिस्टी ने कहा था कि किसी तथ्य को सार्वभौमिक और सर्वव्यापी मान लेना शायद ही कभी सही हो, और सामान्यतः यह पूरी तरह से गलत होता है.

इसलिए मुझे यह स्पष्ट करना चाहिए कि लोगों की हृदयहीनता से मेरा आशय किन लोगों के लिए है. मेरे मतलब उन्हीं लोगों से है जिन्होंने पी ई डब्ल्यू रिसर्च को बताया था कि भारत को अपने विकास के लिए एक डिक्टेटर और दबंग नेता की आवश्यकता है-  स्वयंसेवी मध्यम वर्ग और हमारे स्वार्थी कारपोरेट घराने और आत्मलीन बड़ी हस्तियां. निश्चित रूप से एरिक फ्रॉम ने नाज़ीवाद का मनोविश्लेषण और व्याख्या करते हुए जर्मनी के इसी तरह उद्योगपतियों और संभ्रांत वर्ग के साथ व्यापारियों और सफेदपोश बाबुओं के मध्यम वर्ग की पहचान की थी क्योंकि वह फासीवादी विचारधारा के प्रति घोर रूप से आकर्षित थे. आत्मसंतुष्ट मध्यम वर्ग और अमीर और प्रभावशाली व्यक्तियों की उदासीनता, हृदयहीनता और आत्मलीनता के अनेक उदाहरण इतिहास के पन्नों में मिलते रहे हैं.

अधिनायकवाद के यह तथाकथित समर्थक हमें हाल ही में बनी फिल्म की याद दिलाते हैं जो दूसरे विश्वयुद्ध के समय यहूदियों के नरसंहार पर आधारित है. यह फिल्म मानवता के सबसे निम्न स्तर को दर्शाती मार्टिन एमिस के एक उपन्यास पर आधारित है, जिसका शीर्षक ‘द ज़ोन ऑफ़ इंटरेस्ट’ है. कहानी कुख्यात ऑशविट्ज़ के यातना शिविर में एक जर्मन कमांडर के परिवार के सुखद जीवन के इर्द-गिर्द घूमती है. वे यातना शिविर की भयावहता को अनदेखा कर और अनजान बनकर एक स्वप्नलोक में जीते हैं. उनके जीवन के रोज़ की ज़िंदगी में इस्तेमाल होने वाली चीजें – बच्चों के खिलौनों से लेकर खाना खाने के लिए प्रयोग की जाने वाली चम्मच तक- यहूदी पीड़ितों से लूट कर लाई गई हैं. जो चीज किसी की भी अंतरात्मा को झकझोर जाती है,वह यह कि पड़ोस में घट रही भीषण और घृणित बर्बरता के प्रति आम लोगों की गहरी उदासीनता और असंवेदनशीलता, लेकिन इससे भी अधिक भयावह है शुद्ध बुराई पर बनी उनकी भयानक दुनिया की रक्षा करने का उनका उत्साह.

मोदीजी के अधिनायकवाद के पत्थर दिल समर्थक शायद इस फिल्म के पात्रों में अपनी पहचान पाएंगे! हम बाकी लोगों को हिटलर के जर्मनी जैसा बनने के विरोध में खड़ा होना पड़ेगा. पुस्तक में, एमिस ने जर्मनों के स्वाभिमान हनन का वर्णन इस प्रकार किया है: ‘लेकिन जर्मनों को पहले से ही प्रतिष्ठाहीन जीवनयापन की आदत हो गई थी- न्याय, स्वतंत्रता, सच्चाई और तर्क के बिना.’

लेकिन हम तो अपने लोकतंत्र को बचाने के लिए संघर्ष कर सकते हैं और जर्मनों के जैसी अपमानजनक स्थिति से बच सकते हैं.

(लेखक पूर्व सिविल सेवक हैं. यह विचार उनके निजी हैं.)

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