युद्ध और उन्माद के ख़िलाफ़ बीथोवेन की धुन और गेटे की कविता

अक्सर हम संस्कृतियों और राष्ट्रों के प्रति इसलिए सहिष्णु नहीं हो पाते कि हम उन्हें जुगलबंदी के बगैर, एकरेखीय ढंग से, एक ही धुन और एक ही सुर में, एक ही आवाज़ में समझने की कोशिश करते हैं.

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छात्रों के साथ रिहर्सल करते बैरेनबोइम. (फोटो साभार: Peter Adamik/Barenboim-Said Akademie)

अमेरिकी साम्राज्यवाद और यहूदी-राष्ट्रवाद के नापाक गठजोड़ के धुर-विरोधी फिलिस्तीनी मूल के प्रो.एडवर्ड सईद ने जीवन के आखिरी वर्षों में अपने इज़रायली मित्र डैनियल बैरेनबोइम के साथ मिलकर यूरोप, अमेरिका और मध्यपूर्व के इलाकों में साहित्य और संगीत की जुगलबंदी के ज़रिये एक ऐसे परिवेश के निर्माण का प्रयास किया, जो उन्माद से मुक्त और सद्भाव से सराबोर हो.

इन विद्वानों ने वर्ष 1999 में जर्मनी के शहर वाइमार (बूखनवाल्ड नाज़ी कैंप के निकट) में भिन्न देशों और समुदायों से जुड़े युवाओं के साथ संगीत की एक कार्यशाला-ऑर्केस्ट्रा का, और फिलिस्तीन के वेस्ट बैंक में, जहां इज़रायल के खिलाफ भावनाएं ऊफान पर हैं, बैरेनबोइम की सांगीतिक प्रस्तुति का आयोजन किया. यह साहस का काम था. इसकी रोचक चर्चा इन दोनों के संवादों पर आधारित पुस्तक ‘पैरेलल्स एंड पैराडॉक्सेज़’ में मिलती है.

इन सांगीतिक आयोजनों के पीछे मानवतावादी राजनीति का बड़ा आयाम छिपा था. सईद वाइमार की कार्यशाला के बारे में कहते हैं कि ‘हमारा उद्देश्य यह देखना था कि अगर इन लोगों को एक साथ एक ही ऑर्केस्ट्रा में शामिल किया गया, वह भी कवि गेटे की आत्मा के साथ, तो क्या परिणति होगी. गेटे जर्मनी का वही कवि है जिसने इस्लाम के बारे में उत्साह के साथ कविताओं का एक शानादर दीवान तैयार किया था और उन्होंने इस्लाम को अरबी-फारसी स्रोतों से समझा था.’

(बाएं) एडवर्ड सईद और डैनियल बैरेनबोइम. (फोटो साभार: west-eastern-divan.org)

यानी बैरेनबोइम और सईद पश्चिमी दुनिया में एक ऐसे जर्मन कवि के माध्यम से प्रयोग कर रहे थे जिसने ‘अन्य’ (दी अदर) को आत्मीय ढंग से, उनके द्वारा निर्मित ज्ञान के माध्यम से समझने का प्रयास किया था. यह वह रास्ता है जो पूरब-पश्चिम को एक दूसरे के निकट लाता है. पूरब और पश्चिम, हिंदू और मुसलमान जैसे भेदों से ऊपर उठते ही, संगीत की दुनिया में प्रवेश करते ही, कांटों-तारों की सीमाएं नदारद होने लगती हैं. बंगाल की धरती पर टैगोर, नजरूल और लालन शाह फकीर की कला इसका प्रमाण है. भारत-पाकिस्तान-बांग्लादेश में अलग-अलग राग-रागिनियों में फैली हुई कबीर की कविता इसका प्रमाण है.

इस आयोजन का एक उद्देश्य प्रतिभागियों को बूखनवाल्ड नाज़ी कैंप के अनुभवों से परिचित कराना था, और दूसरा यह रेखांकित करना था  कि गेटे जैसे महान कला-साधक के देश में यहूदियों के ऊपर इतने गंभीर अपराध भी हुए थे. सईद कहते हैं कि इसके साथ यह समझना भी हमारा लक्ष्य था कि मुक्ति का रास्ता किधर है.

जो युवा संगीत की इस कार्यशाला में आए, उनके बीच अस्मिताओं के विभाजन ने यह सवाल पैदा किया कि किसे किस तरह की संगीत साधना का हक है. कार्यशाला में इज़रायल के एक अल्बानियाई यहूदी युवक को कुछ अरबी युवक अरबी संगीत के वादन से रोकते हैं. उनका कहना था कि इसे सिर्फ अरबी लोग बजा सकते हैं.

फिर यह प्रश्न उठा कि ऐसे में मध्य-पूर्व से आए गैर-जर्मनों को बीथोवेन का संगीत बजाने का हक कैसे है? उत्तर सभी को मिल गया.

बैरेनबोइम बताते हैं कि दस दिन बीतने के बाद अरबी संगीत के वादन को रोकने वाला युवक चीनी संगीतकार यो-यो मा को अरबी स्केल की जानकारी दे रहा था.

बैरेनबोइम कहते हैं कि मुझे यह दिखा कि एक-दूसरे की संस्कृतियों के बारे में हम कितने अनभिज्ञ हैं- ‘एक इज़रायली युवक को यह यकीन नहीं हो पा रहा था कि काइरो, अम्मान, डमास्कस में लोग वायोलिन बजाते हैं. एक सीरियाई युवक ने मुझसे कहा कि वह पहले कभी किसी इज़रायली से नहीं मिला और उसके लिए इज़रायल हर उस नकारात्मकता का उदाहरण है जो उसके देश के लिए और अरब विश्व के लिए खराब है.’

बाद में वही युवक एक इज़रायली युवक के साथ संगीत का अभ्यास कर रहा था. बैरेनबोइम कहते हैं कि ‘जब संगीत की धुनें आप एक साथ तैयार कर लेते हैं तो आपके पास एक जैसे अनुभव आ जाते हैं. इसके बाद आप एक-दूसरे को वैसे ही नहीं देख सकते जैसे पहले देखा करते थे.’

सईद और बैरेनबोइम की इस संगीत-दृष्टि का गहरा संबंध उनकी संस्कृतियों की समझ से है. सईद शुद्ध संस्कृति के विचार को मिथ मानते थे. संस्कृतियां उनके लिए मिश्रित हैं. उसे वे बांटकर नहीं देखते.

बीबीसी को दिए गए एक साक्षात्कार में सईद कहते हैं कि ‘जब आप संगीत सुनते हैं तो सिर्फ एक धुन या एक हिस्सा नहीं सुनते बल्कि पूरा सुनते हैं, संस्कृतियों को भी हमें ऐसे ही देखना चाहिए.’

जब राजनीति की दुनिया में इज़रायलियों के बीच सईद को ऐसे बौद्धिक न मिले जो सीधे-सीधे मानवाधिकारों के हनन को अभिव्यक्ति दे सकें, संगीत की उदार दुनिया में उसकी तलाश वाजिब थी. यह तलाश जब पूरी हुई तो आत्मीयता के साथ सईद बैरेनबोइम से यह कह पाते हैं कि हमारे जो घाव हैं उसे इज़रायलियों को समझना होगा जिस तरह से उनके अतीत के घावों को हमें.

बैरेनबोइम को यह बात अच्छी लगती है कि फिलिस्तीनी अधिकारों की लड़ाई लड़ते हुए भी सईद के ध्यान में वे पीड़ाएं थीं जो यहूदियों ने झेली थीं. इसी कारण दूसरे अनेक इज़रायली बौद्धिकों से अलग जाकर एक सच्चे संगीतज्ञ की तरह बैरेनबोइम यह कह पाते हैं कि ‘हमें यह भूलना नहीं चाहिए कि मई 15, 1948 तक हम सभी फिलिस्तीनी थे- यहूदी फिलिस्तीनी, मुस्लिम फिलिस्तीनी, और ईसाई फिलिस्तीनी. हममें से कुछ को इज़रायली राज्य की आजादी के साथ एक नई अस्मिता मिल गई, लेकिन दूसरों को नहीं. तबसे बहुत कुछ घट चुका है, लोगों ने बहुत पीड़ाएं झेली हैं- अनुपयोगी और परिहार्य.’

इस तरह दोनों विद्वान विश्व को एक समुच्चय के रूप में देख रहे थे जहां संस्कृतियों के बीच संवाद और संबंध कायम हो सके. संगीत की दुनिया में राग-रागिनियों-यंत्रों की शुद्धता के आग्रही, बस शास्त्रों में डूबे लोकविमुख कवि, भाषाई पवित्रता के ठेकेदार, और रक्तशुद्धता में यकीन रखने वाले फासीवादी यह नहीं समझ सकते कि सभी संस्कृतियों ने अलग-अलग जगहों से ग्रहण किया है. अलग-अलग रागों ने अलग-अलग भौगोलिक क्षेत्रों को प्रभावित किया है.

इसे ध्यान में रखकर बैरेनबोइम कहते हैं कि ‘अपने राष्ट्रीय विरासत से लगाव और राज्य के बारे में फासीवादी धारणाएं दो अलग चीजें हैं. 1920 का जर्मन अगर बीथोवेन के बारे में यह सोचे कि उसमें सांस्कृतिक रूप से जर्मन बातें हैं तो इसमें कुछ गलत नहीं हैं. मुझे समस्या तब है जब यह कहा जाए कि सिर्फ आर्य ही बीथोवेन को सराह या पसंद कर सकते हैं.’

एडवर्ड सईद को ‘कॉन्ट्रापंटल’ संगीत पसंद था, यानी जिसमें कई पंक्तियां, कई आवाजें हों. संगीत की इसी समझ ने उन्हें यह चेतना दी कि उन आवाजों को भी सुना जाए, जिन्हें लोग तवज्जो नहीं देते या अलग-अलग ढंग के शोर के बीच जो आवाज गुम हो जाती है.

(फोटो साभार: Barenboim-Said Akademie)

इज़रायली बैरेनबोइम सईद की आवाजों और खामोशियों को सुन पाते हैं क्योंकि संगीत ने उन्हें चुप्पियों को पहचानने और अनुभूतियों को अभिव्यक्त करने की ताकत दी थी. संगीत ने फिलिस्तीनी सईद को, विश्व को, विचारों को, किताबों को अलग ढंग से पढ़ने का संस्कार दिया था. उनके ही शब्दों में, ‘उन चीजों से जुड़ने का संस्कार दिया जो उनकी करीबी नहीं हैं.’

आज जरूरत इसी चीज़ की है. अक्सर हम संस्कृतियों और राष्ट्रों के प्रति इसलिए सहिष्णु नहीं हो पाते कि हम उन्हें जुगलबंदी के बगैर, एकरेखीय ढंग से, एक ही धुन और एक ही सुर में, एक ही आवाज में समझने की कोशिश करते हैं.

(लेखक असम विश्वविद्यालय, दीफू परिसर में हिंदी विभाग में प्रोफेसर हैं.)