अन्याय की व्यवस्था जब तक बेदख़ल चलती रहे, शांति का भ्रम बना रहता है

जनतंत्र मात्र वोट से नहीं चलता. वह संस्थानों, शक्तियों के विभाजन और उनकी निगरानी और उन पर नियंत्रण से ही चल सकता है. लेकिन इतिहास हमें बतलाता है कि कई बार स्वायत्त संस्थान अपनी स्वायत्तता सरकार के हवाले कर देते हैं. कविता में जनतंत्र स्तंभ की दसवीं क़िस्त.

//
(इलस्ट्रेशन: परिप्लब चक्रवर्ती/द वायर)
(इलस्ट्रेशन: परिप्लब चक्रवर्ती/द वायर)

कोई छींकता तक नहीं
इस डर से
कि मगध की शांति
भंग न हो जाए,
मगध को बनाए रखना है, तो,
मगध में शांति
रहनी ही चाहिए.

मगध है, तो शांति है.

कोई चीखता तक नहीं
इस डर से
कि मगध की व्‍यवस्‍था में
दखल न पड़ जाए
मगध में व्‍यवस्‍था रहनी ही चाहिए.

मगध में न रही
तो कहां रहेगी?
क्‍या कहेंगे लोग?

लोगों का क्‍या?
लोग तो यह भी कहते हैं
मगध अब कहने को मगध है,

रहने को नहीं.

कोई टोकता तक नहीं
इस डर से
कि मगध में
टोकने का रिवाज न बन जाए
एक बार शुरू होने पर
कहीं नहीं रुकता हस्‍तक्षेप.

वैसे तो मगध निवासियों
कितना भी कतराओ
तुम बच नहीं सकते हस्‍तक्षेप से.

जब कोई नहीं करता
तब नगर के बीच से गुज़रता हुआ
मुर्दा
यह प्रश्‍न कर हस्‍तक्षेप करता है
मनुष्‍य क्‍यों मरता है?

श्रीकांत वर्मा के कविता संग्रह ‘मगध’ की कविता ‘हस्तक्षेप’ भारत के पिछले 10 सालों में कई बार याद की गई है. इसके साथ ‘मगध’ की और कविताएं भी. आज से 8 महीना पहले अमेरिका और यूरोप में भी इस कविता को पढ़कर वहां के लोग इसकी प्रासंगिकता पर चकित हो सकते थे. हालांकि, अब इन देशों के नौजवान और वहां के श्रमिक भारत के गुज़रे जमाने के इस कवि को कह सकते हैं कि हमने तुम्हारी कविता पढ़ी, समझी और उसका उत्तर दिया है.

अमेरिका और यूरोप के समाजों में इस समय जो जीवंतता है, उसका स्रोत है उनके विश्वविद्यालयों के विद्यार्थियों का हस्तक्षेप. 100 से अधिक विश्वविद्यालयों में विद्यार्थी और उनके साथ कई जगह उनके अध्यापक भी इज़रायल के द्वारा फ़िलिस्तीनियों के क़त्लेआम के ख़िलाफ़, और इस क़त्लेआम में उनकी सरकारों की मदद का विरोध करने के लिए कक्षाओं के बाहर धरने पर बैठे हैं. उनके इस हस्तक्षेप ने उन जनतंत्रों की व्यवस्था को हिला दिया है.

अमेरिका के राष्ट्रपति जो बाइडेन ने इन विरोध प्रदर्शनों के बारे में कहा कि विरोध का अधिकार जनतंत्र में है, लेकिन किसी को व्यवस्था भंग करने का अधिकार नहीं है. इस व्यवस्था की रक्षा के नाम पर छात्रों और अध्यापकों को पीटा गया है, गिरफ़्तार किया गया है और निष्कासित भी किया गया है.

विरोध प्रदर्शन व्यवस्था को विचलित करने के लिए ही किए जाते हैं, व्यवस्था जो अन्याय की है और जब तक बिना दखल के चलती रहे, शांति का भ्रम बना रहता है.

क्या जनतंत्र का मक़सद एक ऐसा राज्य क़ायम करना है जिसमें शांति और व्यवस्था हो? क्या शांति-व्यवस्था ही मक़सद है? या राज्य को बनाए रखना जो शांति के बिना स्थिर नहीं रह सकता? क्या राज्य का, जैसा सरकारें बतलाती हैं, बने रहना ही मक़सद है? जैसा व्यवस्था के रक्षक समझाना चाहते हैं कि राज्य की शांति बनाए रखना है और शांति से ही राज्य बना रहता है.

लेकिन वह देश भी क्या देश है जहां सर्वत्र सहमति की शांति हो? जहां,

कोई छींकता तक नहीं
इस डर से
कि मगध की शांति
भंग न हो जाए,
मगध को बनाए रखना है, तो,
मगध में शांति
रहनी ही चाहिए.

जनता को उपदेश दिया जाता है कि उसने वोट देकर अपना काम कर दिया है. अब उसे अपने धंधे से लग जाना चाहिए. उसे वापस खेतों, कारख़ानों, विश्वविद्यालयों में अपनी स्याही लगी उंगली के साथ लौट जाना चाहिए. उसने जनतंत्र और राज्य के प्रति अपना कर्तव्य निभा दिया है. इससे आगे कुछ भी, और विरोध तो निश्चय ही जनतंत्र विरोधी है.

विरोध अराजकता को जन्म देता है जो राज्य के लिए ख़तरनाक है. लेकिन जैसा नेयोमी क्लाइन ने एक इंटरव्यू में कहा कि यह भ्रम है और झूठ है कि जनतंत्र का मतलब है मात्र हर 4, 5 साल पर वोट देने का अधिकार. जनतंत्र सड़कों पर होता है, वह जन सभाओं में होता है, वह विरोध प्रदर्शनों में रूप ग्रहण करता है. यही वजह है कि सारे जनतंत्रों में विरोध जनता का संवैधानिक अधिकार है. हमें बोलने, अपनी राय ज़ाहिर करने, संगठन बनाने, प्रदर्शन करने का संवैधानिक अधिकार है. विडंबना यह है कि जैसे ही जनता अपने इस अधिकार का इस्तेमाल करती है, सरकारें कहने लगती हैं कि यह सब कुछ, बोलना, संगठन करना, प्रदर्शन करना जनतंत्र विरोधी है क्योंकि लोगों का काम मात्र वोट देकर फिर अच्छे उपभोक्ता की भूमिका में लौट जाना है.

भारत में प्रायः भीमराव आंबेडकर को सामने खड़ा कर दिया जाता है जिन्होंने संवैधानिक रास्ते से अलग जनता के किसी भी दखल को ‘अराजकता के व्याकरण’ की संज्ञा दी थी. क्या राज्य को अराजकता बर्दाश्त करनी चाहिए?

आंबेडकर ने क्रांति के खूनी रास्ते से सावधान किया था और अपने जनतांत्रिक उद्देश्य को हासिल करने के लिए संवैधानिक तरीक़े अपनाने को कहा था. उन्होंने सिविल नाफ़रमानी, असहयोग और सत्याग्रह के रास्तों को भी त्याज्य माना था. लेकिन संविधान सभा की अपनी आख़िरी तक़रीर में इसके आगे उन्होंने कहा कि जब आर्थिक और सामाजिक उद्देश्यों के लिए संवैधानिक रास्ते बंद हो जाएं तो असंवैधानिक रास्तों की ज़रूरत पड़ती है.

आंबेडकर को कहना चाहिए था कि संविधान में ही लोगों को वे अधिकार मिले हुए हैं जिनके सहारे वे उन सरकार से सवाल कर सकें जो उन्होंने चुनी है. वरना जनतंत्र हर 5 या 4 साल में जनता द्वारा अपने लिए दासता चुनने का ही दूसरा नाम हो जाएगा.

जनतंत्र हमें मालूम है कि मात्र वोट से नहीं चलता. वह संस्थानों, शक्तियों के विभाजन और उनकी निगरानी और उन पर नियंत्रण से ही चल सकता है. लेकिन जैसा जनतंत्रों का इतिहास हमें बतलाता है, यह कई बार नहीं होता. जो स्वायत्त संस्थान हैं, वे अपनी स्वायत्तता सरकार के हवाले कर देते हैं.

जनतंत्र आख़िर क्यों श्रेष्ठ है? इसलिए कि वह मनुष्य के सबसे प्रिय मूल्य स्वतंत्रता की रक्षा के लिए सबसे मुफ़ीद है. लेकिन स्वतंत्रता न तो राज्य की देन है और न उसे नियंत्रित करने वाले की ख़ैरात. डैरन अज़ेमौलू और जेम्स रॉबिंसन अपनी किताब ‘द नैरो कॉरोडोर’ में लिखते हैं कि यह ठीक है कि स्वतंत्रता के लिए राज्य और क़ानून की ज़रूरत होती है, लेकिन वह उनके चलते नहीं है. वह साधारण लोगों, समाज द्वारा हासिल की जाती है. यह ज़रूरी है कि समाज राज्य को नियंत्रित करे ताकि वह लोगों की स्वतंत्रता में इज़ाफ़ा कर सके, न कि उसे कुचल दे. स्वतंत्रता के लिए एक संगठित और गतिशील समाज की आवश्यकता है जो राजनीति में भाग ले, जब ज़रूरी हो, विरोध करे और जब वह कर सके, सरकार को सत्ता से बाहर कर दे.

प्रायः ख़तरा राज्य के अधिक ताकतवर हो जाने का होता है. उसे क़ाबू में रखने के लिए ताकतवर समाज की ज़रूरत होती है. वह इसलिए भी कि सत्ता की प्रवृत्ति निरंकुशता की होती है और किसी हद तक अधर्म की भी. ‘महाभारत’ में ही एक शासक यह स्वीकार करता है कि उसे मालूम है कि धर्म क्या है, लेकिन उसकी तरफ़ उसकी प्रवृत्ति नहीं है और उसे यह भी मालूम है कि अधर्म क्या है, लेकिन उससे उसकी निवृत्ति नहीं है.

सत्ता, जनतंत्र के सहारे गढ़ी गई सत्ता, लेकिन जनता को एक ही बार सड़क पर देखना चाहती है. वह है मतदान का वक्त, जब वह अनुशासित तरीक़े से पंक्तिबद्ध होकर मत देने का इंतज़ार कर रही हो. उसके बाद सड़क पर जनता से बड़ा अप्रिय दृश्य सत्ता के लिए नहीं है.

सड़क पर जनता का अर्थ है हस्तक्षेप करती हुई जनता. वह सरकार को नहीं चाहिए. उसे मात्र जय-जयकार करते हुए लोग चाहिए. सरकार को यह भी मालूम है कि मामूली लगने वाले हस्तक्षेप को भी बर्दाश्त नहीं करना चाहिए क्योंकि वह हस्तक्षेप की संस्कृति को बढ़ावा देता है. एक जगह अगर इसे होने दिया गया तो वह और अनेक जगहों पर होगा:

एक बार शुरू होने पर
कहीं नहीं रुकता हस्‍तक्षेप.

दर्शक यह सोचकर हैरान हो सकते हैं कि आख़िरकार बिलकुल शांति से बैठे, गाना गाते हुए और चित्र खींचते छात्रों पर इतना भयंकर पुलिस दमन अमेरिकी सरकार क्यों कर रही है? लेकिन सरकार को मालूम है कि एक बार यह हस्तक्षेप शुरू हो गया तो वह रुकता नहीं है. इसलिए वह सबसे निरापद हस्तक्षेप को भी कुचल देना चाहती है.

सरकार जो करे, लोग क्या करते हैं, इससे जनतंत्र की सेहत तय होती है. सत्ता लोगों की है या लोग सत्ता के हैं? क्या सत्ता ने ऐसे लोग बना लिए हैं जो अपनी ख़ुदमुख़्तारी के ऊपर शांति और व्यवस्था को तरजीह देते हैं? क्या ज़्यादा ज़रूरी मगध का बने रहना है?:

मगध को बनाए रखना है, तो,
मगध में शांति
रहनी ही चाहिए.

मगध है, तो शांति है.

और इसलिए टोकने का रिवाज शुरू नहीं करना चाहिए क्योंकि वह शांति को भंग करता है और वह मगध को ख़त्म कर सकता है. लेकिन क्या मगध अब सिर्फ़ कहने को मगध नहीं, क्या वह रहने लायक़ मगध है?

हस्तक्षेप तो होता है:

जब कोई नहीं करता
तब नगर के बीच से गुज़रता हुआ
मुर्दा
यह प्रश्‍न कर हस्‍तक्षेप करता है
मनुष्‍य क्‍यों मरता है?

जनतंत्र में मनुष्य के मरने का अर्थ क्या है? और वह कब मर जाता है?

(लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय में पढ़ाते हैं.)

(इस श्रृंखला के सभी लेख पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें.