नई दिल्ली: वरिष्ठ राजनीतिक विश्लेषकों ने चुनाव आयोग की कड़ी निंदा की है. चुनाव आयोग का पहला काम चुनावी प्रक्रिया की निष्पक्षता में लोगों का विश्वास पैदा करना है, लेकिन पिछले एक साल से चुनाव आयोग की स्वायत्तता और निष्पक्ष कार्यप्रणाली सवालों के घेरे में है.
आम चुनाव की तारीखों की घोषणा से कुछ दिन पहले पूर्व चुनाव आयुक्त अरुण गोयल ने अचानक इस्तीफा दे दिया था, जिसे चुनावी बॉन्ड के मामले पर उनकी मौन प्रतिक्रिया मानी गई. इसके बाद सुप्रीम कोर्ट के 2 मई, 2023 के दिशानिर्देशों का उल्लंघन करते हुए दो चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति की गई थी.
चुनाव की घोषणा के बाद भी चुनाव आयोग की विभिन्न गतिविधियों पर सवाल उठे हैं, जैसे कि चुनाव का लंबा कार्यक्रम और अनंतनाग में स्थगित चुनाव. इसके अलावा चुनाव आयोग ने प्रत्येक चरण में मतदान के बाद मतों की संख्या बताने और मीडिया से रूबरू होने की प्रथा भी छोड़ दी है. प्रधानमंत्री के नफरत और गलत सूचना से भरे भाषणों पर चुनाव आयोग की चुप्पी पर भी सवाल उठ रहे हैं.
विपक्ष के सवालों से चुनाव आयोग ने कैसे किया किनारा?
कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खरगे ने चुनाव आयोग से पहले तीन चरण में पड़े वोटों की संख्या को लेकर सवाल पूछे थे. चुनाव आयोग ने 10 मई को कांग्रेस नेता के पत्र का जवाब दिया. लेकिन आयोग ने अपने जवाब में जिस लहजे का इस्तेमाल किया है, अब उसकी आलोचना हो रही है.
चुनाव आयोग ने न सिर्फ कुप्रबंधन और मतदान डेटा जारी करने में देरी के आरोपों को खारिज किया है बल्कि विपक्ष के आरोप को बेहद अवांछनीय बताया है. साथ ही कहा है कि ऐसे सवाल चुनाव में भ्रम और बाधा पैदा करने के लिए उठाए जा रहे हैं.
राजनीतिक विश्लेषकों ने चुनाव आयोग की स्वतंत्रता पर उठाए सवाल
पहले ही सवालों के घेरे में आ चुके चुनाव आयोग को लेकर राजनीतिक विशेषज्ञ सुहास पल्शिकर ने कहा है, ‘कांग्रेस अध्यक्ष को जवाब देने में व्यस्त चुनाव आयोग के पास मुस्लिम विरोधी अभियान पर ध्यान देने का समय नहीं है. उसके खिलाफ उनकी आवाज नहीं निकल रही है.’ पल्शिकर ने पुणे के सावित्रीबाई फुले विश्वविद्यालय में राजनीति विज्ञान पढ़ाया है और स्टडीज इन इंडियन पॉलिटिक्स के मुख्य संपादक भी हैं.
राजनीतिक मामलों की जानकार जोया हसन ने द वायर से बातचीत में कहा, ‘भारत का चुनाव आयोग देश के सबसे प्रतिष्ठित और भरोसेमंद संस्थानों में से एक है. यह एक ऐसी संस्था है जिसे न केवल निष्पक्ष और तटस्थ होना है, बल्कि दिखना भी है.’
अपनी टिप्पणी में हसन ने जोड़ा, ‘पिछले एक दशक में चुनाव आयोग की निष्पक्षता पर गंभीर संदेह उठाए गए हैं. चुनावों के शेड्यूल और आदर्श आचार संहिता के बार-बार उल्लंघन के बारे में सवाल पूछे गए हैं, जब प्रधानमंत्री या भाजपा के वरिष्ठ नेता कानून का उल्लंघन करते हैं या धर्म या जाति के नाम पर वोट मांगते हैं तो उनके खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं की जाती है… चुनाव आयोग की नियुक्ति करने वाली प्रणाली ही उसकी स्वतंत्रता को कम करती है. ऐसा पहले भी किया गया था लेकिन आयोग पर शायद ही कोई अविश्वास था क्योंकि चुनाव आयुक्त स्वतंत्र रूप से निर्णय लेते थे और अधिक विवेक के साथ काम करते थे.’
हसन ने कहा, ‘मौजूदा चुनाव आयोग ने विश्वसनीयता खो दी है क्योंकि उसके व्यवहार को पक्षपातपूर्ण माना जा रहा है. आयोग की स्वतंत्रता की रक्षा के बिना, भारत का लोकतंत्र खतरे में है.’ हसन जेएनयू की पूर्व प्रोफेसर हैं.
जाने-माने चुनाव विश्लेषक, सेंटर फॉर द स्टडी ऑफ डेवलपिंग सोसाइटीज (सीएसडीएस) के पूर्व सदस्य और अब भारत जोड़ो अभियान के राष्ट्रीय संयोजक योगेंद्र यादव ने कहा है, ‘भारत का चुनाव आयोग अब इस चुनाव में एक अंपायर नहीं, बल्कि एक राजनीतिक खिलाड़ी है. अगर आपको कोई संदेह है तो इस पत्र (चुनाव आयोग का खरगे को जवाब) के आक्रामक, आरोपात्मक और धमकी भरे लहजे को पढ़ें.’ यादव मानते हैं कि चुनाव आयोग अपने इतिहास में कभी इतने निचले स्तर पर नहीं पहुंचा था.
पूर्व चुनाव आयुक्त अशोक लवासा ने द वायर के एक कार्यक्रम ‘सेंट्रल हॉल’ में कपिल सिब्बल के साथ चर्चा में कहा है, ‘चुनाव आयोग का मूल्यांकन इस बात से किया जाएगा कि वह सरकार के साथ कैसा व्यवहार करता है, न कि विपक्ष के साथ.’