दाभोलकर केस: अदालत ने जांच में लापरवाही बरतने के लिए महाराष्ट्र पुलिस, सीबीआई को फटकार लगाई

तर्कवादी और सामाजिक कार्यकर्ता नरेंद्र दाभोलकर की गोली मारकर हत्या करने के मामले में सीबीआई की विशेष अदालत ने दो लोगों को उम्रक़ैद की सजा सुनाई है. वहीं, तीन अन्य आरोपियों को बरी करते हुए इसका ज़िम्मेदार जांच एजेंसियों को ठहराया है.

विक्रम भावे, वकील संजीव पुनालेकर और वीरेंद्रसिंह शरदचंद्र तावड़े. (फोटो: कैनवा के माध्यम से)

मुबंई: पुणे की एक विशेष सीबीआई अदालत ने करीब 11 साल बाद तर्कवादी और सामाजिक कार्यकर्ता नरेंद्र दाभोलकर की गोली मारकर हत्या करने के मामले में दो लोगों को उम्रकैद की सजा सुनाई है. अदालत ने सचिन प्रकाशराव अंदुरे और शरद भाऊसाहेब कालस्कर को हत्या और समान इरादे से किए अपराध के लिए भारतीय दंड संहिता की धारा 302 और 34 के तहत दोषी ठहराया. हालांकि अदालत में हत्या का मकसद साबित नहीं हो सका.

मकसद के अभाव में तीन अन्य आरोपियों – कथित मास्टरमाइंड डॉ. वीरेंद्र सिंह शरदचंद्र तावड़े, वकील संजीव पुनालेकर और उनके सहयोगी विक्रम भावे को बरी कर दिया गया. 171 पन्नों के विस्तृत फैसले में विशेष सीबीआई जज प्रभाकर पी, जाधव ने तीनों को बरी करते हुए स्पष्ट रूप से उल्लेख किया कि बरी इसलिए नहीं किया गया क्योंकि उन्होंने कोई भूमिका नहीं निभाई, बल्कि इसलिए कि जांच एजेंसी- पहले महाराष्ट्र पुलिस और फिर सीबीआई- अपना काम करने में विफल रहीं. अदालत ने 10 मई को फैसला सुनाया था, जिसकी प्रति एक दिन बाद 11 मई को उपलब्ध कराई गई.

विशेष अदालत ने गैरकानूनी गतिविधियां (रोकथाम) अधिनियम के तहत आरोपियों के खिलाफ मुकदमा चलाने के लिए उचित मंजूरी आदेश प्राप्त करने में प्रक्रियात्मक खामियों के लिए जांच एजेंसी और राज्य अधिकारियों की आलोचना की. इन मंजूरी के अभाव में, अभियोजन पक्ष यह साबित करने में विफल रहा कि दाभोलकर की हत्या एक आतंकवादी कृत्य थी, जो न केवल इस मामले में बल्कि इसके बाद हुईं अन्य तर्कवादियों और सामाजिक कार्यकर्ताओं की हत्याओं में भी एक महत्वपूर्ण पहलू है.

हत्या का मकसद साबित करने में विफलता

इस मामले में अभियोजन पक्ष ने 20 गवाहों से पूछताछ की थी, जिनमें दो चश्मदीद गवाह और दो सनातन संस्था के करीबी सहयोगी शामिल थे. सनातन संस्था कई आतंक-संबंधी गतिविधियों में लिप्त एक धुर दक्षिणपंथी संगठन है. हालांकि, इस संगठन को अभी तक गृह मंत्रालय द्वारा आतंकवादी संगठन घोषित नहीं किया गया है. मामले में गवाही देने वालों में दाभोलकर के बेटे हामिद, एक मनोचिकित्सक जिन्होंने आरोपियों की मानसिक स्थिति का अध्ययन किया और दाभोलकर द्वारा स्थापित संगठन महाराष्ट्र अंधश्रद्धा निर्मूलन समिति के कार्यकर्ता शामिल थे.

मालूम हो कि पुणे में 20 अगस्त 2013 की सुबह  69 वर्षीय दाभोलकर की पुणे में वीआर शिंदे ब्रिज पर अंदुरे और कालस्कर द्वारा गोली मारकर हत्या कर दी गई थी. उनकी हत्या महाराष्ट्र और कर्नाटक में की गई हत्याओं की श्रृंखला में सबसे पहली थी. दाभोलकर के बाद वामपंथी विचारक गोविंद पानसरे, अकादमिक और एक्टिविस्ट एमएम कलबुर्गी और पत्रकार गौरी लंकेश की गोली मारकर हत्या की गई थी.

हालांकि, दाभोलकर की हत्या 2013 में की गई थी, लेकिन अंदुरे और कालस्कर दोनों को 2018 में गिरफ्तार किया गया,  जब लंकेश की हत्या में उनकी भूमिका सामने आई थी. महाराष्ट्र आतंकवाद निरोधी दस्ते (एटीएस) ने कर्नाटक पुलिस की विशेष जांच टीम (एसआईटी) की मदद से दोनों को पकड़ा था. कर्नाटक एसआईटी 2017 में बेंगलुरु स्थित गौरी लंकेश के आवास पर उनकी हत्या की जांच कर रही थी.

हालांकि, अंदुरे और कालस्कर केवल मोहरा थे, मास्टरमाइंड कोई और था. सीबीआई अदालत ने भी अपने फैसले में कहा, ‘हत्या बहुत ही सुनियोजित तरीके से की गई थी, जिसे आरोपी नंबर 2 (अंदुरे) और 3 (कालस्कर) ने अंजाम दिया. आरोपी नंबर 2 और 3 की आर्थिक और सामाजिक स्थिति को देखते हुए, वे अपराध के मास्टरमाइंड नहीं  लगते हैं. अपराध के पीछे का मुख्य सूत्रधार कोई और है. उस मास्टरमाइंड का पता लगाने में पुणे पुलिस के साथ-साथ सीबीआई भी नाकाम रही है. उन्हें आत्मनिरीक्षण करना होगा कि क्या यह उनकी विफलता है या सत्ता में बैठे किसी व्यक्ति के प्रभाव के कारण उनकी ओर से जानबूझकर दिखाई गई निष्क्रियता है.’

आरोपपत्र में, पुणे पुलिस और सीबीआई दोनों ने तावड़े को ‘मास्टर माइंड’ बताया था. तावड़े वर्ष 2000 तक डॉक्टर के रूप में कार्यरत थे, फिर उन्होंने डॉक्टरी छोड़ दी और पूरी तरह से सनातन संस्था और इसके सहयोगी संगठन हिंदू जनजागृति समिति के साथ जुड़कर काम करने लगे. उनकी कथित तौर पर दाभोलकर के साथ ‘व्यक्तिगत दुश्मनी’ थी. सीबीआई के आरोपपत्र में इस पहलू पर जोर दिया गया और इसे ही हत्या का भी ‘मकसद’ बताया. हालांकि, जब तावड़े के खिलाफ सबूत लाने की बात आई तो जांच एजेंसी असफल रही.

गवाहों में से एक संजय अरुण सादविलकर, जो पहले सनातन संस्था से जुड़े थे और तावड़े के करीबी सहयोगी थे, ने अपने बयान में दावा किया था कि 2004 में जब दाभोलकर एक सार्वजनिक कार्यक्रम के लिए कोल्हापुर आए थे, तब तावड़े का दाभोलकर के साथ विवाद हो गया था. कट्टरपंथी हिंदू दक्षिणपंथियों के मुखर आलोचक रहे दाभोलकर ने लोगों के बीच अंधविश्वास फैलाने के लिए इन संगठनों की आलोचना की थी. अंधविश्वास विरोधी विधेयक का मसौदा तैयार करने में भी उनकी मुख्य भूमिका थी, जो 2013 में उनकी हत्या के बाद ही पारित हुआ था.

चांदी की दुकान चलाने वाले सादविलकर ने यह भी गवाही दी थी कि तावड़े ने दाभोलकर की हत्या से कुछ दिन पहले उससे संपर्क किया था और एक पिस्तौल बनाने के लिए कहा था. सादविलकर को तावड़े की मंशा पर शक हो गया था और उन्होंने कोई मदद न करने का फैसला किया. सादविलकर का दावा है कि तावड़े अपनी नाराजगी व्यक्त करने के लिए दो बार कोल्हापुर में उनकी दुकान पर आया था. सादविलकर कहते हैं कि दाभोलकर की हत्या के बाद ही उन्हें पता चला कि तावड़े उनसे क्या कराना चाहता था.

चूंकि सादविलकर इस मामले में प्रत्यक्षदर्शी गवाह नहीं थे और दाभोलकर की हत्या से सीधे तौर पर तावड़े को जोड़ने में सक्षम नहीं थे, इसलिए उनकी गवाही उपयोगी साबित नहीं हुई. सादविलकर पानसरे की हत्या के मामले में भी गवाह हैं.

‘सबूत नष्ट करना’

मुंबई के वकील संजीव पुनालेकर, जिन्होंने 2008 के ठाणे और पनवेल बम धमाकों समेत कई आतंकी मामलों में हिंदू कट्टरपंथियों की अदालत में पैरवी की है, सबूतों को नष्ट करने के आरोपी थे. उनकी भूमिका महत्वपूर्ण है क्योंकि ऐसा दावा है कि दोषी 2017 में लंकेश की हत्या के बाद उनके पास गए थे जब पुनालेकर ने कथित तौर पर उन्हें ‘पिस्तौल को एक खाड़ी में फेंकने’ का निर्देश दिया था. लेकिन चूंकि दावे को साबित करने के लिए कोई स्वतंत्र गवाह नहीं था, इसलिए पुनालेकर को भी बरी कर दिया गया.

पुनालेकर के सहायक विक्रम भावे, जिसे 2008 में ठाणे सभागार में बम विस्फोट मामले में उसकी भूमिका के लिए दोषी ठहराया गया था, पर दाभोलकर केस में और अधिक गंभीर आरोप थे. भावे ने कथित तौर पर अंदुरे और कालस्कर के साथ मिलकर रेकी की थी. हालांकि, जांच एजेंसी मामले में उसे दोषियों का साथी दिखाने वाला कोई सबूत पेश नहीं कर सकी. यहां तक ​​कि एक साधारण सी सीसीटीवी फुटेज, जो यह देखते हुए आसानी से उपलब्ध होनी चाहिए थी कि दाभोलकर की हत्या पुणे की एक व्यस्त सड़क पर हुई थी, भी पुलिस ने बतौर सबूत एकत्र नहीं की.

जस्टिस जाधव ने घटिया जांच और मामले को सुलझाने में एजेंसी की विफलता पर एक अहम टिप्पणी की. उन्होंने कहा:

‘आरोपी नंबर 1 डॉ. वीरेंद्र सिंह तावड़े के खिलाफ डॉ. नरेंद्र दाभोलकर की हत्या करने का मकसद होने संबंधी प्रमाण है. आरोपी नंबर 4 संजीव पुनालेकर और आरोपी नंबर 5 विक्रम भावे के खिलाफ पर्याप्त संदेह है, जो वर्तमान अपराध में उनकी संलिप्तता दिखा रहा है. हालांकि, अभियोजन पक्ष विश्वसनीय सबूतों के आधार पर आरोपी नंबर 1, 4 और 5 की अपराध में संलिप्तता स्थापित करने में विफल रहा है.’

हालांकि, मामले में तीन मुख्य व्यक्तियों को जज दोषी नहीं ठहरा सके, लेकिन उन्होंने कई महत्वपूर्ण  टिप्पणियां कीं. उन्होंने कहा, ‘वर्तमान मामला बहुत गंभीर है और राष्ट्रीय महत्व का है. न सिर्फ डॉ. नरेंद्र दाभोलकर की हत्या की गई है बल्कि उनकी विचारधारा को ख़त्म करने की कोशिश की गई है.’

जस्टिस जाधव ने अदालत में बचाव पक्ष के वकीलों के आचरण को भी गंभीरता से लिया. अंतिम बहस के दौरान, आरोपियों की ओर से पेश वकील प्रकाश सालसिंगिकर ने दाभोलकर पर हमले को सही ठहराने के लिए कलाकार एमएफ हुसैन और हिंदू देवी-देवताओं की उनकी पेंटिंग का संदर्भ दिया था. एक गवाह से पूछताछ करते हुए सालसिंगिकर ने पूछा था, ‘क्या आप जानते हैं कि तस्लीमा नसरीन भारत में क्यों रह रही हैं? क्या आप जानते हैं कि सलमान रश्दी को किन कारणों से धमकियां मिल रही थीं?’ इन सवालों का दाभोलकर के मामले से कोई सीधा संबंध नहीं था, लेकिन सालसिंगिकर इन सवालों के जरिए यह कहने की कोशिश कर रहे थे कि दाभोलकर से ‘नफरत’ की गई क्योंकि उन्होंने ‘हिंदू देवताओं का अपमान’ किया था.

इस संबंध में अदालत ने कहा कि यह बिल्कुल स्पष्ट है कि सनातन संस्था, हिंदू जनजागृति समिति और सहयोगी हिंदू संगठन मृतक डॉ. नरेंद्र दाभोलकर के खिलाफ कटु शत्रुता रखते थे.

उन्होंने आगे कहा, ‘आरोपियों और बचाव पक्ष के वकीलों ने केवल अपना पक्ष रखने का प्रयास नहीं किया, बल्कि अभियोजन पक्ष के गवाहों से अनावश्यक और अप्रासंगिक लंबी जिरह की और यहां तक कि अंतिम बहस में भी मृतक की छवि खराब करने का प्रयास किया गया. साथ ही, बचाव पक्ष का रुख मृतक डॉ. नरेंद्र दाभोलकर को हिंदू विरोधी बताकर उनकी हत्या को सही ठहराने का था. उक्त दृष्टिकोण बहुत अजीब और निंदनीय है. ‘

शुरुआत से ही जांच पर सवालिया निशान

शुरुआत से ही, मामले की जांच के तरीके को लेकर सवाल उठ रहे थे. दाभोलकर के परिवार को ऐसे महत्वपूर्ण मामले की जांच मे राज्य द्वारा अपनाए गए ढुलमुल रवैये को लेकर उच्च न्यायालय के समक्ष बार-बार याचिका दायर करनी पड़ी. आख़िरकार, मामले की सुनवाई बॉम्बे हाईकोर्ट की निगरानी में करने का फैसला हुआ. इसके बाद दिसंबर 2022 में उच्च न्यायालय ने दैनिक आधार पर मामले की निगरानी करना बंद कर दिया और कहा कि मुकदमे की प्रगति से वह संतुष्ट है.

इस फैसले के तुरंत बाद दाभोलकर के बेटे हामिद ने मीडिया से कहा था कि परिवार फैसले के खिलाफ ऊपरी अदालत में जाएगा.

लंकेश की हत्या और कर्नाटक पुलिस द्वारा किए गए काम के बाद ही महाराष्ट्र एटीएस और सीबीआई दोनों हरकत में आए थे.

शुरु में, स्थानीय पुलिस ने मामले में दो व्यक्तियों, मनीष रामदास नोगोरी और विकास रामअवतार खंडेलवाल, को उनकी कथित भूमिका के लिए गिरफ्तार किया था. हालांकि, पुलिस समय पर आरोपपत्र दायर करने में  भी विफल रही थी. आखिरकार जब सीबीआई ने मामला अपने हाथ में लिया, तो उन्होंने भी तीन अन्य लोगों – अमोल अरविंद काले, अमित रामचंद्र दिग्वेकर और राजेश बंगेरा- को गिरफ्तार कर लिया. लेकिन जब सीबीआई ने 31 मई 2023 को अंतिम रिपोर्ट दायर की, तो उसने दावा किया कि चूंकि वे तीनों के खिलाफ पर्याप्त सबूत इकट्ठा नहीं कर पाए, इसलिए उन पर आरोप नहीं लगाए गए.

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