जनता की सजगता और सक्रियता के बिना जनतंत्र का बने रहना संभव नहीं

जनतंत्र में आशंका बनी रहती है कि जनता प्रक्रियाओं को लेकर निश्चिंत हो जाए और यह मानकर उन पर भरोसा कर बैठे कि वे अपना काम करते रहेंगे और जनतंत्र सुरक्षित रहेगा. मगर अक्सर यह नहीं होता. कविता में जनतंत्र स्तंभ की ग्यारहवीं क़िस्त.

//
(इलस्ट्रेशन: परिप्लब चक्रवर्ती/द वायर)
(इलस्ट्रेशन: परिप्लब चक्रवर्ती/द वायर)

मैं फिर कहता हूं
धर्म नहीं रहेगा, तो कुछ नहीं रहेगा –
मगर मेरी
कोई नहीं सुनता!
हस्तिनापुर में सुनने का रिवाज नहीं –

जो सुनते हैं
बहरे हैं या
अनसुनी करने के लिए
नियुक्त किए गए हैं

मैं फिर कहता हूं
धर्म नहीं रहेगा, तो कुछ नहीं रहेगा –
मगर मेरी
कोई नहीं सुनता
तब सुनो या मत सुनो
हस्तिनापुर के निवासियो! होशियार!
हस्तिनापुर में
तुम्हारा एक शत्रु पल रहा है, विचार –
और याद रखो
आजकल महामारी की तरह फैल जाता है
विचार.

(‘हस्तिनापुर का रिवाज’)

जनतंत्र की शर्त है सचेत लोग. विचारशील, विचारवान लोग. चेतना, विचार के साथ साहस और सक्रियता दूसरी शर्तें हैं. उन सबका आधार है न्याय की संवेदना. न्याय बोध या विवेक. या वह संभवतः सबसे पहली ज़रूरत है:

मैं फिर कहता हूं
धर्म नहीं रहेगा, तो कुछ नहीं रहेगा –

धर्म का बोध वही तो है जिसे महमूद दरवेश ने सही और ग़लत की तमीज़ कहा है. इस कविता को गांधी की उस चेतावनी की तरह भी पढ़ा जा सकता है जिसमें उन्होंने धर्मविहीन राजनीति को एक प्रकार की विपदा ही कहा था. इसका सहारा लेकर प्रायः जवाहरलाल नेहरू जैसे गांधी के मित्रों पर इल्ज़ाम लगाया जाता है कि चूंकि उन्होंने धर्मनिरपेक्षता का विदेशी सिद्धांत लागू कर दिया और राजनीति ही नहीं, समाज में भी धर्म को लेकर एक प्रकार का संकोच या शर्मिंदगी पैदा कर दी, समाज में विकृति पैदा हो गई. सांप्रदायिकता भी इसी धर्मनिरपेक्षता का परिणाम है.

गांधी के लिए धर्म कुछ और है. वह ऐसा गुण है जो सभी धर्मों में व्याप्त है. वह एक विचार है. वह मनुष्य को मनुष्य से ही नहीं इस ब्रह्मांड मात्र से बांधता है और उसमें अपनी जगह पहचानने की शक्ति देता है. वह दूसरों के प्रति, जो अपने से बिलकुल भिन्न हैं, अपने कर्तव्य का ज्ञान देता है. ज्ञान ही नहीं, वह उस कर्तव्य की प्रेरणा और स्फूर्ति भी प्रदान करता है. अगर मुक्तिबोध को याद करें तो वह हमें निस्संगता से मुक्त करता है, अपने दायरे से बाहर निकालता है और दूसरों से रिश्ता बनाने को प्रवृत्त करता है.

धर्म इस प्रकार निजी और सामाजिक नैतिकता है. वह सत्य से प्रतिबद्धता है और उसका संधान करने की प्रस्तुति है. इस अर्थ में धर्म, गांधी के मुताबिक़ एक विचार है. वह किसी भी प्रकार के श्रेष्ठता के अहंकार से मुक्त करता है.

नेहरू के अनुसार धर्म वह है जो हमें अपनी साधारणता से मुक्त करता है, हमें अपनी सतह से ऊपर उठाता है. उन्हें यह विचार आकर्षित करता था, जिसे वे हिंदू धर्म का विचार कहते थे, कि प्रत्येक मनुष्य में दैवी तत्त्व का निवास है. इस्लाम से बराबरी और ईसाइयत से करुणा और दया के भावों को ग्रहण करके एक पूर्ण धर्म-बोध की कल्पना की जा सकती है.

असल समस्या या चुनौती उस सिद्धांत के पहचान की है जो समाज में पारस्परिकता का आधार होगा. वह धर्म ही है जो यह कर सकता है. धर्म के इस विचार के बिना बहुमत की ताक़त अल्पमत को पीस दे सकती है. जो ताक़तवर हैं वे सारी प्रक्रियाओं को अपने स्वार्थ के लिए तोड़ दे सकते हैं.

जनतंत्र में धर्म के इस विचार का ज़िम्मा मात्र सत्ता पर छोड़ा नहीं जा सकता. इसीलिए विभिन्न प्रकार की संस्थाएं हैं जो धर्म को जीवित रखें. यह इसलिए कि सत्ता में प्रायः धर्म की प्रवृत्ति नहीं. लेकिन वे सब जिन्हें धर्म का विचार करना है, अगर वे अपने कर्तव्य से विमुख हो जाएं?

जो सुनते हैं
बहरे हैं या
अनसुनी करने के लिए
नियुक्त किए गए हैं

मैं फिर कहता हूं
धर्म नहीं रहेगा, तो कुछ नहीं रहेगा –
मगर मेरी
कोई नहीं सुनता

जिन्हें यह काम दिया गया कि वे धर्म की पुकार सुनें, या धर्म ही हानि का समाचार सुने, अगर वे अनसुनी करें? धर्म के प्रति उनकी उदासीनता के बावजूद समाज में अंतिम तौर पर धर्म के विचार का लोप नहीं होता. वह विचार इन विचारपतियों के बावजूद पलता रहता है और वह एक दिन फूट पड़ता है जैसे महामारी.

जनतंत्र का इतिहास हमेशा से ही इस धर्म के विचार को सत्ता के तंत्र में जीवित रखने का और इसकी निराशा का है कि वे प्रायः अपने कर्तव्य की अवहेलना करते हुईं. लेकिन फिर वह इतिहास ही यह बतलाता है कि यह विचार संस्थानों से कहीं अलग उन जगहों पर जीवित रखा जाता है जहां इसकी उम्मीद नहीं की जाती है.

इस संघर्ष के बिना जनतंत्र का बने रहना संभव नहीं. उसके लिए चाहिए जनता की सजगता और सक्रियता. उसके बिना गणराज्य भी मात्र कल्पना रह जाता है:

कोसल मेरी कल्पना में एक गणराज्य है
कोसल में प्रजा सुखी नहीं
क्योंकि कोसल सिर्फ़ कल्पना में गणराज्य है

उसका कारण है नागरिकों कि उदासीनता और जनतंत्र के प्रति अपने कर्तव्य से विमुख हो जाना:

नागरिक
दिनभर जुआ खेलते हैंजो जुआ नहीं खेलते
ऊंघते हैं

नागरिक दिन भर क़िस्से गढ़ते हैं
जो क़िस्से नहीं गढ़ते
ऊंघते हैं

नागरिक
दिनभर खीझते हैं
जो खीझते नहीं
ऊंघते हैं

वर्तमान के अपने इस कर्तव्य से दूर रखने के लिए सबसे बड़ा प्रलोभन है किसी स्वर्णिम अतीत की कल्पना में डूब जाना:

नागरिक
कोसल के अतीत पर
पुलकित होते हैं
जो पुलकित नहीं होते
ऊंघते हैं.

यथार्थ की चेतना का अर्थ है सक्रियता की बाध्यता. प्रयत्न और संघर्ष. वह इसलिए कि जनतंत्र बहुत कुछ मनुष्य की तरह है. वह एक बार बन नहीं जाता. वह एक परिघटना नहीं, प्रक्रिया है. वह स्वचालित भी नहीं. वह चलता रह सके इसके लिए मानवीय सक्रियता की दरकार है. मानवीय सक्रियता जो विचारसंवलित है.

जनतंत्र में इसकी आशंका बनी रहती है कि जनता प्रक्रियाओं को लेकर निश्चिंत हो जाए और उन पर भरोसा कर बैठ जाए. यह मानकर कि वे अपना काम करते रहेंगे और जनतंत्र सुरक्षित रहेगा. यह नहीं होता. जिस रूस ने जनतंत्र के लिए साम्यवादी सत्ता को अपदस्थ किया, वह उस जनतंत्र को खो बैठा है. जो अमेरिका जनतंत्र का दारोगा होने का दावा करता है, वहां जनतंत्र एक खाई के किनारे पर झूल रहा है. और अपने देश में भारत में हम जनतांत्रिक तरीक़े से जनतंत्र से वंचित किए जा रहे हैं.

क्या यह धर्म बोध के विलुप्त हो जाने के कारण हुआ है? क्या यह नागरिक चेतना के सो जाने के कारण हुआ है? क्या यह अतीत के नशे में डूब जाने के कारण हुआ है? या यह इसलिए हुआ है कि इस सामज ने अपने कवि श्रीकांत वर्मा को नहीं सुना?

(लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय में पढ़ाते हैं.)

(इस श्रृंखला के सभी लेख पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें.