संघ ब्रिगेड द्वारा उनकी विचारधारा के ख़िलाफ़ उठने वाली हर आवाज़ को दबाने के लिए हरसंभव कोशिश की जा रही है.
इस साल का ऑस्कर समारोह बेस्ट फिल्म का अवॉर्ड घोषित होने में हुई गड़बड़ी के कारण काफी चर्चा में रहा, पर इससे कहीं ज़्यादा महत्वपूर्ण बात अनदेखी ही रह गई. महंगे सूट और चमकीले गाउन में सजे ढेरों कलाकार अमेरिकी सिविल लिबर्टीज़ यूनियन (एसीएलयू) के समर्थन में अपनी बांह पर नीले रिबन पहनकर आए थे. एसीएलयू अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प द्वारा 7 मुस्लिम देशों के लोगों के अमेरिका में आने पर लगाए गए बैन के ख़िलाफ़ आगे आकर लड़ रहा है. गौरतलब है कि इस बैन के कारण वीजा और बाकी ज़रूरी कागज़ात होने के बावजूद इन सात मुस्लिम देशों के लोग अमेरिका में नहीं आ सकेंगे.
वैसे तो पूरे ऑस्कर समारोह में ही वर्तमान प्रशासन की अप्रवासी विरोधी नीतियों को लेकर कई चुटकियां ली गईं, पर सरकार और उसके फैसले के ख़िलाफ़ लिया गया यह सबसे सशक्त बयान था. इन रिबन पहने कलाकारों ने अपने इस फैसले के बारे में कोई बड़ा भाषण नहीं दिया- उसकी ज़रूरत भी नहीं थी.
अब कल्पना कीजिए कि ऐसा कुछ फिल्मफेयर अवॉर्ड समारोह (या नाचने-गाने वाले किसी शो जो ख़ुद को अवॉर्ड शो कहते हैं) में हो तब… हमारे सितारे यूं शांति से, बिना कोई बखान किए किसी भी मुद्दे पर अपनी राय रख रहे हैं. यह मुद्दा कोई भी हो सकता है, अभिव्यक्ति की आज़ादी का, विद्यार्थियों के प्रति हिंसा का या भगवान न करे ‘असहिष्णुता का!
हिंदुस्तान की फिल्म बिरादरी, ख़ासकर बॉलीवुड ने अब यह जान लिया है कि कोई राजनीतिक बयान देना कितना ख़तरनाक हो चुका है, वो भी आज के ऐसे माहौल में जहां सोशल मीडिया पर बैठे ट्रॉल हमले की फ़िराक में ही रहते हैं. सब जानते हैं कि इन ट्रॉल्स के पीछे एक पूरी व्यवस्था काम करती है, जिसे राजनीतिक समर्थन भी मिला हुआ है, ऐसे में कितना भी बड़ा कलाकार होगा, वो इनसे डर कर ही रहेगा, बेहतर है कि कुछ कहकर मुसीबत बुलाने के ख़ामोश ही रहा जाए.
इसके बावजूद भी कुछ आवाज़ें तो उठती रहती हैं. 2015 में जब फिल्म एंड टेलीविज़न इंस्टिट्यूट के छात्र नए डायरेक्टर की नियुक्ति के ख़िलाफ़ विरोध-प्रदर्शन कर रहे थे, तब उनके समर्थन में अपने राष्ट्रीय पुरस्कार लौटने वाले 12 फिल्मकारों में एक दिबाकर बनर्जी भी थे. 2016 में जब फिल्म उड़ता पंजाब पर सेंसर ने बेतरतीब कैंची चलाई तब अनुराग कश्यप इसके ख़िलाफ़ कोर्ट तक गए. हाल ही में गुरमेहर कौर की ट्रॉलिंग के ख़िलाफ़ जावेद अख़्तर और नसीरुद्दीन खान आगे आए. ये बॉलीवुड के चंद लोग हैं जो अपवाद हैं. वरना ज़्यादातर बड़े नाम या तो ख़ामोश रहते हैं या थोड़ा-सा दबाव पड़ते ही हथियार डाल देते हैं जैसे करन जौहर ने किया था.
पर फिर रणदीप हुडा जैसे अभिनेता भी हैं, सत्ता के साथ हां में हां मिलाते हुए दिखते हैं. उन्होंने एबीवीपी के ख़िलाफ़ खड़ी हुई गुरमेहर कौर का मज़ाक बनाया, जब लोगों ने इस बात पर उनका विरोध किया तब उन्होंने गुरमेहर को ‘एक राजनीतिक मोहरा’ कहकर अपने लिए मुश्किलें और बढ़ा लीं. रणदीप का किसी युवा लड़की को यूं इस तरह सार्वजानिक रूप से ट्रॉल करना न केवल उनकी चालाकी थी बल्कि बहादुरी भी थी. उन्हें पता था कि उनका साथ देने के लिए हज़ारों भक्तों की भीड़ यहां तक कि कुछ मंत्री भी उनके साथ हैं.
वे सब मिलकर उस लड़की के पीछे पड़ गए, जिसका ‘अपराध’ बस इतना था कि उसने अपनी बात एक तस्वीर के ज़रिये सामने रखी थी, जिसमें लिखा था कि वो एबीवीपी से नहीं डरती, जिसके साधारण से संदेश कि ‘उसके पिता को पाकिस्तान नहीं युद्ध ने मारा है’ को समझने के बजाय ये अति-राष्ट्रवादी उसके देशप्रेम पर सवाल उठाने लगे.
ज़ाहिर है कि शांति के लिए लिखा गया ये संदेश रणदीप हुडा, वीरेंद्र सहवाग और मंत्री महोदय किरेन रिजिजू को समझ ही नहीं आया. एक भाजपा ने तो गुरमेहर की तुलना दाउद इब्राहिम से कर डाली. हालांकि बाद में रणदीप हुडा ने यह कहकर अपनी सफाई दी कि वे बस मज़ाक कर रहे थे, जिसका ग़लत मतलब निकला गया. ऐसा लगता है कि उनमें अपनी कही बात के लिए खड़े होने का साहस भी नहीं था.
वैसे यहां मुख्य मुद्दा बॉलीवुड की बुज़दिली, सोशल मीडिया पर मज़ाक उड़ाना या मंत्रियों या नेताओं की ग़लतबयानी नहीं है. ये सब पुरानी बातें हैं. ये सिर्फ कुछ बिंदु हैं, जिन्हें जोड़कर जो तस्वीर बनती है, वो ख़तरे का इशारा करती है. ये इशारा है कि हर उस आवाज़ को दबाने का प्रयास हो रहा है जो किसी प्रचलित दृष्टिकोण या विचार को चुनौती देती है.
टीवी पर आने वाले भाजपा प्रवक्ताओं ने तो इसे अपनी आदत में ही शुमार कर लिया है कि सामने वाले पैनालिस्ट को अपनी बात न रखने दें, वहीं सोशल मीडिया पर कोई मनमुताबिक बात न कहे तो धमकियां और गालियां देना शुरू कर दो, फिर एबीवीपी जैसे छात्र संगठन भी हैं, जो हिंसा में ज़्यादा विश्वास करते हैं.
जेएनयू हो, हैदराबाद, इलाहाबाद, रामजस कॉलेज या पुणे एबीवीपी हर जगह कॉमन है, जहां इन्हें न सिर्फ इन संस्थानों के प्रबंधन का सहयोग मिला बल्कि सरकार में बैठे के कई प्रमुख लोग भी उनके साथ दिखाई दिए. रामजस कॉलेज में हुए छात्रों और अध्यापकों पर हुए हमले के दौरान पुलिस केवल दर्शक बनी खड़ी रही और एबीवीपी के ग़ुंडे अपनी मर्ज़ी करते रहे. जब ये सब ख़त्म हुआ तो ये लोग एक उस एक लड़की के पीछे पड़ गए जो इस हिंसा के ख़िलाफ़ खड़ी हुई और कहा कि वह एबीवीपी से नहीं डरती है.
यह बात अक्सर पूछी जाती है कि संघियों को क्यों लगता है कि इतने बड़े देश की एकता और अखंडता चंद विद्यार्थियों (जिन्हें आदर्शवादी और भटका हुआ भी कहा जाता है) के नारे लगाने से ख़तरे में पड़ जाएगी? क्यों उनको नज़रअंदाज़ नहीं किया जाता, क्यों वो कह रहे हैं, उन्हें कहने नहीं दिया जाता? पर इससे बात ख़त्म हो जाएगी न.
अपनी इस ‘निरर्थक’ धारणा को पुष्ट करने के लिए किसी कन्हैया, उमर या गुरमेहर का चेहरा दे दिया जाता है. कन्हैया को भले ही पुलिस की ओर से देश-विरोधी नारे लगाने के आरोप में निर्दोष बता दिया जाए, पर इन कट्टर संघियों और भक्तों और नए-नए देशभक्तों के लिए ये लोग ‘देशद्रोहियों’ का प्रतीक बन चुके हैं… देशद्रोही यानी सेक्युलर, वामपंथी और वो जो पाकिस्तान के शांतिपूर्ण संबंधों की वक़ालत करते हैं.
अमेरिका में मैक्कार्थी के शासनकाल के दौरान जब एफबीआई और उसके संदिग्ध निदेशक जे. एडगर कम्युनिस्टों और क्रांतिकारियों के पीछे थे, वे उन्हें भी क्रांतिकारी मानते थे, जो सामान्य रूप से उदारवाद और अश्वेतों के लिए सामान अधिकारों की मांग करते थे. इन बातों को ‘अन-अमेरिकन’ (ग़ैर-अमेरिकी) समझा जाता था और इनकी बात करने वाला देशद्रोही. जबकि मार्टिन लूथर किंग से लेकर जॉन स्टेनबैक, यहां तक कि डोरोथी पार्कर सभी का झुकाव साम्यवाद की तरफ था. और अब वही प्रथा अब संघियों द्वारा निभाई जा रही है. जो भी लीक से हटकर चले, जिसका दृष्टिकोण उदार है, लिबरल है, वो इनके अनुसार कम भारतीय हैं.
अरुण जेटली को भाजपा का स्वीकार्य शहरी चेहरा माना जाता है, हाल ही में उन्होंने कहा कि हर तरह के ‘क्रांतिकारी’ अब कैंपसों में इकट्ठे हो रहे हैं, उन्होंने यह भी कहा कि अगर अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता से देश की संप्रभुता को कोई ख़तरा होता है तो इस पर प्रतिबंध लगना चाहिए. पर यह फैसला कौन लेगा कि किस बात से देश की ‘संप्रभुता’ ख़तरे में पड़ रही है? पर देश में हिंसा फ़ैलाने वालों के ख़िलाफ़ पहले से ही क़ानून हैं. क्या जेटली का इशारा था कि ‘नारे लगाने’ वालों के लिए और कड़े क़ानून बनाए जाएंगे? क्या संघ परिवार देश को ऐसे कई और कड़े कदमों के लिए तैयार कर रहा है?
कई विश्लेषकों का ऐसा कहना है कि जब भी कुछ महत्वपूर्ण घटना होने वाली होती है, जैसे संसद में कोई महत्वपूर्ण विधेयक पेश होने वाला हो या कोई महत्वपूर्ण चुनाव होने वाले हों, जहां ‘देशभक्ति’ के इस बखान से फायदा मिल सकता हो, भाजपा और इसके सहयोगी संगठन इस तरह ध्यान बंटाने के लिए इस तरह के मुद्दे ले आते है.
वैसे हो सकता है कि यह सिर्फ एक सहायक उद्देश्य हो, बड़ा उद्देश्य तो हिंदुत्व के विचार को देश पर थोपना हो… पर उसके लिए इस तरह के कारण ढूंढने की ज़रूरत नहीं होगी. ये बिना किसी उपलब्धि की परवाह किए बदस्तूर जारी रहता है. अगर उत्तर प्रदेश चुनाव नहीं भी होते तब भी एबीवीपी की यूं कॉलेज कैंपसों में उठने वाली आवाज़ों को बंद करने की कोशिश जारी रहती.
विश्वविद्यालयों, शोध और सांस्कृतिक संस्थानों के शीर्ष पदों पर कब्ज़ा करने से लेकर, इतिहास की क़िताबें बदलने, सड़कों के नाम बदलने और महत्वपूर्ण पदों पर अपने लोगों को नियुक्त करने के पीछे मकसद एक ही है. एबीवीपी भी उनके इस तरकश का एक तीर है.
पर ऐसे समय में शेहला राशिद, कन्हैया कुमार, उमर ख़ालिद और अब गुरमेहर कौर जैसे लोग हैं जो इस तरह के तत्वों से नहीं डरते. यह देखकर बिल्कुल आश्चर्य नहीं होता कि किसी टीवी स्टूडियो की शेहला से हो रही बहस से कोई संघ विचारक उठकर चला जाता है या किसी कॉलेज स्टूडेंट के ट्वीट पर कोई मंत्री जवाब देता है. इस तरह के प्रतिरोध से ये लोग घबरा जाते हैं.
देश के बड़े लोग जैसे खिलाड़ी, फिल्म कलाकार या बिजनेसमैन हो सकता है कि चुप्पी साधे रहें या सार्वजानिक रूप से सत्ता की तरफ़दारी करें पर देश के विश्वविद्यालयों के विद्यार्थियों ने यह दिखा दिया है कि वे कैंपस में एबीवीपी की दादागिरी नहीं सहेंगे, कैंपस में अपनी आवाज़ों को नहीं दबने देंगे. यह लड़ाई अभी और चलेगी. एबीवीपी के पास मकसद है, संसाधन हैं, ताकतवर लोगों का समर्थन है, पर वो प्रतिरोध का सामना नहीं कर सकते और यह प्रतिरोध ख़त्म नहीं होने वाला है.