जनतंत्र का लोप अचानक आई आपदा नहीं, एक प्रक्रिया है

एक आराध्य का चुनाव भीड़ को जन्म देता है. एक नेता में आस्था जिससे कोई सवाल नहीं किया जा सकता, जिसकी सिर्फ़ जय-जयकार ही की जा सकती है. कविता में जनतंत्र स्तंभ की बारहवीं क़िस्त.

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(इलस्ट्रेशन: परिप्लब चक्रवर्ती/द वायर)
(इलस्ट्रेशन: परिप्लब चक्रवर्ती/द वायर)

मैं क्या कर रहा था
जब
सब जयकार कर रहे थे?
मैं भी जयकार कर रहा था –
डर रहा था
जिस तरह
सब डर रहे थे.
मैं क्या कर रहा था
जब
सब कह रहे थे,
‘अजीज मेरा दुश्मन है?’
मैं भी कह रहा था,
‘अजीज मेरा दुश्मन है.’

मैं क्या कर रहा था
जब
सब कह रहे थे,
‘मुंह मत खोलो?’
मैं भी कह रहा था,
‘मुंह मत खोलो
बोलो
जैसा सब बोलते हैं.’
खत्म हो चुकी है जयकार,
अजीज मारा जा चुका है,
मुंह बंद हो चुके हैं.

हैरत में सब पूछ रहे हैं,
यह कैसे हुआ?
जिस तरह सब पूछ रहे हैं
उसी तरह मैं भी
यह कैसे हुआ?

(‘प्रक्रिया’)

श्रीकांत वर्मा को गुजरे वक्त हुआ. उनकी इस कविता की उम्र भी आधी सदी से अधिक हो गई. लेकिन यह कविता तब भी और आज भी, और सिर्फ़ भारत नहीं, किसी भी जनतंत्र के लिए एक चेतावनी थी और बनी हुई है. 20वीं सदी का सबसे बड़ा सवाल मात्र राजनीतिशास्त्रियों के लिए नहीं, बल्कि मनोवैज्ञानिकों, दार्शनिकों और साहित्यकारों के लिए भी यही रहा है: जनतंत्र को जनता कैसे खोती है?

इस कविता का शीर्षक ‘प्रक्रिया’ सार्थक है क्योंकि इसे जनतंत्र के क्षरण की प्रक्रिया की कविता के रूप में पढ़ा जा सकता है. बिना सवाल अनुकरण, भय, दूसरे से शत्रुता का भाव मिलकर एक ऐसा आदमी बनाते हैं जो इन सबकी परिणति देखकर, परिणति के बारे में हैरानी का नाटक भर कर सकता है. क्योंकि वह ख़ुद इसका भागीदार है.

व्यक्ति के भीड़ में बदलने या भीड़ के सामने आत्मसमर्पण करने की आशंका मात्र श्रीकांत वर्मा की नहीं. उनके समकालीन रघुवीर सहाय और विजय देवनारायण साही की कविताओं में भी यह बार-बार बज उठती है. यह कविता सबसे पहले व्यक्ति के भीड़ बन जाने की प्रक्रिया की कविता है. भीड़ बनने की प्रक्रिया में अनिवार्य है एक आराध्य का चुनाव. एक नेता में आस्था जिससे कोई सवाल नहीं किया जा सकता, जिसकी सिर्फ़ जय-जयकार ही की जा सकती है.

जयकार और भय, दोनों जुड़वां हैं. यह भय बहुमुखी है. हम जिसकी जयकार में शामिल होते हैं, उसी से डरने भी लगते हैं. एक तरह से यह हमारी प्रश्नातीत भक्ति है जो हमारी भक्ति के पात्र को इतना बड़ा बना देती है कि हम उससे भय खाने लगते हैं. उस व्यक्ति के प्रति किसी भी प्रकार के संदेह से हम डर जाते हैं. कहीं उसे हमारी आस्था के डिगने का पता न चल जाए! जिसे हमने अपनी श्रद्धा अर्पित करके इतना विराट बना दिया है, वह हमें अपने सामने उतना ही लघु बना देता है. फिर वह प्रश्न करने की स्वतंत्रता हमसे छीन लेता है. या हम ख़ुद ही प्रश्न उठते ही उसे दबा देते हैं क्योंकि उस परम सत्ता पर अविश्वास दूषण है.

यह भय लेकिन सिर्फ़ आराध्य से नहीं होता. अपने आप से भी होता है. अपने संदेह से. और जिस भीड़ के साथ मिलकर, उसमें घुलकर हम जय के नारे लगाते हैं, जिसके साथ एक सामूहिकता का बोध हासिल करते हैं, उसी भीड़ से हम डरने लगते हैं. एक बार इस सामूहिक जयगान में शामिल होने के बाद उससे ख़ुद को अलग करना कठिन हो जाता है. इस सामूहिकता से ख़ुद को अलग करना भीड़ की निगाह में हमें भी संदेहास्पद बना देता है. भीड़ नारा लगा रही हो तो हम चुप नहीं रह सकते. कहीं भीड़ में कोई हमें चुप न देख ले!

मैं क्या कर रहा था
जब
सब कह रहे थे,
‘मुंह मत खोलो?’
मैं भी कह रहा था,
‘मुंह मत खोलो
बोलो
जैसा सब बोलते हैं.

जिसे आराध्य चुना है उसके प्रति आस्था जुड़ी हुई है एक संदेह के जन्म से. उसके प्रति संदेह जो मुझ जैसा नहीं. यह संदेह उससे भय पैदा करता है और फिर वह आसानी से दुश्मन में बदल जाता है:

सब कह रहे थे,
‘अजीज मेरा दुश्मन है?’
मैं भी कह रहा था,
‘अजीज मेरा दुश्मन है.’

यह अज़ीज़ जर्मनी में यहूदी है, अमरीका या यूरोप में आप्रवासी है, भारत में मुसलमान और ईसाई है, श्रीलंका में तमिल हिंदू, ईसाई और मुसलमान है. ज़ाहिर है ये सब उस भीड़ का हिस्सा नहीं हैं जो जयकार कर रही है. या भीड़ के बनने की शर्त ही है अज़ीज़ को अलग करना और उसे दुश्मन घोषित करना. और अज़ीज़ के इस भीड़ में शामिल न होने से साबित हो जाता है कि वह दुश्मन ही है.

अज़ीज़ को दुश्मन बताते ही भीड़ को एक मक़सद मिलता है. उससे भय का कारण भी क्योंकि वह दुश्मन है. इस शत्रु भाव को लेकर भी हर प्रकार के संदेह को उठते ही दबा दिया जाता जाता है. मैं अज़ीज़ को जानता हूं, उसके मेरे शत्रु होने का कोई कारण मुझे नहीं दिखता, लेकिन मैं यह कह नहीं सकता क्योंकि सबने उसे दुश्मन घोषित कर दिया है और उससे अलग राय एक तरह से अपने लोगों से द्रोह मानी जाएगी.

और फिर अज़ीज़ मार डाला जाता है. क्या उसे मैंने मारा? क्या उसकी हत्या में मेरी कोई भूमिका है?

‘न्यूरेमबर्ग ट्रायल’ नामक फ़िल्म में न्यायाधीशों पर इस इल्ज़ाम में मुक़दमा चलता है कि उन्होंने फ़ासीवाद की आमद में मदद की थी. उनमें से एक न्यायाधीश आख़िर में अपना अपराध क़बूल करता है. लेकिन वह कहता है कि उसे नहीं मालूम था कि चीज़ें वहां पहुंच जाएंगी जहां वे पहुंचीं. उसी तरह एक कलाप्रिय संभ्रांत महिला बार-बार कहती है कि क्या यह माना जा सकता है कि उस जैसे सभ्य जर्मनों को मालूम था कि क्या हो रहा है?

क्या भीड़ पर सारा इल्ज़ाम मढ़कर अपनी निजी ज़िम्मेदारी से बचा जा सकता है? यह कविता पूछती है,

मैं क्या कर रहा था
जब
सब जयकार कर रहे थे?

और पूछती है,
मैं क्या कर रहा था
जब
सब कह रहे थे,
‘अजीज मेरा दुश्मन है?’

पूछती रहती है,
मैं क्या कर रहा था
जब
सब कह रहे थे,
‘मुंह मत खोलो?’

अब शोर थम चुका है, जयकार भी बंद हो चुकी है. अज़ीज़ मारा गया है. और सब हैरत में हैं कि

यह कैसे हुआ?
जिस तरह सब पूछ रहे हैं
उसी तरह मैं भी
यह कैसे हुआ?

जनतंत्र का लोप कोई जादू नहीं. वह कोई अचानक टूट पड़ने वाली आपदा नहीं. वह एक प्रक्रिया है. वह प्रक्रिया व्यक्ति के आत्मलोप की है. अपनी ज़िम्मेदारी से ख़ुद को अलग कर लेने की है. यह प्रक्रिया, जो काम व्यक्ति का है, यानी निर्णय लेना, उस काम को ख़ुद से परे किसी सत्ता को सुपुर्द कर देने की भी है.

जनतंत्र में शुरू से ही व्यक्ति और जन के बीच एक तनाव भरा रिश्ता है. जनता स्वायत्त व्यक्तियों का समूह है या सत्ताविहीन इकाइयों की ऐसी भीड़ है जिसमें किसी का कोई चेहरा नहीं? जनतंत्र का बचा रहना भीड़ से अलग अपनी स्वायत्तता की रक्षा और अपनी ज़िम्मेदारी के निर्वाह पर निर्भर है. वरना अंत में सिर्फ़ बचती है हैरत.

(लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय में पढ़ाते हैं.)

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