हे राम,
जीवन एक कटु यथार्थ है
और तुम एक महाकाव्य!
तुम्हारे बस की नहीं
उस अविवेक पर विजय
जिसके दस बीस नहीं
अब लाखों सिर – लाखों हाथ हैं,
और विभीषण भी अब
न जाने किसके साथ है.
इससे बड़ा क्या हो सकता है
हमारा दुर्भाग्य
एक विवादित स्थल में सिमट कर
रह गया तुम्हारा साम्राज्य
अयोध्या इस समय तुम्हारी अयोध्या नहीं
योद्धाओं की लंका है,
‘मानस’ तुम्हारा ‘चरित’ नहीं
चुनाव का डंका है!
हे राम, कहां यह समय
कहां तुम्हारा त्रेता युग,
कहां तुम मर्यादा पुरुषोत्तम
और कहां यह नेता-युग!
सविनय निवेदन है प्रभु कि लौट जाओ
किसी पुराण – किसी धर्मग्रंथ में
सकुशल सपत्नीक…
अबके जंगल वो जंगल नहीं
जिनमें घूमा करते थे वाल्मीक!
‘अयोध्या, 1992’ पिछले 30 वर्षों में हिंदी की सबसे ज़्यादा उद्धृत की गई कविताओं में शामिल है. कुंवर नारायण की इस कविता का मुख्य स्वर व्यंग्य का है और वह दुख से भरा हुआ है. भाषा का खेल ‘त्रेता युग’ और ‘नेता युग’ या ‘सपत्नीक’ और ‘वाल्मीक’ जैसे प्रयोग में देख सकते हैं. लेकिन कुंवर नारायण की इस कविता में अभिधा का गुण ही अधिक है. वह अपनी व्याख्या भी ख़ुद कर देती है.
यह कविता भारतीय जनतंत्र के एक ऐसे प्रसंग से जुड़ी है जिसने उसे सबसे अधिक प्रभावित किया या कहें विकृत कर दिया. वह प्रसंग है अयोध्या में बाबरी मस्जिद के ध्वंस की घटना का. कविता ठीक उसके बाद लिखी गई थी. उसे भी घटना कहना ठीक न होगा. वह एक प्रक्रिया का एक हिस्सा भर थी. राम जन्मभूमि अभियान परिणति थी. या एक पड़ाव.
परिणति तो तब हुई जब कवि जीवित नहीं रह गया यह देखने को कि बाबरी मस्जिद की ज़मीन में उस राम को एक मंदिर में प्रतिष्ठित कर ही दिया गया जिसे यह कविता किसी पुराण या धर्मग्रंथ में लौट जाने की सलाह दे रही है. परिणति संभवतः उस अभियान की आज भी नहीं हुई.
2024 का चुनाव भी उसका एक पड़ाव है जिसमें राम, या राम भी नहीं उनका मंदिर हिंदू वोट को आकर्षित करने का सबसे कारगर चुंबक मान लिया गया है. एक राजनीतिक दल या एक नेता दंभोक्ति करता फिर रहा है कि उसने राम को वनवास से मुक्ति दिलाई है और उनका छीना हुआ घर उन्हें वापस दिला दिया है.
1992 से 2024 की भारतीय जनतंत्र की यात्रा में राम एक स्थायी उपस्थिति रहे हैं. लेकिन वे ख़ुद अधर्म और अविवेक के रथ पर पताका पर एक चुनाव चिह्न की तरह फहरा रहे हैं. 22 जनवरी, 2024 के पहले और उसके बाद पूरे भारत में रिक्शे, टेंपो, कार, मकानों, शिक्षा संस्थानों पर भगवा झंडे में धनुर्धारी राम जाने किसे चुनौती देते दिख रहे थे! क्या यह पताका भारतीय जनतंत्र पर उनके विजय की पताका थी?
जैसे-जैसे धूप तेज हुई झंडों का भगवा रंग फीका पड़ने लगा और झंडे भी झूल से गए. और तब चुनाव का ऐलान हुआ. और राम पताकाएं वापस आ गईं. नए जोश के साथ फिर से उन्होंने मुरझा गए झंडों की जगह ले ली. और भारतीय जनता पार्टी ने राम को ही मानो अपनी तरफ़ से चुनाव में खड़ा कर दिया. अब वे भाजपा के लिए वोट मांग रहे हैं. कह रहे हैं: मेरे अभिभावकों को दिल्ली की गद्दी नहीं मिली तो मेरे मकान पर ताला लग जाएगा. वह मकान जो मुझे 500 साल बाद इतनी मुश्किल से भाजपा वालों ने दिलाया है.
हिंदू यह नहीं पूछ रहे कि वह जो अयोध्या के उस निलय में है, वह तो शिशु राम है. और यह जो वोट मांग रहा है, वह धनुष बाण लिए हुए है! यह विवेक अब हिंदू जनता नहीं कर पा रही. यह असफलता राम की है या भारतीय जनतंत्र की?
क्या राम जनतंत्र के तर्क के आगे अब बेबस हैं? जनतंत्र का तर्क जिसमें बहुमत बटोरना ही सबसे बड़ा धर्म है और उसके लिए कुछ भी किया जा सकता है. कुछ भी लेकिन नहीं किया जा सकता. एक मर्यादा जिसे चुनाव की आचार संहिता निर्धारित करती है. उसके अनुसार कोई भी दल या उम्मीदवार धर्म के सहारे वोट नहीं मांग सकता. इस मर्यादा की धज्जियां ख़ुद उसने उड़ा दे हैं जिसने ख़ुद को राम का उद्धारक घोषित कर दिया है और राम के भक्तों ने जिसे राम के अभिभावकों का अभिभावक मान भी लिया है. वह राम की पताका लिए जनतंत्र की मर्यादा को कुचल रहा है.
और राम असहाय हैं. वे मर्यादा स्थिर नहीं कर सकते. यह यथार्थ उनके बस का नहीं. या जनतंत्र का यह जीवन वास्तव में उनका यथार्थ भी नहीं. वे तो महाकाव्य हैं:
हे राम,
जीवन एक कटु यथार्थ है
और तुम एक महाकाव्य!
महाकाव्य उस यथार्थ को कैसे नियंत्रित कर सकता है जो राजनीति के संसार का मनुष्य बनाता है? वह राजनीति जिसमें साम दाम दंड भेद को वैध माना जाता है, या हर अनीति को कृष्ण नीति कहकर उचित ठहराया जाता है?
राम में यह क्षमता नहीं कि वे आज की राजनीतिक भाषा की मर्यादा निर्धारित कर सकें:
तुम्हारे बस की नहीं
उस अविवेक पर विजय
जिसके दस बीस नहीं
अब लाखों सिर – लाखों हाथ हैं,
और विभीषण भी अब
न जाने किसके साथ है.
कुंवर नारायण इस अविवेक को सिर्फ़ एक राजनीतिक दल, भाजपा के मत्थे मढ़कर छुटकारा नहीं पा लेना चाहते. जिस अविवेक की वे बात कर रहे हैं, उसके दस बीस नहीं, लाखों सिर-हाथ हैं. वह संपूर्ण हिंदू समाज है जो इस अविवेक का शिकार है. उसे कवि बरी नहीं करता.
राम का भौगोलीकरण भारतीय जनतंत्र की सबसे बड़ी दुर्घटना है. उनके साम्राज्य का सिकुड़ जाना:
इससे बड़ा क्या हो सकता है
हमारा दुर्भाग्य
एक विवादित स्थल में सिमटकर
रह गया तुम्हारा साम्राज्य
राम अब बंदी हैं उस राम मंदिर के जो बाबरी मस्जिद को ढाहकर ख़ाली की गई ज़मीन को न्यायिक छल से हड़पकर उस पर बनाया गया है. राम का महाकाव्यात्मक चरित्र जो जग भर की कल्पना को स्फुरित कर सकता था, अब जड़ हो गया. इस राम से मुसलमानों का, ईसाइयों का क्या रिश्ता होगा जिनकी हत्या उसके नाम का नारा लगाते हुए की जाने लगी है?
राम का जय श्रीराम में बदल जाना क्या राम की ट्रेजेडी है या किसी एक समाज की? वह नाम अब शांति नहीं देता, भय पैदा करता है. उसका नारा सुनकर अब बहुत बड़ी आबादी अपने कान बंद कर लेना चाहती है. अयोध्या अब मन को शांत नहीं करती. वह एक एक ऐसे युद्ध क्षेत्र में बदल गई है जिसे कभी ख़ाली नहीं छोड़ा जाएगा.
यह अयोध्या भी अब एक बड़े समाज के हृदय की प्रतिनिधि है जिसमें युद्ध चलता रहता है. शत्रु गढ़े जाते रहते हैं. लेकिन वे मारे जाते हैं बाहर और उनके कानों में आख़िरी नाम राम का होता है:
अयोध्या इस समय तुम्हारी अयोध्या नहीं
योद्धाओं की लंका है,
‘मानस’ तुम्हारा ‘चरित’ नहीं
चुनाव का डंका है!
महाकाव्य के राम भी तो एक दूसरे लिहाज़ से ट्रैजिक चरित्र हैं. वे शुरू से अंत तक दूसरों के द्वारा निर्धारित मर्यादा को लागू करने के साधन बने रहते हैं. शायद वे कभी अपना जीवन जी ही नहीं पाए. सीता का अपहरण और उन्हें अपहर्ता रावण से मुक्त करने के नाम पर किया गया युद्ध क्या था? सीता को जब राम अंत में तिरस्कृत करते हैं तो वे किस मर्यादा को लागू कर रहे होते हैं? या बाली की हत्या, सीता का निर्वासन, शंबूक की हत्या: राम किस मर्यादा की रेखा खींच रहे हैं?
कविता राम को सकुशल सपत्नीक वन में लौट जाने की सलाह देती है. लेकिन हमारे काव्यों ने तो उन्हें वहां से निकालकर युद्धक्षेत्र में भेज दिया था!
आज फिर एक युद्ध चल रहा है. राम एक पक्ष के हथियार बना दिए गए हैं. उन्हें या उनके नाम को आज कौन कवि मुक्त कर सकता है? या यह काम कवि का नहीं भारतीय मतदाता का है कि वह राम को वापस काव्य में भेज सके?
(लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय में पढ़ाते हैं.)
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