जनतंत्र ऐसी सामूहिकता की कल्पना है जिसमें सारे समुदायों की बराबर की हिस्सेदारी हो

जनतंत्र ख़ुद इंसाफ़ है क्योंकि वह अपनी ज़िंदगी के बारे में फ़ैसला करने के मामूली से मामूली आदमी के हक़ को स्वीकार करने और हासिल करने का अब तक ईजाद किया सबसे कारगर रास्ता है. कविता में जनतंत्र स्तंभ की चौदहवीं क़िस्त.

//
(इलस्ट्रेशन: परिप्लब चक्रवर्ती/द वायर)
(इलस्ट्रेशन: परिप्लब चक्रवर्ती/द वायर)

इंसाफ़ लोगों के लिए रोटी है.
कभी यह बहुत होती है, कभी बिल्कुल नहीं.
कभी यह जायकेदार होती है और कभी बिल्कुल बेस्वाद.
जब रोटी न हो, भूख होती है.
जब रोटी बेस्वाद हो, असंतोष होता है.

बुरे इंसाफ़ को फेंक दो
बिना मोहब्बत के सेंकी गई, बिना ज्ञान के गूंधी गई!
इंसाफ़ बिना किसी सुगंध के, भूरी पपड़ीवाला
बासी इंसाफ़ जो बहुत देर से आता है!

अगर रोटी अच्छी और बहुत हो,
बाक़ी खाने की फ़िक्र छोड़ी भी जा सकती है.
एक ही साथ हर चीज़ भरपूर नहीं मिल सकती.
इंसाफ़ की रोटी के सहारे
काम किया जा सकता है
जिससे भरपूर मिल सके.

जैसे रोज़ाना रोटी ज़रूरी है
वैसे ही रोज़ाना इंसाफ़.
यह और भी ज़रूरी है एक दिन में कई बार.

सुबह से शाम तक, काम करते हुए, ख़ुद आनंदित होते हुए.
काम करते हुए, जो ख़ुद आनंद है.
मुश्किल वक्तों में और खुशहाल दिनों में
जनता को चाहिए भरपूर, सेहतमंद
रोज़ाना रोटी इंसाफ़ की.

चूंकि इंसाफ़ की रोटी इतनी अहम है
दोस्तो, कौन सेंकेगा इसे?

वह दूसरी रोटी कौन सेंकता है?

उस दूसरी रोटी की तरह
इंसाफ़ की रोटी भी जनता को ही
सेंकनी चाहिए.

भरपूर, सेहतमंद, रोज़ाना.

ब्रेख़्त की यह कविता इंसाफ़ का पूरा सिद्धांत देती है. इंसाफ़ इंसाफ़ तभी है जब वह इत्तेफ़ाक़ न हो, जब वह नियम हो अपवाद नहीं. जब वह समझ के साथ किया जाए और उसमें सद्भावना शामिल हो.

बर्तोल्त ब्रेख़्त की यह कविता ‘जनता की रोटी’ भारतीय जनतंत्र के इस दौर में बार-बार याद आती रही है. जब यह लिख रहा हूं खबर मिली कि पत्रकार प्रबीर पुरकायस्थ की गिरफ़्तारी को सर्वोच्च न्यायालय ने प्रक्रियाओं के ख़िलाफ़ मानकर उनकी रिहाई का आदेश दिया है. वे 6 महीने से ज़्यादा जेल में रह चुके हैं.

उसके पहले जब सर्वोच्च न्यायालय ने जब गौतम नवलखा को सशर्त ज़मानत दी तब भी यह कविता बरबस याद आ गई. गौतम 4 साल से ज़्यादा वक्त से जेल में बंद हैं. पिछले साल उन्हें बॉम्बे उच्च न्यायालय ने जमानत दे दी थी, लेकिन फिर उसे स्थगित भी कर दिया था. उन्हें भीमा कोरेगांव षड्यंत्र के मामले में गिरफ़्तार किया गया था.

साज़िश की यह कहानी हिंदुस्तान की पुलिस ने गढ़ी है जिसके सहारे उसने गौतम समेत 15 मानवाधिकार कार्यकर्ताओं और राजनीतिक कार्यकर्ताओं को देश में अलग-अलग जगह से गिरफ़्तार किया था. गौतम के पहले इसी मामले में 5 साल से ऊपर से गिरफ़्तार शोमा सेन को भी ज़मानत दी गई. उसके पहले सुधा भारद्वाज को. वरवर राव को भी लंबे अरसे तक जेल में रखने के बाद ख़राब सेहत की वजह से जमानत मिली. लेकिन दिल्ली यूनिवर्सिटी के अंग्रेज़ी के अध्यापक हैनी बाबू अभी जेल में हैं. बुजुर्ग मानवाधिकार कार्यकर्ता फादर स्टैन स्वामी तो जेल में ही गुज़र गए.

शरजील इमाम, उमर ख़ालिद, गुलफ़िशां फ़ातिमा, ख़ालिद सैफ़ी के साथ एक दर्जन लोग पिछले 4 साल से दिल्ली में हुई हिंसा के बारे में दिल्ली पुलिस द्वारा गढ़ी गई साज़िश की कहानी के चलते जेल में हैं. उनमें से कुछ लोगों को तो जमानत मिली है लेकिन बाक़ी सब जेल में बंद हैं.
इंसाफ़ की रोटी के टुकड़े जनता के आगे फेंककर उसे संतुष्ट करने की कोशिश की जा रही है. उस जनता को जो अरसे से इंसाफ़ की भूखी है.

दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल को भी लोकसभा चुनाव आधा बीत जाने के बाद जमानत दी गई. वह भी मानो एहसान हो. झारखंड के पूर्व मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन की जमानत की अर्ज़ी की तारीख़ आगे खिसकाई गई. उनके वकील ने जब कहा कि जिस आधार पर अरविंद केजरीवाल को ज़मानत दी गई है, वही हेमंत सोरेन पर लागू होता है, अदालत ने कहा, ‘नहीं, नहीं, हर मामला अलग है.’

10 साल जेल के रखने के बाद दिल्ली विश्वविद्यालय के अंग्रेज़ी के अध्यापक जीएन साईबाबा को आरोप मुक्त किया गया. ज़िंदगी के 10 साल!

इंसाफ़ की रोटी के टुकड़े: आधे, बासी, बेस्वाद.

यह कविता तब याद आई जब स्टैन स्वामी की जमानत की अर्ज़ी ख़ारिज की गई. बूढ़े, बीमार स्टैन स्वामी को अदालत ने जेल में मरने दिया. फादर ने कहा था कि अगर उन्हें जमानत दी जाती है तो उन्हें अपने लोगों के बीच रांची में रहने दिया जाए. अदालत ने कहा कि यह मुमकिन नहीं है. और उस वक्त भी यह कविता याद आई. ख़ासकर ये पंक्तियां:

बुरे इंसाफ़ को फेंक दो
बिना मोहब्बत के सेंकी गई, बिना ज्ञान के गूंधी गई!
इंसाफ़ बिना किसी सुगंध के, भूरी पपड़ीवाला
बासी इंसाफ़ जो बहुत देर से आता है!

ब्रेख़्त मानो भारत के इन्हीं वक्तों के लिए यह कविता तब लिख रहे थे. लेकिन यह सिर्फ़ भारत के लिए, और सिर्फ़ आज के वक्त के लिए नहीं है. यह कविता अवाम, इंसाफ़ और जम्हूरियत के रिश्ते के बारे में है. इंसाफ़ अगर रोटी की तरह रोज़ मिलना है तो निज़ाम अवाम का होना चाहिए.

कविता पढ़कर भ्रम हो सकता है कि इंसाफ़ का काम सीधे जनता करेगी. क्या हम जनतांत्रिक सरकारों की अदालतों की बात कर रहे हैं? ज़ाहिर है, नहीं. इंसाफ़ सबसे अच्छे तरीक़े से जनतांत्रिक व्यवस्था में ही किया जा सकता है, ब्रेख़्त का यह कहना है. इंसाफ़ वह इस सवाल का जवाब देने की कोशिश करता है: कौन किस चीज़ का हक़दार है?

हक़ आज़ादी का, बाइज्जत ज़िंदगी का और उसे बसर करने के लिए ज़रूरी मौक़ों का, समाज के पास संसाधनों में हिस्सेदारी का.

इसे समझने में बहुत दिक़्क़त नहीं होनी चाहिए कि समाज के जो तबके ऐतिहासिक और सामाजिक वजहों से पीछे रह गए हैं, और दुनिया भर में आम तौर पर वे औरतें होंगी, अमेरिका में काले लोग होंगे, भारत में अनुसूचित जाति और जनजाति के, और मुसलमान समेत अल्पसंख्यक भी, उन्हें समाज के संसाधनों में पहले हिस्सा दिया जाएगा. यह पूरे समाज की सेहत के लिए भी ठीक है अगर हम समाज को एक शरीर मानते हैं कि उसके कमजोर अंग पर पहले ध्यान दिया जाए. यही इंसाफ़ है.

जनतंत्र के तर्क का इस्तेमाल करके इंसाफ़ के इस उसूल को बेकार कर दिया जा सकता है. अगर एक ऐसा बहुमत बना दिया जाए जो इसे इंसाफ़ न माने तो, जो कहे कि यह उसका हिस्सा है जो अल्पसंख्यकों को ग़ैरवाज़िब तरीक़े से दिया जा रहा है तो यह इंसाफ़ नहीं किया जा सकता. उसी तरह अगर समाज में बहुसंख्यक जनता से पूछा जाए तो औरतों को गर्भपात का अधिकार ही नहीं रहेगा. या अमेरिका में अगर यह ‘जनतांत्रिक’ तरीक़े से तय किया जाए कि डार्विन का सिद्धांत पढ़ाना है या नहीं तो बच्चों के जानने के अधिकार के ख़िलाफ़ राय बनेगी.

जनतंत्र इसलिए सिर्फ़ बहुमत के आधार पर चलनेवाली व्यवस्था नहीं. वह सामाजिक जीवन के बारे में सामूहिक तरीक़े से विचार विमर्श की दीर्घ प्रक्रियाओं के ज़रिये निर्णय लेने की व्यवस्था है. जनतंत्र ख़ुद इंसाफ़ है क्योंकि वह अपनी ज़िंदगी के बारे में फ़ैसला करने के मामूली से मामूली आदमी के हक़ को स्वीकार करने और हासिल करने का अब तक ईजाद किया सबसे कारगर रास्ता है.

जनतंत्र को हम इसलिए नहीं स्वीकार करते कि यह उपयोगी है, बल्कि इसलिए कि इसमें आंतरिक रूप से ऐसे गुण हैं जो इसे राजशाही या तानाशाही से बेहतर ठहराते हैं. किसी भी एक व्यक्ति को, एक दल को या एक समूह मात्र को सारे समाज के बारे में फ़ैसला करने का अधिकार नहीं दिया जा सकता. जनतंत्र ऐसी सामूहिकता की कल्पना है जिसमें सारे समुदायों की बराबर की हिस्सेदारी हो. और वह विभिन्न मतों को व्यक्त होने की जगह और मौक़ा दे. अगर एक समूह, एक व्यक्ति भी महसूस करे कि उसकी आवाज़ नहीं सुनी जा रही तो उस जनतंत्र को आत्मसमीक्षा की आवश्यकता है.

न्याय करने का काम ज़ाहिर है चुने हुए विशेषज्ञ करते हैं, लेकिन जनतंत्र में अनेक फ़ैसले का आधार संविधान है. संविधान बहुमतवाद के, जो बहुसंख्यकवाद में बदल जाता है, ख़तरे से बचने का तरीक़ा है. कुछ अधिकार संविधान में तय होते हैं जिन्हें न तो न्यायाधीशों की मर्ज़ी से स्थगित किया जा सकता है और जिन्हें बहुमत से आई हुई सरकारें भी नहीं ख़त्म कर सकतीं.

विचार, अभिव्यक्ति, संगठन, अपने धर्म और विश्वास के पालन, उसके प्रचार का अधिकार संविधानसम्मत है. उसी तरह इंसाफ़ का अधिकार भी संविधानसम्मत है. वह किसी की मर्ज़ी पर नहीं. इंसाफ़ और आज़ादी एक दूसरे से जुड़े हुए हैं. किसी की आज़ादी को राज्य के कहने भर से सीमित नहीं किया जा सकता. और वह कितनी, कब, किसे मिलनी है, अगर यह न्यायाधीशों की मर्ज़ी पर है तो फिर वह इंसाफ़ नहीं है.

चुनावी बॉन्ड पर 5 साल तक टालने के बाद फ़ैसला बासी रोटी है, सुधा भारद्वाज, वरवर राव को मुंबई की चौहद्दी में क़ैद करके ज़मानत रोटी का एक टुकड़ा है, गौतम नवलखा को जमानत जब हैनी बाबू जेल में है, बेस्वाद रोटी है. यह आधा अधूरा इंसाफ़ है, बल्कि इंसाफ़ का भ्रम है. क्या ऐसा इसलिए है कि हमारा जनतंत्र भी बहुसंख्यकवादी जनतंत्र में बदल गया है, जनतंत्र का भ्रम, आधा अधूरा?

(लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय में पढ़ाते हैं.)

(इस श्रृंखला के सभी लेख पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें.