उत्तर प्रदेश के मतदाताओं के लिए क्यों भिन्न है 2024 चुनाव

कहा जाता है कि कांग्रेस में प्रत्याशी चुनाव लड़ता है, भाजपा में संगठन यह जिम्मेदारी संभालता है. इस बार भाजपा और संघ के कार्यकर्ताओं में उत्साह कम दिखाई दे रहा है.

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गाजियाबाद के एक मतदान केंद्र पर मतदाता. (फोटो साभार: निर्वाचन आयोग/पीआईबी)

नई दिल्ली: गिरीश शर्मा को समझ नहीं आ रहा कि इस बार भाजपा का चुनाव-प्रचार इतना फीका क्यों है. ‘इनके लोग हमें घरों से बुलाकर वोट डालने ले जाते थे. इस बार क्या हुआ? कहां गए इनके पन्ना प्रमुख?’

गिरीश मथुरा ज़िले के ईसापुर गांव के निवासी हैं और पिछले कई लोकसभा चुनावों के गवाह हैं. ‘इस बार इनके लोग दिखाई ही नहीं दे रहे,’ वे कहते हैं.

पिछले दस वर्षों में भाजपा की चुनावी सफलता की एक बड़ी वजह पार्टी का विस्तृत और सघन तंत्र रहा है. प्रत्येक संसदीय क्षेत्र के प्रत्येक बूथ की जिम्मेदारी पन्ना प्रमुख संभालते हैं. पन्ना प्रमुख भाजपा संगठन की प्राथमिक और अत्यंत महत्वपूर्ण इकाई हैं. इन्हें अपने क्षेत्र के मतदाताओं की एक सूची दी जाती है, जिनसे वह मतदान से बहुत पहले मिलना-जुलना शुरू कर देते हैं और सुनिश्चित करते हैं कि वे मतदान करें.

इस तरह कई नागरिक जो भाजपा के मतदाता नहीं हैं, पन्ना प्रमुखों द्वारा निरंतर संपर्क किए जाने के बाद पार्टी की ओर झुक जाते हैं.

उत्तर प्रदेश के कई संसदीय क्षेत्रों में इस बार ये पदाधिकारी सिरे से गायब हैं. ठीक इसलिए, विश्लेषक कहते हैं कि 2014 और 2019 के मुकाबले इस बार उत्तर प्रदेश का चुनाव कई अर्थों में भिन्न है.

हतोत्साहित संघ

पहला, भाजपा की ताकत यानी उसका संघ परिवार इस बार कहीं मद्धिम है. कहा जाता है कि कांग्रेस में प्रत्याशी चुनाव लड़ता है, भाजपा में संगठन यह जिम्मेदारी संभालता है. ‘इस बार भाजपा कार्यकर्ताओं में उत्साह बहुत कम है. वे प्रायः दिखाई नहीं दे रहे,’ मैनपुरी में कार्यरत एक वरिष्ठ पत्रकार बताते हैं जो ‘दैनिक जागरण’ से कई दशकों से जुड़े हैं और भाजपा को गहराई से समझते हैं.

सहारनपुर के एक निवासी इसकी पुष्टि एक बेहतरीन उदाहरण से करते हैं. ‘ठीक तीन महीने पहले राम मंदिर की प्राण-प्रतिष्ठा में इन लोगों (संघ परिवार) ने जान लगा दी थी. महीने भर पहले से घर-घर जाना शुरू कर दिया था. जन्मभूमि और नरेंद्र मोदी के पोस्टर बांट रहे थे. ऐसा ही ये लोग चुनावों के समय करते थे. इस बार अचानक क्या हो गया? कोई पोस्टर-परचा-झंडा नहीं? कोई वोट मांगने हमारे घर ही नहीं आया.’

इसकी वजह बतलाते हैं राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के पुरोधा दीनदयाल उपाध्याय की जन्मस्थली दीनदयाल धाम के एक निवासी, जो संघ की विचारधारा से ताल्लुक रखते हैं. ‘सच यह है कि हमारा कार्यकर्ता नाराज है. आप बाहरी लोगों को ले आए हो. जिन लोगों के खिलाफ़ हम कल तक संघर्ष कर रहे थे, वे हमारे पाले में आ गए हैं,’ वे कहते हैं.

दूसरी वजह यह है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के खिलाफ़ थोड़ा असंतोष उमड़ रहा है. ‘उन्होंने मध्य प्रदेश में शिवराज सिंह और छत्तीसगढ़ में रमन सिंह को निबटा दिया. क्या यही वे योगी (आदित्यनाथ) के साथ करने वाले हैं?’ वे जोड़ते हैं.

पश्चिमी उत्तर प्रदेश में संघ के एक पदाधिकारी कहते हैं, ‘मैं कभी चुनावों में फ्री नहीं रहता था. इस बार मैं घर से ही नहीं निकला. संघ का कार्यकर्ता घर से ही नहीं निकल रहा.’

भाजपा में उभरी अंदरूनी कलह

दूसरा, भाजपा में उमड़ती अंतर्कलह. इसका एक प्रमुख गवाह है फतेहपुर सीकरी सीट जो पिछले दो चुनावों से भाजपा के पास है. 2019 में यहां से भाजपा प्रत्याशी राजकुमार चाहर 4,95,065 मतों से जीते थे, जो वाराणसी में मोदी की जीत से भी बड़ी थी. इसकी बड़ी वजह थी चाहर को 2014 के भाजपा सांसद और स्थानीय बाहुबली बाबूलाल चौधरी का समर्थन. बाबूलाल इस बार चाहर का कड़ा विरोध कर रहे थे. उन्होंने सार्वजनिक सभाओं में स्पष्ट कर दिया था कि अगर भाजपा चाहर को टिकट देती है, वे उन्हें हराने के लिए कोई कसर नहीं छोड़ेंगे. यही हुआ.

बाबूलाल ने भाजपा के खिलाफ़ बगावत कर दी और अपने बेटे रामेश्वर चौधरी को निर्दलीय उतार दिया. स्थानीय रुझानों के अनुसार चाहर को गहरा नुकसान हुआ है.

टिकट वितरण पर अंतर्कलह अन्य जगहों पर भी दिखाई देती है. ‘आपने मेरठ से लगातार तीन बार के सांसद (राजेंद्र अग्रवाल) की टिकट काट दी. गाज़ियाबाद से दो बार के सांसद (सेवानिवृत्त जनरल वीके सिंह) की टिकट काट दिया. बागपत से दो बार के सांसद का टिकट सिर्फ़ इसलिए कटा क्योंकि भाजपा आलाकमान की उनसे नाराजगी थी,’ पश्चिमी उत्तर प्रदेश में संघ के एक पदाधिकारी कहते हैं.

माना जा रहा है कि भाजपा के शीर्षस्थ नेता बागपत के वर्तमान भाजपा सांसद और मुंबई के भूतपूर्व पुलिस कमिश्नर चौधरी सत्यपाल सिंह से किसी वजह से नाराज थे. उनका न सिर्फ़ टिकट काटा गया, बल्कि भाजपा ने राष्ट्रीय लोक दल से गठबंधन कर उनके प्रत्याशी को बागपत सौंप दिया. ‘इन तीनों के टिकट कटने पर कार्यकर्ताओं में बहुत नाराजगी है,’ संघ के पदाधिकारी कहते हैं.

कथित ऊंची जातियों का कम मत प्रतिशत

तीसरा, भाजपा के पारंपरिक सवर्ण मतदाता ने कहीं कम मतदान किया है. इस पत्रकार ने पश्चिमी उत्तर प्रदेश के कई ज़िलों में कई परिवारों से बात की. सबका कहना था कि वे अमूमन सुबह दसेक बजे के बाद मतदान करने नहीं गए.

‘यह तो है कि इस बार हमारे लोग बहुत कम वोट डालने गए हैं,’ दिल्ली में कार्यरत एक वकील कहते हैं जो अलीगढ़ के निवासी हैं और जिनके परिवार का राज्य की भाजपा सरकार में प्रतिनिधित्व रहा है.

आगरा में एक चौहत्तर वर्षीय सेवानिवृत्त सवर्ण अधिकारी ने पिछले दोनों लोकसभा और विधानसभा चुनावों में सपत्नीक भाजपा को वोट डाला था. इस बार उनकी पत्नी नहीं गईं, और उन्होंने खुद नोटा को चुना. ‘इस बार तो कोई हमारी कॉलोनी में प्रचार करने भी नहीं आया. हम ही क्यों वोट डालने जाते,’ वे कहते हैं.

‘इंडिया’ गठबंधन ने पहुंच बनाई

चौथा, इस बार सपा और कांग्रेस का गठबंधन बेहतर काम कर रहा है. ‘हमारे गांव में पहली बार हुआ है कि आधे से अधिक ठाकुरों ने कांग्रेस को वोट डाल दिया. जब कांग्रेस अपने चरम पर थी, तब भी ठाकुरों का वोट कांग्रेस को नहीं मिलता था. वे या तो भाजपा को देते थे या चौधरी चरण सिंह को,’ गिरीश शर्मा कहते हैं.

दिलचस्प है कि यह स्थिति तब आई जब मथुरा से गठबंधन के कांग्रेस प्रत्याशी मुकेश धनगर वर्तमान सांसद हेमा मालिनी के समक्ष कहीं अज्ञात नेता हैं.

इस गठबंधन की ताईद मैनपुरी के पत्रकार भी करते हैं. ‘इस बार गठबंधन मजबूत है. बसपा का भी थोड़ा वोट सपा को जा रहा है.’

यादव-मुसलमान की पार्टी मानी जाने वाली सपा ने टिकट वितरण की अपनी रणनीति को इस बार बुनियादी तौर पर बदल दिया है. 2019 में सपा ने कुल 37 सीटों पर अपने प्रत्याशी उतारे थे, जिसमें दस यादव थे और चार मुसलमान थे. सपा इस बार 63 सीट पर लड़ रही है, जिसमें से केवल पांच यादव हैं और चार मुसलमान.

सपा की रणनीति है कि जहां जिस वर्ग की आबादी सर्वाधिक है, उसे टिकट दी जाए. मसलन, जिस सीट पर भाजपा का पारंपरिक लोधी वोट है, सपा ने लोधी को टिकट दिया है. यानी भाजपा का बीस-तीस प्रतिशत वोट टूटकर सपा की ओर जा सकता है.

पार्टी ने मुसलमानों और यादवों की बजाय पिछड़ी जातियों और दलित समुदाय को अधिक टिकट दिए हैं. पिछली बार सपा ने एक भी जाटव को टिकट नहीं दिया था, जबकि इस बार छह जाटवों को मैदान में उतारा है. जाहिर है, यह बसपा के वोट तोड़ने की कवायद है.

चूंकि यह गठबंधन मजबूत दिखाई दे रहा है, माना जा रहा है कि मुसलमान के वोट भी बहुत कम विभाजित हुए हैं.

क्या राम मंदिर का प्रभाव धीमा हो गया?

सबसे बड़ा फ़र्क राम मंदिर को लेकर दिखाई देता है. पिछले दो लोकसभा चुनावों में संघ परिवार ने इसे बड़ा मुद्दा बनाया था. लेकिन आज कार्यकर्ता उस मुद्दे पर भी उदासीन दिखाई दे रहे हैं जो पिछले कई दशकों से उनके अस्तित्व की सबसे बड़ी पहचान बना हुआ था. ‘हमने जनवरी में माहौल बना दिया था कि इस बार तो पूरा चुनाव राम मंदिर के नाम पर लड़ जाएगा. लेकिन अब हम पीछे हट गए हैं,’ संघ के एक पदाधिकारी कहते हैं.

बड़े नेता भले ही अपनी रैलियों में मंदिर का ज़िक्र कर रहे हैं, ज़मीन पर गूँज अधिक सुनाई नहीं दे रही.

संघ के कुछ कार्यकर्ता प्रधानमंत्री के कुछ बयानों से नाख़ुश भी हैं. ‘आप टेम्पो (अडानी-अंबानी कांग्रेस को पैसा दे रहे हैं) का बयान क्यों दे रहे हैं? आप प्रधानमंत्री हो. अगर कोई ऐसा पैसा पहुंचा रहा है, उसके खिलाफ़ कदम उठाओ,’ संघ के एक पदाधिकारी कहते हैं.

यानी भाजपा के कुछ परंपरागत वोटर इस बार कहीं उदासीन तो कहीं हतोत्साहित हुए हैं. वे भले ही मोदी के विपक्ष में नहीं आए, लेकिन विमुख जरूर हुए हैं.

अब तक के चार चरणों की एक बेहतरीन व्याख्या आठ मई के ‘दैनिक हिंदुस्तान’ में मिलती है, जब इसके पत्रकारों ने रुनकता से बटेश्वर तक एक सौ सत्तर किमी का सफ़र तय किया और लिखा: ‘न कोई पार्टी, न कोई राष्ट्रीय मुद्दा. किसी तरह की कोई हवा भी नहीं.’

इस अख़बार ने नौ मई को इन चुनावों को निर्धारित करते ‘पांच बड़े फैक्टर’ इंगित किए थे: दलित वोट बैंक इस बार परंपरागत रास्ते से छिटका; मुस्लिम मतदाता बिखराव से बचकर एक राह चला; ठाकुर, ब्राह्मण और जाटों में दिखाई दिया बिखराव; किलेबंदी में लगी सेंध.

संभव है कि मतदाता के भीतर कुछ ऐसा है जिसे वे उजागर नहीं कर रहे. या फिर प्रधानमंत्री की व्यक्तिगत छवि उपरोक्त फ़र्क को बेमानी कर दे और वे तीसरी बार फिर विराट बहुमत द्वारा चुन लिए जाएं. लेकिन यह तय है कि इस चुनाव की सतह पिछले दो चुनावों से भिन्न है.