नई दिल्ली: लांसेट की एक अध्ययन से पता चला है कि स्वास्थ्य विभाग का निजीकरण अस्पतालों में मरीजों की देखभाल पर बुरा असर डालता है और रोगियों के स्वास्थ्य पर नकारात्मक प्रभाव पड़ता है.
इस अध्ययन में उच्च आय वाले देशों में सार्वजनिक अस्पतालों को निजी अस्पतालों में बदलने तथा सरकारी अस्पतालों द्वारा दी जाने वाली सेवाओं को आउटसोर्स किए जाने के परिणामों पर किए गए कई अध्ययनों का विश्लेषण किया गया है.
टाइम्स ऑफ इंडिया के मुताबिक, ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय में सोशल पॉलिसी एंड इंटरवेंशन विभाग के शोधकर्ताओं द्वारा प्रकाशित इस रिसर्च पेपर में अमेरिका, जर्मनी, ब्रिटेन, स्वीडन, दक्षिण कोरिया आदि के अध्यनों की समीक्षा की गई है. इसमें पाया गया कि सार्वजनिक से निजी में बदले जाने के बाद अस्पतालों के मुनाफे में बढ़ोतरी होती है, मुख्य रूप से यह बढ़ोतरी अस्पताल में काम कर रहे कर्मचारियों की संख्या में कटौती करके तथा चुनिंदा तरीके से मरीजों को भर्ती करने से होती है.
शोधकर्ताओं ने कहा कि उनके विश्लेषण ने ऐसे साक्ष्य दिए हैं जो स्वास्थ्य सेवा के निजीकरण के पक्ष में दिए जाने वाले अहम कारणों को चुनौती देते हैं और यह निष्कर्ष निकलकर आया है कि स्वास्थ्य सेवाओं के निजीकरण के पक्ष में दी गईं वैज्ञानिक दलीलें भी काफी कमजोर हैं.
रिसर्च में सामने आया कि निजीकरण के बाद अस्पतालों में मरीजों की देखभाल की गुणवत्ता में काफी गिरावट दर्ज की जाती है. निजी अस्पताल अपने यहां काम कर रहे कर्मचारियों की संख्या में कटौती करते हैं, विशेष तौर पर उच्चस्तरीय योग्यता रखने वाली नर्सों की संख्या में. यह भी पाया गया कि प्रति मरीज कम कर्मचारी नियुक्त किए जाते हैं, विशेषकर सफाई कर्मचारी, जिससे एक मरीज का ध्यान रखने के लिए जितने लोगों की जरूरत होती है, उतने नहीं होते.
दिलचस्प बात यह है कि निजीकरण के बाद चिकित्सकों की संख्या कम नहीं की गई, जबकि अधिकांश अन्य कर्मचारियों की श्रेणियों में कमी आई है.
कुल मिलाकर परिणाम यह बताते हैं कि आम लोगों द्वारा स्वास्थ्य सुविधा की पहुंच कई तरीकों से प्रभावित हो सकती है. जैसे कि जिन मरीजों के इलाज करने से निजी क्षेत्र को कम मुनाफा होगा, उनका इलाज वह नहीं करेंगे.
जो लोग निजी क्षेत्र में आउटसोर्सिंग सेवाओं की वकालत करते हैं, उनका तर्क है कि वित्तीय जवाबदेही निजी कंपनियों को मरीजों की भलाई सुनिश्चित करने के लिए मजबूर करती है और अनावश्यक नौकरशाही को खत्म करती है. यह भी तर्क दिया जाता है कि निजी सुविधाओं में प्रतिस्पर्धा होने से सभी कर्मचारी बेहतर गुणवत्ता वाली सेवाएं देने के लिए प्रोत्साहित होंगे, जिसके चलते संपूर्ण स्वास्थ्य प्रणाली के प्रदर्शन में सुधार होगा.
हालांकि, शोधकर्ताओं का मानना है कि जो अपेक्षाएं हैं कि प्रतिस्पर्धा बढ़ा कर गुणवत्ता बढ़ाना, ये हमारे शोध में आए परिणामों के साथ मेल नहीं खातीं.