नागरिकता के सीमांतों पर खड़े लोग
संदिग्ध हो जाते हैं
वे बहुसंख्यक आबादी की पूंछ माने जाते हैं
जानवरों की तरह
लोग उनसे अपनी देह की मक्खियां झाड़ते हैं
उन्हें वे अपने पेट तक नहीं पहुंचने देते
अपने सीने से नहीं लगने देते
अपनी ज़बान की भाषा तो
उन्हें कभी होने ही नहीं दिया जाता
वे उन्हें अपने मलद्वार के ठीक ऊपर
लटका कर रखते हैं
अकविता की भाषा की तरह
बहुसंख्यक अपने बच्चों को उनसे दूर रखते हैं
वे असभ्य और पिछड़े माने जाते हैं
नागरिकता के सीमांत पर खड़े लोग
कभी जम्मू के हो जाते हैं
तो कभी कश्मीर के
तो कभी बस्तर के
वे सीरिया, फ़िलिस्तीन, म्यांमार
मेक्सिको, ग्वाटेमाला, कहीं के भी हो सकते हैं
यहां तक कि वे हमारे घरों में
चूल्हों, चौकियों और चौखटों के हो जाते हैं
धीरे-धीरे वे ग़ुस्सैल हो जाते हैं
वे चिड़चिड़े हो जाते हैं
कभी-कभी वे हथियारबंद भी हो जाते हैं
तब उन्हें और आसान हो जाता है नागरिकता के पायदान से धक्के दे देना
नागरिकता के सीमांत पर खड़े लोग आपकी तरह
मुस्कुराते हुए आधार कार्ड नहीं दिखा सकते
राशन कार्ड लिए हुए भी उनका दिल धड़कता रहता है
वे जानते हैं उन्हें कभी भी अनाज की जगह
जेल की सलाखें मिल सकती हैं
वे आपको अपना भूगोल दिखा सकते हैं मानचित्र नहीं
वे गोद में अपनी
बिलखते बच्चों को दिखा सकते हैं, उनका भविष्य नहीं
वे आपको अपनी आंखें दिखा सकते हैं, रुदन नहीं
वे नदियों, नालों, पहाड़ों
और कंटीले रास्तों को पार करते हुए
हमेशा किसी अनिश्चितता में पहुंचते हैं
यह उनकी ख़ूबसूरती है कि
वे हर चीज़ को लांघते हुए
आदमियत के बंद दरवाज़ों को तोड़ते हैं.
अनुज लुगुन की ‘नागरिकता के सीमांतों पर खड़े लोग’ की भाषा और जम्मू, कश्मीर, बस्तर जैसी जगहों के ज़िक्र से लग सकता है कि यह कविता प्राथमिक रूप से भारत के बारे में है. लेकिन इन नामों के फ़ौरन बाद सीरिया, मेक्सिको, म्यांमार जैसे नाम आपको सावधान करते हैं. कविता एक विश्वव्यापी सार्वभौम अनुभव के बारे में है. इसे आप नागरिकता का अनुभव या नागरिकता की सरहद पर रहने वालों का अनुभव कह सकते हैं.
कौन नागरिकता के दायरे के केंद्र में और कौन हमेशा परिधि पर लटके रहने को अभिशप्त है? यह सवाल आज की हर भाषा का सबसे महत्त्वपूर्ण प्रश्न हो उठा है. लेकिन उसके पहले हम यह देखें कि जनतंत्र में जन कौन है? उसे क्या अनिवार्यत: नागरिक होना चाहिए? नागरिकता को जितना स्वाभाविक मान लिया गया है, क्या वह वैसी है या उसे वैसा होना चाहिए?
लोग या नागरिक? संविधान नागरिकों ने स्वीकार या ख़ुद को सुपुर्द नहीं किया था. संकल्प नागरिकों ने नहीं लोगों ने लिया था. संविधान की प्रस्तावना शुरू होती है: ‘हम भारत के लोग’ से. लेकिन सारी जनतांत्रिक प्रक्रियाएं जो इस संविधान से शुरू होती हैं निर्माण करती हैं नागरिक का. और यह अधिकार मिलता है राज्य को कि वह आपको नागरिक होने का प्रमाण पत्र दे. नागरिक कहने में जो शान है वह लोग कहने में कहां? नागरिक में गंभीरता है, लोग में हल्कापन.
नागरिक को ही मतदान का अधिकार है. लेकिन वह अधिकार भी हर किसी को पूरा मिले, ज़रूरी नहीं. अनुज लुगुन की इस कविता को पढ़ते समय भारत के अलग अलग शहरों में मुसलमानों को वोट देने से रोकने के दृश्य याद आते रहे. अनुज सीमांत पर खड़े या उससे टंगे लोगों की बात कर रहे हैं. ये सरहदें वहां भी हैं जिन्हें केंद्र माना जाता है. जैसे कानपुर या बड़ौदा या दिल्ली या हैदराबाद.
भारत के एक प्रदेश, असम में एक पूरी श्रेणी तैयार कर दी गई है, डी वोटर की. डी: डाउटफुल, संदिग्ध. वे असम में पीढ़ियों से रहते आने के बावजूद आज नागरिकता के सीमांत पर खड़े हैं या धकेल दिए गए हैं:
नागरिकता के सीमांतों पर खड़े लोग
संदिग्ध हो जाते हैं
यह कविता उस समय लिखी गई थी जब भारतीय जनतंत्र ने लोगों को नागरिकता तक पहुंचने के लिए एक रास्ता बनाया और उसके प्रवेश पर एक तख़्ती टांग दी: इस रास्ते पर मुसलमान नहीं चल सकते. और उसी समय उसने एक प्रक्रिया शुरू की इसकी जांच करने की कि आपको नागरिकता का दर्जा मिले इसके लिए आपके पास सबूत हैं या नहीं. वह सबूत यह नहीं है कि आपके परनाना या परनानी की क़ब्रें यहां हैं या नहीं, बल्कि वे काग़ज़ात हैं जिन्हें जनता के द्वारा चुनी हुई जनतांत्रिक सरकार नागरिकता के प्रमाण के रूप में स्वीकार करती है.
असम में अभी 19 लाख लोग नागरिकता के सीमांत पर हैं. वे संदिग्ध लोगों में बदल दिए गए हैं. उनकी ज़मीन ली जा सकती है, उन्हें घरों से बेदख़ल किया जा सकता है और डिटेंशन कैंपों में बंद किया जा सकता है. सैंकड़ों लोग पहले से उन कैंपों में बंद हैं.
कौन लोग नागरिक हैं? यह मेरी पैदाइश तय करेगी या यह कि मेरे मां बाप, दादा-दादी नागरिक थे या नहीं?
अशोक वाजपेयी अपनी एक कविता में लिखते हैं कि किसी प्रयोजन से जब पुरखों की याद की ज़रूरत पड़ी तो कवि तीन पीढ़ियों के पीछे के नाम नहीं बता सका. विरासत कौन-सी, कितनी दूर तक की?
नागरिक की कल्पना बिना अनागरिक के नहीं की जा सकती. राज्य की धूप में खड़े होने पर नागरिक की छाया गिरती है और अनागरिक का निर्माण करती है.
कुछ साल पहले, तक़रीबन तभी जब यह कविता लिखी गई होगी, भुवनेश्वर में गांधी पर एक सेमिनार में आलोक राय ने मुझे एक कहावत सुनाई: इंसान दो पैरों पर चलने वाला प्राणी है. उसकी इंसानियत उसकी इस गतिशीलता में में है. इस गतिशीलता ने ही उनका सृजन किया है जिन्हें हम सभ्यता कह सकते हैं.
निवेदिता मेनन लिखती हैं कि लोगों ने नहीं, राष्ट्र राज्यों ने नागरिकता का निर्माण किया. जब हमने राष्ट्र राज्य को गृहप्रदेश कहके उसके दरवाज़े बंद किए, सीमाएं खींचीं और लोगों का बंटवारा नागरिकों, आप्रवासियों, प्रवासियों और शरणार्थियों के बीच किया. यह भुलाते हुए कि मानवीय समाज अनंत काल से लगातार एक जगह से दूसरी जगह आते जाते लोगों ने बनाए हैं. मानवीय तस्करी की अवधारणा का रिश्ता सरहदों में बंद राष्ट्र राज्य से है.
जनतंत्र इस मूल मानवीय स्वभाव गतिशीलता की रक्षा करता है या उसमें बाधा डालकर उसे जड़ कर देता है?
इस प्रश्न के साथ निवेदिता मेनन की एक बात याद आती है. गति के साथ श्रम को भी जोड़ लीजिए. यह ज़मीन मेरी है, इस पर मेरा हक़ है. सिर्फ़ इसलिए नहीं कि इसकी मिट्टी में मेरे पूर्वजों की राख मिली है या इसमें मेरी पुरखिनें दफ़्न हैं, बल्कि इसलिए भी कि इस ज़मीन पर मेरा पसीना गिरा है. सवाल सिर्फ़ खून का नहीं, पसीने का भी है.
पसीना यानी श्रम जो जीवन का सृजन करता है और राष्ट्रों का भी. अनुज लुगुन अपनी दूसरी कविता ‘मुझे मेरी नागरिकता दे दो’ में निवेदिता मेनन की तरह ही नागरिकता का वैकल्पिक प्रस्ताव करते हैं:
मुझे मेरी नागरिकता दे दो
मुझे मेरी अस्मिता दे दो
मानचित्र की उलझी रेखाओं में नहीं
आदमी होने की भाषा में मुझे नागरिकता दे दो.
मैं हिंदू हूं, बौद्ध हूं,
ईसाई हूं, पारसी हूं,
मुसलमान हूं
कोई भी हूं
मुझे मेरी सम्मिलित नागरिकता दे दो
मुझे छत दे दो
भात दे दो
लिखने का हाथ दे दो
मुझे मेरी ज़बान आज़ाद दे दो
संविधान में लिखी थी जो धर्म की बात
मुझे वही बात दे दो
कल जो होंगे मेरे बच्चे
नंगे और ठिठुरते हुए
उनको ग़रीबी की जात दे दो
मुझे आदमी होने की बात दे दो
तुम तो करोगे राज-पाट की बात
मुझे काम-काज की बात कर लेने दो
कुदाल चला लेने दो
लोहा गला लेने दो
अपना पेट पाल लेने दो
मुझे मेरी श्रमशील नागरिकता दे दो.
श्रमशील नागरिकता, सम्मिलित नागरिकता बिना आज़ाद ज़बान के कैसे मिल सकती है? और वह ज़बान भी क्या है: ‘आदमी होने की भाषा’, ‘आदमी होने की बात’! क्या यह मांग सिर्फ़ कवि की है जनतंत्र से?
(लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय में पढ़ाते हैं.)
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