यूपी: मगहर के बुनकरों और गांधी आश्रम के पूर्व कर्मचारियों की आवाज़ चुनाव में कहां है?

गोरखपुर उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ का गृह-नगर है. इस ज़िले से महज़ 31 किलोमीटर दूर मगहर में स्थित गांधी आश्रम और कताई मिल जर्जर हालत में हैं. गांधी आश्रम पर श्रमिकों-कर्मचारियों के वेतन, पीएफ, ग्रैच्युटी के साथ लगभग 22 करोड़ रुपये की देनदारी है.

मगहर का गांधी आश्रम, आश्रम के कर्मचारी और बंद कताई मिल का गेट. (सभी फोटो: मनोज सिंह)

मगहर: मगहर विद्रोही संत कबीर की धरती है जहां वे अपने अंतिम दिनों में चले आए थे. यहां उनकी समाधि और मजार हैं. कबीर का मगहर बुनकरों का था जहां झीनी-झीनी चादरिया बुनी जाती थी. आज गोरखपुर ज़िले से 31 किलोमीटर दूर संत कबीर नगर ज़िले के मगहर में स्थित कबीर की निर्वाण-स्थली को नए सिरे से सजाने व संवारने का काम चल रहा है. पिछले लोकसभा चुनाव के प्रचार का आगाज करते हुए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने यहां पर 24 करोड़ से संत कबीर अकादमी की नींव रखी थी जो लगभग बनकर तैयार है. अभी इसका उद्घाटन नहीं हुआ है.

इसके अलावा स्वदेश दर्शन योजना के तहत कई काम कराए गए हैं लेकिन इसी नगर में आजादी के बाद बना गांधी आश्रम और कताई मिल तीन दशक से बंद पड़ा है. दोनों संस्थानों के करीब 2500 श्रमिक-कर्मचारी बेरोजगार और विस्थापित हो गए और इस पर आश्रित 15 हजार से अधिक बुनकरों की जिंदगी का ताना बाना टूट गया लेकिन उनकी कोई आवाज 2024 के लोकसभा चुनाव में नहीं सुनाई दे रही है.

संत कबीर की निर्वाण स्थली के ठीक सामने 1955 में बना गांधी आश्रम है. यह वर्ष 1997 से बंद पड़ा है. यहां पर एक हजार श्रमिक व कर्मचारी काम करते थे जिनमें अब सिर्फ दो दर्जन बचे हैं.

गांधी आश्रम में श्रमिक के रूप में कार्यरत जगई मई की सात तारीख को रिटायर हो गए. वे गांधी आश्रम में तैयार किए गए कपड़ों व अन्य वस्तुओं की ढुलाई का काम करते थे. वह वर्ष 1981 में गांधी आश्रम में काम करने आए थे. करीब पांच वर्ष तक 180 रुपये महीना पर कैजुअल लेबर के बतौर काम करने के बाद 1986 में उन्हें स्थायी किया गया. उस समय उनका वेतन 210 रुपये महीना था. रिटायर होने के समय उनका वेतन 10,500 रुपये था. गांधी आश्रम पर उनका पांच वर्ष का वेतन के अलावे ग्रैच्युटी, बोनस, पीएफ आदि का पैसा बकाया है.

जगई संतकबीर नगर जिले के गुलटही हरपुर के रहने वाले है. गांधी आश्रम के अच्छे दिनों की याद करते हुए कहते हैं कि यहां कुर्ता, पजामा, साबुन, सरसों का तेल, अगरबत्ती, चरखा, कुर्सी, मेज, तख्ता, मसहरी से लगाई रोजमर्रा के जीवन में काम आने वाली सभी वस्तुओं का उत्पादन होता है. यहां का बना सूत बुनकर ले जाते थे और चादर, कपड़ा, तौलिया, गमछा, लुंगी आदि तैयार कर दे जाते थे. यहां से तैयार माल विक्रय केंद्रों पर पहुंचाने के लिए दो ट्रक हमेशा चलते रहते थे. दिन-रात कपड़ों की रंगाई-छपाई का काम होता था. गांधी आश्रम का अपना बड़का जनरेटर था जिससे पूरे परिसर में बिजली मिलती थी.

जगई.

जगई कहते हैं, ‘एक हजार मनई काम करत रहें. 15 हजार से अधिक बुनकर और कतिन यहां से जुड़ल रहें. सबकर रोजी रोटी बढ़िया से चलत रहे. सब बर्बाद हो गईल.’

जगई के साथ तीन और श्रमिक सात मई को रिटायर हो गए. अब दो और स्थायी श्रमिक रामअवध और रामवृक्ष यादव बचे हैं.

रामअवध गांधी आश्रम के भंडारी (कुक) हैं. गांधी आश्रम के परिसर में श्रमिकों के भोजन करने के लिए बड़ा सा कक्ष हुआ है. यह अब जर्जर हो गया है ओर यहां कबूतरों ने डेरा बना लिया है.

गांधी आश्रम का परिसर 27 एकड़ में फैला हुआ है. इसमें प्रयोगशाला, प्रशासनिक भवन, भंडार गृह, फर्नीचर निर्माण केंद्र, साबुन, अगरबत्ती, रंगाई-छपाई यूनिट सहित अन्य केंद्र है. गांधी आश्रम के एक-दो भवनों को छोड़ दें तो सभी ठीक-ठाक हालत में हैं. अलबत्ता साफ-सफाई नहीं होने से पूरे परिसर में झाड़-झंखाड़ से भरता जा रहा है. परिसर में बंदरों ने डेरा जमा लिया है और उन्हें भगाने के लिए जगह-जगह लंगूरों के पोस्टर लगाए गए हैं.

गांधी आश्रम के एकाउंटेंट सुभाष चंद्र पांडेय 2021 में रिटायर होने के बाद दैनिक वेतन पर आज भी अपना काम जारी रखे हुए हैं.

बलिया के सिकंदरपुर के रहने वाले पांडेय गांधी आश्रम का इतिहास बताते हुए कहते हैं कि गांधी आश्रम 2 जुलाई 1955 में स्थापित हुआ था. पहले यह गांधी आश्रम मेरठ के अंतर्गत आता था. बाद में इसे अकबरपुर क्षेत्र में कर दिया गया.

गांधी आश्रम की जर्जर रंगाई-छपाई यूनिट दिखाते गांधी आश्रम के एकाउंटेंट सुभाष चंद्र पांडेय.

वह बताते हैं, ‘गांधी आश्रम अपने काम-काज में स्वायत्त था. खादी ग्रामोद्वोग आयोग से मिली पूंजी पर हमने अपने श्रम व कौशल से इसे बहुत अच्छे से संचालित किया. हमें उत्पादित वस्तुओं के विक्रय पर केंद्र व राज्य सरकार से 25 फीसदी रिबेट मिलता था जिससे हम श्रमिकों-कर्मचारियों के वेतन व अपने खर्च का बंदोबस्त करते थे. इस व्यवस्था के तहत गांधी आश्रम 1995-1997 तक सुचारू रूप से चला. बाद में हमें सरकार व खादी ग्रामोद्योग आयोग से मदद मिलनी बंद हो गई. यह वही समय था जब हमारे उत्पादित वस्तुओं की मांग भी बाजार में कम होने लगी थी. बाजार में मशीनों से उत्पादित वस्तुएं आ गई जो हमारे उत्पादित वस्तुओं से सस्ती थी. इसी समय सरकार की ओर से विक्रय पर रिबेट बंद कर उत्पादन पर रिबेट की व्यवस्था बना दी गई. मांग कम होने से उत्पादन कम हो रहा था तो रिबेट भी कम मिलने लगा और गांधी आश्रम आर्थिक संकट में आ गया.’

उन्होंने बताया कि श्रमिक और कर्मचारी रिटायर होते गए और उनकी जगह नई भर्ती नहीं हुई. रिटायर कर्मचारियों को अपना पीएफ, ग्रेच्युटी, बोनस आदि का पैसा नहीं मिला तो उनमें से कई ने अदालत में केस करना शुरू कर दिया. आज दर्जनों केस अदालत में चल रहे हैं. श्रमिक और कर्मचारी चाहते थे कि सरकार गांधी आश्रम की मदद कर उसे चलाए या अंतिम रूप से बंद कर सभी के बकाए का भुगतान कर दिया जाए.

आज गांधी आश्रम पर श्रमिकों-कर्मचारियों के वेतन, पीएफ, ग्रैच्युटी के साथ लगभग 22 करोड़ की देनदारी है. इस देनदारी का भार उठाने के लिए गांधी और खादी का नाम जपने वाली सरकार तैयार नहीं है.

वर्तमान में गांधी आश्रम की व्यवस्था की देख रहे दो दर्जन कर्मचारी व अधिकारी कर रहे है. इनमें से अधिकतर रिटायर होने के बाद डेली वेज कर्मचारी के बतौर काम कर रहे हैं.

राम मिलन चौरसिया 2018 में रिटायर हुए थे अब वे भी दैनिक वेतन पर काम कर रहे हैं. करीब आठ हजार रुपये महीने मिलते हैं. कहते हैं कि दस लोगों के परिवार का बड़ी मुश्किल से गुजर बसर हो रहा है. हम अपने बकाए के लिए मजबूरी में यहां पड़े हैं.

चौरसिया के अनुसार उनको गांधी आश्रम से 10 लाख रुपये मिलने हैं. स्टोर-कीपर शिवशंकर यादव 2022 में रिटायर हुए. उनके भी करीब दस लाख रुपये गांधी आश्रम पर बकाया है.

इन लोगों के वेतन, गांधी आश्रम के बिजली आदि का खर्च निकालने के लिए गांधी आश्रम के कई भवनों को स्थानीय व्यवसायियों को किराये पर दिया जाने लगा है. किराए से 50-60 हजार रुपये महीने मिल जा रहे हैं.

गांधी आश्रम के मंत्री रविन्द्र लाल श्रीवास्तव अगले वर्ष जुलाई में रिटायर हो जाएंगे. उन्होंने भी अपने बकाए वेतन के लिए हाईकोर्ट में मुकदमा किया है.

वह कहते हैं कि गांधी आश्रम के पास अचल संपत्ति काफी है. हैंसर, चकिया, बालूशासन, कौलाडीह आदि के गांधी आश्रम इसी से जुड़े हैं और सबके पास अचल संपत्ति है. सरकार निर्णय ले तो गांधी आश्रम में फिर से रौनक लौट सकती है.

सुभाष पांडेय, शिवशंकर यादव, राम मिलन चौरसिया, जगई, रामअवध को गांधी आश्रम के फिर से चालू होने की कोई उम्मीद नहीं है.

वे कहते हैं कि पहले चुनाव में नेता गांधी आश्रम को फिर से चलाने की बात करते थे लेकिन अब तो हम लोगों के बारे में कोई आवाज नहीं उठाता. प्रधानमंत्री 2018 में जब मगहर आए थे तो हमने स्थानीय सांसद शरद त्रिपाठी के जरिये उनको ज्ञापन दिया था. तब थोड़ी उम्मीद जगी थी लेकिर तबसे लेकर आज तक कोई बात ही नहीं हुई.

गांधी आश्रम के कर्मचारी.

गांधी आश्रम के बंद होने से मगहर कस्बे के लोग भी प्रभावित हुए. गांधी आश्रम के सामने रामनिवास गुप्ता के पिता की चाय की दुकान थी जो खूब चलती थी. रामनिवास बताते हैं कि गांधी आश्रम के चार गेट से जब मजदूर और कर्मचारी आते-जाते तो खूब रौनक रहती. दुकान पर काम करने से फुरसत नहीं मिलती. गांधी आश्रम बंद हो गया तो दुकान भी बंद हो गई. घर के लोग मजदूरी करने पंजाब चले गए. राम निवास भी पंजाब चले गए. चार वर्ष पहले लौट आए. अब कबीर निर्वाण परिसर में चाट बेचते हैं.

बंद हुई कताई मिल भी

गांधी आश्रम की तरह 1977 में बना संत कबीर सहकारी कताई मिल 27 वर्ष से बंद पड़ा है. कताई मिल में उत्पादन तो 1997 में ही बंद हो गया था. इसके 10 वर्ष बाद 2007 में यहां काम कर रहे सभी कर्मचारियों को वीआरएस दे दिया गया.

कताई मिल जरूर बंद हो गई है लेकिन मिल के पास का चौराहा सूती मिल चौराहे के नाम से आबाद है. यहां के दुकानों में सूरत से आए कपड़े बेचे जाते हैं. ये दुकानें सूती मिल के बंद होने से यहां की आर्थिक स्थिति में आए बदलाव और बुनकरों के हालात की कहानी बयां करते हैं.

युवा अशरफ की इसी चौराहे पर अशरफ इंटरप्राइजेज नाम से दुकान है. वह सूरत से ट्रैक सूट के कपड़े मंगाते हैं जिसे कारीगर सिलाई कर तैयार कर स्थानीय बाजार में बेचते हैं. अशरफ के बाबा बुनकर थे और हैंडलूम पर काम करते थे. उनकी तरह हजारों बुनकर हैंडलूम पर गमछा, धोती, कुर्ता, लुंगी, चादर की बुनाई करते थे.

मगहर के कबीर आश्रम के किनारे आमी नदी पर दलित समुदाय के लोग बुनकरों द्वारा तैयार कपड़ों की धुलाई व रंगाई करते थे. संतकबीर सहकारी कताई मिल सूत उत्पादित करता था जो महाजनों व कॉरपोरेशन के जरिये बुनकरों को मिलता था. बुनकरों की आजीविका में इस कताई मिल का बहुत बड़ा योगदान था.

32 वर्षीय अशरफ बताते हैं कि उन्होंने बचपन में अपने घर में हैंडलूम पर बाबा और पिता को काम करते देखा है. अब मगहर में किसी भी घर में हैंडलूम नहीं है. बुनकरों ने या तो काम बदल लिया या यहां से पलायन कर गए. यहां के बुनकर मुंबई के भिवंडी सहित दूसरे जगहों पर काम कर रहे हैं. जो यहां पर है उन्होंने दूसरा काम शुरू कर दिया है. हम खुद तीसरी पीढ़ी में बुनकर से ट्रेडर बन गए हैं.

मगहर के कमाल अहमद कताई मिल में कर्मचारी रहे हैं. वह कताई मिल के रोलिंग विभाग में काम करते थे जहां धागा बनता था. कताई मिल के हालात के बारे में पूछते ही उनकी आंखों में इसके उद्घाटन का दृश्य कौंध गया. वह बताने लगे, ‘9 जनवरी 1977 को कताई मिल का उद्घाटन हुआ था. तब प्रदेश में कांग्रेस की सरकार थी और एनडी तिवारी मुख्यमंत्री थे. संजय गांधी कताई मिल का उद्घाटन करने आए थे. उस समय यहां लोगों को लाने के लिए एक स्पेशल ट्रेन चलाई गई थी. संजय गांधी खुली जीप में सवार होकर कताई मिल परिसर में बने मंच पर पहुंचे थे और भाषण दिया था.’

बंद कताई मिल के गेट पर कमाल अहमद.

यह मंच अब भी मौजूद है लेकिन पूरा कताई मिल परिसर जंगल में तब्दील हो चुका है. कताई मिल की देखरेख करने वाले फूलमन यादव हमें परिसर में नहीं जाने की चेतावनी देते हुए कहते हैं कि आप जंगली सुअर या सांपों के हमले के शिकार हो सकते हैं. कताई मिल परिसर की कर्मचारी कॉलोनी और बाहरी रास्ते को छोड़ पूरा परिसर बंद है और उसके अंदर जाने की किसी को इजाजत नहीं है.

कताई मिल की देखरेख के लिए प्राइवेट सिक्योरिटी कंपनी के 12 गार्ड यहां तैनात हैं जो तीन शिफ्ट में ड्यूटी करते हैं. वे भी पूरे परिसर में बनइला सुअरों और अजगरों की उपस्थिति से आगाह करते हुए कहते हैं कि उनकी ड्यूटी बहुत कठिन है. थोड़ा सा भी असवाधान हुए तो सर्प दंश या सुअरों के हमले के शिकार हो सकते हैं. बरसात में पूरा परिसर पानी से भर जाता है.

कर्मचारी कॉलोनी में अब सिर्फ दो परिवार हैं. कताई मिल में स्थित मंदिर के पुजारी और इस मिल की स्थापना से यहां प्रबंध निदेशक व जीएम की कार चलाने वाले राम सिंह. राम सिंह अब वृद्ध हो गए हैं और उनका एक पैर भी टूट गया है. वे लाठी के सहारे चलते हैं. घर में पत्नी, बेटी और दो बेटे हैं. एक बेटा ड्राइवर है तो दूसरा बेटा गुजरात में कारखाना मजदूर है. आर्थिक तंगी के कारण दोनो बेटों व बेटी की शादी नहीं हो चुकी है. उनका भी पैसा बकाया है. वीआरएस के वक्त मिले पैसों से मगहर में जमीन का एक टुकड़ा खरीद लिया लेकिन उस पर घर नहीं बनवा सके. उनके आवास की छत टपकती है और दरवाजे सड़-गल गए हैं.

उन्हें अब अफसोस होता है कि कानपुर से वह यहां क्यों चले आए? उन्होंने बताया कि वे कानपुर में वे हिंद मोटर के बीके विरला की कार चलाते थे. कताई मिल के पहले प्रबंध निदेशक आईएएस हौसिला प्रसाद वर्मा उन्हे यहां ले आए. उन्होंने कताई मिल के बंद होने तक प्रबंध निदेशक व जीएम की गाड़ी चलाई.

राम सिंह कताई मिल के बंद होने का कारण यूनियन नेताओं की आपसी लड़ाई के साथ-साथ अफसरों की लूट-खसोट को जिम्मेदार बताते हैं. उनका कहना है कि जब तक यहां प्रबंध निदेशक के रूप में आईएएस अफसर तैनात रहे तब तक कताई मिल शानदार तरीके से चली. एक समय यह कताई मिल नौ करोड़ के मुनाफे में थी. जैसे ही प्रबंध निदेशक का पद समाप्त कर महाप्रबंधक का पद सृजित किया गया और उस पर टेक्नोक्रेट को रखा जाने लगा, कताई मिल के बुरे दिन शुरू हो गए. लूट-खसोट बढ़ गई.

कताई मिल की बंदी के दिन को याद करते हुए उनकी आंखों में आंसू आ गए. राम सिंह ने कहा कि कताई मिल के बंदी के बाद से उन कष्ट पर कष्ट आते गए. बेटे को किडनी की बीमारी के कारण ऑपरेशन कराना पड़ा. स्वयं का पैर टूट गया. ‘आज मैं मजबूरी में सांप-गोजर के बीच रह रहा हूं. अपना घर होता तो इस निर्जन जगह पर क्यों रहता?’, वो कहते हैं.

कताई मिल का द्वार, कताई मिल का आवासीय परिसर और कताई मिल का गोदाम.

कताई मिल में 1,450 लोग काम करते थे. ये श्रमिक व कर्मचारी देवरिया, गोरखपुर व बिहार से आए हुए थे. स्थापना के समय अधिकतर श्रमिक व कर्मचारी दूसरे जिलों के थे लेकिन बाद में मगहर के 450 श्रमिकों को भी भर्ती किया गया. इसको लेकर श्रमिकों को दो गुटों में काफी झगड़े भी हुए. कमाल अहमद उसी वक्त यहां नियुक्त हुए. जब 1997 में कताई मिल बंद हुई तो उन्हें 4,500 रुपये वेतन मिलते थे. उन्होंने 11 महीने ढाई हजार रुपये महीने पर बतौर अप्रेंटिस काम किया था. संतकबीर नगर के सांसद रहे भालचंद्र यादव की अगुवाई में एक यूनियन बनी जिसने श्रमिकों-कर्मचारियों का वेतन बढ़ाने के लिए सफल आंदोलन चलाया था.

 

कताई मिलों का सूत यूपी स्टेट हैंडलूम कॉरपोरेशन और कुछ व्यापारी खरीदते थे. बुनकर उनसे कपड़े तैयार करते जिसे यूपी स्टेट हैंडलूम कॉरपोरेशन व व्यापारी खरीद लेते. विभिन्न कारणों उत्तर प्रदेश की कताई मिलें एक-एक कर बंद होती गईं और यूपी स्टेट हैंडलूम कॉरपोरेशन भी बंद हो गया.

मगहर की कताई मिल यूपी कोऑपरेटिव स्पिनिंग मिल्स फेडरेशन की यूनिट थी. फेडरेशन के पास कुल 11 मिलें थी. ये सभी दो दशक से अधिक समय से बंद हैं. इसके अलावा यूपी स्टेट स्पिनिंग कंपनी लिमिटेड, यूपी स्टेट टेक्सटाइल्स कॉरपोरेशन लिमिटेड, यूपी स्टेट यार्न कंपनी लिमिटेड की मिले भी बंद है.

वर्ष 2016 में अखिलेश सरकार ने इन मिलों को फिर से चलाने की बात कही थी. योगी सरकार ने अब मिलों की जमीन को उत्तर प्रदेश राज्य औद्योगिक विकास प्राधिकरण को सौंपने की तैयारी कर रही है ताकि यहां पर नए उद्योग लगाए जा सकें. सरकार की ओर से कहा गया है कि इन मिलों पर तीन हजार करोड़ की देनदारी है. इसमें प्रदेश सरकार अपनी 500 करोड़ रुपये की देनदारी छोड़ देगी. इन मिलों के पास एक हजार एकड़ से अधिक जमीन है जिसका उपयोग नए उद्योग लगाने में किया जाएगा.

कताई मिल के श्रमिकों को वीआरएस दिए जाने के बाद भी मगहर के लोगों ने कताई मिल के फिर शुरू होने की आस नहीं छोड़ी थी. युवा अशरफ ने छह वर्ष पहले संत कबीर सहकारी कताई मिल संघर्ष समिति बनाई और श्रमिकों के बकाए व फिर से मिल को चालू करने का प्रयास किया.

अशरफ के अनुसार, उन्होंने मगहर से लखनफ तक अफसरों और नेताओं को ज्ञापन दिए लेकिन कोई नतीजा नहीं निकला. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जब मगहर में संत कबीर अकादमी का शिलान्यास करने आए तो उन्होंने नगर पंचायत अध्यक्ष के माध्यम से उन्हें ज्ञापन दिया. अब उन्हें उम्मीद की कोई सूरत नजर नहीं आती. वह थक हारकर बैठ गए हैं.

टूटे हुए हौसले से राम सिंह कहते हैं, ‘अब यह मिल नहीं चलेगी. यह सरकार तो नहीं चला पाई, कोई और सरकार भी नहीं चला पाएगी. हम अब यहां एक मिनट भी नहीं रुकना चाहते मगर बेबसी में हैं. अब तो किनारा हूं, कितने दिन का हूं नहीं जानता. ’

प्रधानमंत्री मोदी ने किए थे वादे

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी 28 जून 2018 को मगहर आए थे. यहां उन्होंने संत कबीर अकादमी का शिलान्यास किया और सभा को संबोधित किया था.

उन्होंने कहा कि करीब 24 करोड़ रुपये खर्च करके यहां महात्मा कबीर से जुड़ी स्मृतियों को संजोने वाली संस्थाओं का निर्माण किया जाएगा. कबीर ने जो सामाजिक चेतना जगाने के लिए अपने जीवन पर्यंत काम किया, कबीर के गायन, प्रशिक्षण भवन, कबीर नृत्य प्रशिक्षण भवन, रिसर्च सेंटर, लाइब्रेरी, ऑडिटोरियम, हॉस्टल, आर्ट गैलरीइन सबको विकसित करने की इसमें योजना है.

संत कबीर आकदमी को 2022 तक बन जाना था. इसका लोकार्पण 14 जून 2022 को प्रस्तावित था लेकिन अभी भी यह पूरी तरह तैयार नहीं हो पाया है.

एक तरफ 24 करोड़ की लागत से संत कबीर के स्मृतियों को संजोने और विचारों पर अध्ययन, शोध के लिए अकादमी स्थापित की जा रही है तो दूसरी तरफ कबीर और गांधी के विचारों को जमीन पर उतारने का सपना गांधी आश्रम और कताई मिल की बंदी से चूर-चूर हो गया है.

जिस मगहर में चरखे बनते थे और चरखे-करघे पर पर कपड़े बुने जाते थे वहां सन्नाटा पसरा है. आज इसी मगहर में राम सिंह और जगई के  टूटे हौसलों की गूंगी रूलाई को सुनने वाला कोई नहीं है.

(लेखक गोरखपुर न्यूज़लाइन वेबसाइट के संपादक हैं.)