जब तक खुलेआम जातिवादी टिप्पणी न की गई हो, एससी/एसटी क़ानून का केस नहीं होगा: सुप्रीम कोर्ट

सुप्रीम कोर्ट ने एक मामले की सुनवाई करते हुए कहा कि किसी व्यक्ति पर एससी/एसटी (अत्याचार निवारण) अधिनियम के तहत कथित अपराधों के लिए तब तक मुक़दमा नहीं चलाया जा सकता, जब तक कि अपमानित करने के इरादे से ‘सार्वजनिक तौर पर’ जातिवादी टिप्पणी न की गई हो.

(फोटो: द वायर)

नई दिल्ली: सुप्रीम कोर्ट ने शुक्रवार को फैसला सुनाया कि किसी व्यक्ति पर एससी-एसटी (अत्याचार निवारण) अधिनियम के तहत कथित अपराधों के लिए मुकदमा नहीं चलाया जा सकता, जब तक कि अपमानित करने के इरादे से ‘सार्वजनिक तौर पर’ जातिवादी टिप्पणी नहीं की गई हो.

द टेलीग्राफ की रिपोर्ट के मुताबिक, जस्टिस एमएम सुंदरेश और जस्टिस एसवीएन भट्टी की पीठ ने यह फैसला दिल्ली उच्च न्यायालय के उस फैसले को खारिज करते हुए सुनाया, जिसमें विपरीत दृष्टिकोण रखते हुए एक महिला प्रीति अग्रवाल और पांच अन्य के अलावा फतेहपुर बेरी पुलिस स्टेशन के एसएचओ के खिलाफ एफआईआर दर्ज करने का निर्देश दिया गया था.

अपीलकर्ताओं का प्रतिनिधित्व वरिष्ठ अधिवक्ता सिद्धार्थ लूथरा ने किया, जबकि शिकायतकर्ता प्रवीण कुमार उर्फ प्रशांत का प्रतिनिधित्व कपिल नाथ मोदी ने किया. एक वकील होने के अलावा, मोदी ओलंपिक राइडिंग और घुड़सवारी अकादमी, पूर्वी जौनापुर, नई दिल्ली (ओआरईए) के प्रशासक हैं.

प्रवीण और अधिकांश अपीलकर्ता ओआरईए में प्रशिक्षण लेते थे जहां कथित तौर पर झड़पें हुईं, जिसके परिणामस्वरूप शिकायतें और प्रति-शिकायतें दर्ज की गईं. मोदी ने कहा कि अपीलकर्ता अक्सर प्रवीण पर जातिवादी गालियां देते थे और कहते थे कि घुड़सवारी का खेल अमीरों के लिए है, उनके जैसे ‘चमार’ के लिए नहीं.

हालांकि, लूथरा ने कहा कि आरोप मनगढ़ंत हैं. उन्होंने कहा कि अपीलकर्ता के खिलाफ कथित अपराध एससी, एसटी (अत्याचार निवारण) अधिनियम, 1989 की धारा 3(1)(आर) और 3(1)(एस) के तहत बताया गया था. उन्होंने कहा कि धारा 3(1)(आर) के तहत अपराध तभी होगा जब शिकायत में यह उल्लेख होगा कि यह गलती या चूक, खुलेआम, सबकी नज़रों के सामने हुई थी.

उन्होंने कहा कि उक्त शिकायत अधिनियम के तहत अपराध की आवश्यक शर्तों को पूरा नहीं करती है.

इन तर्कों से सहमत होते हुए जस्टिस भट्टी ने कहा कि एससी-एसटी अधिनियम की धारा 3 (1) (आर) उस चीज़ को अपराध के रूप में देखती है जो अनुसूचित जाति या अनुसूचित जनजाति के सदस्य को अपमानित करने के इरादे से खुलेआम, सबके सामने जानबूझकर अपमान या धमकी दी गई हो.

अदालत ने कहा, ‘प्रतिवादी नंबर 2 (प्रवीण) को जानबूझकर गाली देने और अपमानित करने का आरोप 2016 और 2018 के बीच दो साल की अवधि में लगा है. यह आरोप प्रथमदृष्टया एक सर्वव्यापी और अस्पष्ट आरोप लगता है. अपीलकर्ता नंबर 2 पर शिकायत में विशिष्ट आरोप यह है कि अपीलकर्ता नंबर 2 ने प्रतिवादी नंबर 2 को अन्य बातों के अलावा ‘चूड़ा’ और ‘चमार’ कहा था.

शीर्ष अदालत ने कहा कि आरोप न तो उस स्थान का उल्लेख करता है और न ही उन लोगों का, जिनके समक्ष ऐसा कहा गया था. ‘खुलेआम किसी भी स्थान पर’ कहे जाने में एक महत्वपूर्ण बात शिकायतकर्ता के अलावा वहां मौजूद अन्य व्यक्तियों का होना भी है.

अदालत ने कहा, ‘इस मामले में हम यह जांच नहीं कर रहे हैं कि ओआरईए एक निजी या सार्वजनिक स्थान है, हम अपराध होने या न होने की जांच कर रहे हैं. हम इस बात को परख रहे है कि लगाए गए आरोपों में सार्वजनिक स्थान पर अपमान करने या डराने-धमकाने की का पहलू है या नहीं.’