नहीं का मुक़ाम

कभी-कभार | अशोक वाजपेयी: अगर हम मनुष्य हैं, भारतीय लोकतंत्र के नागरिक हैं और अपने राष्ट्रीय आप्तवाक्य ‘सत्यमेव जयते’ पर विश्वास करते हैं, अगर अब लग रहा है कि संविधान और उसके बुनियादी मूल्यों स्वतंत्रता-समता-न्याय-बंधुता को बचाना है तो हम चुपचाप नहीं रहें.

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(इलस्ट्रेशन: परिप्लब चक्रबर्ती/द वायर)

कई बार ऐसा मुक़ाम आ जाता है जिसमें हमें कोई सख़्त फ़ैसला लेना पड़ जाता है- कई बार ऐसा भी कि हमने सोचा नहीं था कि हम ऐसा फ़ैसला ले सकते हैं या उसे ले सकने में हम समर्थ हैं. बरसों से हम झूठ-झांसों-नफ़रत के लाभार्थी हैं: ये सब हमें, बिना चाहे या मांगे, मिलते रहे हैं. हमारे पास और आस-पास इतने झूठ जमा हो गए हैं कि अब सच की जगह ही, लगता है, नहीं बची. हम पढ़े-लिखे समझदार लोग हैं, हमारे पास थोड़ा विवेक भी था. पर इस बीच वह हमने कहां रख दिया यह तक हमें याद नहीं रहा. इस बीच हमें उसकी ज़रूरत भी नहीं पड़ी.

हमारे पड़ोस में अब झूठ-झांसों के ढेर कचरे के ढेर की तरह लगे हुए हैं. अपना घर तो हम साफ़ कर लेते हैं, पड़ोस में थोड़ा कचरा फैल जाए इसकी हमें परवाह नहीं. हालत यह है कि हम किसी झांसे या गारंटी  की जांच करने, उसकी अवास्तविकता को समझ पाने की क्षमता भी खो बैठे हैं. हमें यह भी याद नहीं है कि हमसे पिछले एक दशक में सत्तारूढ़ निज़ाम ने कितनी वादाखिलाफ़ी की है. इसके बावजूद हमने झूठ से मुंह नहीं मोड़ा: अब तो हमारे चेहरे झूठ या घृणा या दोनों से दमकते रहते हैं

जीवन, समय, समाज, राजनीति आदि बहुत देर तक झूठ और घृणा से नहीं चल सकते. इसलिए अब हम उस मुक़ाम पर आ पहुंचे हैं जहां हमें कुछ अलग करना होगा. हम दुनिया तो नहीं बदल सकते पर अपने को बदलना होगा. हमने बहुत-बहुत हां- कर-कह दिया, बहुत जय-जयकार कर ली, अब हमें ठिठककर सोचना होगा कि हम कहां हैं और किस ओर जा रहे हैं. हमें थोड़ी देर चारों तरफ़ के शोर से, चैनलों के चीख़ और चिल्लाहट से अपने को मुक्त कर चुप होना पड़ेगा.

यह सोचने की चुप्पी है, उस चुप्पी से अलग जो हमने इतने लंबे समय से पड़ोस में हो रही निरपराधों की हत्या, लिंचिंग या बुलडोजिंग पर हमने कायरता में साध रखी है. झूठ को झूठ समझते हुए भी हम चुप रहे हैं. जिस चुप्पी का अब मुक़ाम है कि अब हम वहां आ गए हैं कि सब कुछ को उसकी सचाई में पहचान कर चुप रहें.

यह नहीं का मुक़ाम है: अब तक हमने या तो हां कहा है या चुप रहकर भी हम हां की बिरादरी में शामिल रहे हैं. अब नहीं का मुक़ाम आया है.

अगर हम मनुष्य हैं, भारतीय लोकतंत्र के नागरिक है, अगर हम भारतीय हैं और अपने राष्ट्रीय आप्तवाक्य ‘सत्यमेव जयते’ पर विश्वास करते हैं, अगर हमें अब लग रहा है कि अपने संविधान को और उसके बुनियादी मूल्यों स्वतंत्रता-समता-न्याय-बंधुता को बचाना है तो हम चुपचाप नहीं कहें और करें. नहीं का नाटक या नौटंकी करने की ज़रूरत नहीं, चुप रहकर नहीं किया जा सकता है.

अगर हमारा अंतःकरण जीवित और सक्रिय है तो हमें झूठ-नफ़रत-हिंसा-हत्या को नहीं कहना और करना है- चुप रहकर, आवश्यक कार्रवाई कर, आप अपनी चमड़ी और आत्मा दोनों को बचा लेंगे, लोकतंत्र को बचाने के साथ-साथ.

विकास का एक दशक

ऐसे लोग बढ़ते जा रहे हैं जो यह समझते हैं कि पिछले दस सालों में कोई विकास नहीं हुआ है. यह नामसमझी है और बहुत कुछ जो हुआ है, असल में बढ़त और इज़ाफ़ा हुए हैं उन्हें अनदेखा करना है. रिकार्ड को सही और ताज़तरीन करना ज़रूरी है. हमारी कोशिश उस सबको सिलसिले से हिसाब में लेना है जो इस दौरान हुआ है और अगर विकसित भारत बना तो और बढ़-चढ़कर होता रहेगा.

सबसे पहले तो इस दौरान जीडीपी कितनी बढ़ी इस पर विवाद होता रहा है, पर इस पर कोई विवाद नहीं हो सकता कि झूठ संख्‍या, व्याप्ति और प्रभाव सभी में बहुत तेज़ी से बढ़ा है. दूसरों के प्रति, विशेषतः दूसरे धर्मों के प्रति, अकारण नफ़रत में बहुत तेज़ी से इज़ाफ़ा हुआ है. हिंसा-हत्या-बलात्कार, लिंचिंग और बुलडोज़िंग की घटनाओं, मानसिकता में भी अभूतपूर्व विकास हुआ है.

अगर हमारे विश्वविद्यालयों को विश्व की उत्कृष्टता-सूची में जगह नहीं मिलती तो क्या, हमारी इन संस्थाओं में अज्ञान और विस्मृति का उत्पादन बहुत बढ़ा, व्याप्त और प्रभावकारी हुआ है. भय और भ्रष्टाचार के क्षेत्र में हम अग्रणी हैं और क़ानूनी और ग़ैरक़ानूनी दोनों ही ढंग से हमने दोनों को भरपूर बढ़ावा दिया है. हमने प्रश्न पूछने जैसी लोकतांत्रिक व्याधि से इस बीच मुक्ति पा ली है. बेकार की बातों पर ध्यान देना बन्दकर हमने व्यापक बौद्धिक निष्क्रियता के क्षेत्र में बड़ी प्रगति की है.

नई रेलगाड़ियां और चमकते-दमकते स्टेशनों की संख्या बढ़ी है, उनके किरायों के साथ ही. बड़ी संख्या में पुल, अंडरपास आदि बने हैं और करिश्मा यह है कि उनमें से कुछ बनने या उद्घाटित होने के बाद गिर जाते हैं, कुछ लोग मर भी जाते हैं. इस बीच ठेकेदार बहुत बढ़े हैं और उन्हें भरपूर रोज़गार मिल रहा है. यह क्या किसी तरह से कम विकास कहा जा सकता है कि महंगाई और बेरोज़गारी स्वतंत्र भारत के इतिहास में अपने उच्चतम स्तर पर पहुंच गई है. विकास की कुछ क़ीमत तो ग़रीबों, नवजवानों आदि को चुकाना ही चाहिए.

विधायकों और चालू चुनाव में उम्मीदवारों तक की ख़रीद-फ़रोख़्त में भी अभूतपूर्व विकास हुआ: इतने लोग चुने जाने के बाद पहले कभी नहीं ख़रीदे गए. केंद्र को सशक्त करने के लिए संघीय ढांचे को कमज़ोर करना ज़रूरी था सो किया गया है और इसमें राज्यपालों ने बहुत कारगर भूमिका निभाई है. केंद्र सरकार के विरुद्ध राज्यपालों की कार्रवाइयों को लेकर, केंद्र द्वारा राज्यों के उचित हिस्से को रोकने-अटकाने आदि के विरुद्ध राज्य सरकारों के सर्वोच्च न्यायालय में जाने के प्रकरणों में भी अभूतपूर्व वृद्धि हुई है.

अनेक केंद्रीय और संवैधानिक संस्थाओं जैसे चुनाव आयोग, ईडी, सीबीआई, अन्य राष्ट्रीय आयोग आदि की कायरता, स्वामिभक्ति, पक्षपात, निष्क्रियता आदि में बहुत उल्लेखनीय विकास हुआ है. मीडिया के सबसे साधन-संपन्न हिस्से ने सत्ता के प्रति जो वफ़ादारी और विपक्ष पर जो आक्रामकता दिखाई है, लगातार और अविराम, वह भारतीय मीडिया के इतिहास में बिल्कुल नया अवदान है. सो, संक्षेप में दस सालों में बहुत कुछ हुआ है और उसे हिसाब में लेना ज़रूरी है.

जाने की अफ़वाह

यह अफ़वाह इन दिनों बहुत गर्म है कि वे जा रहे हैं. हम उम्मीद के पैमाने में इस क़दर नीचे गिर चुके हैं कि ऐसी अफ़वाहों पर यक़ीन करने लगे हैं. वे कहां और कैसे जाएंगे इस बारे में कई अटकलें लग रही हैं. टेम्पो में जाएंगे या रामरथ पर यह साफ़ नहीं है. कहां जाएंगे यह भी ठीक से कहा नहीं जा सकता है. फ़कीर हैं झोला उठाकर जंगल में चले जाएंगे या हिमालय की किसी गुफा में तत्वचिंतन करने लगेंगे यह स्पष्ट नहीं है. वे अकेले बहिर्गमन करेंगे या रोडशो होगा यह भी पता नहीं है. जाएंगे तो जयकारों के बीच ही: पराजयकार तो कुछ होते नहीं हैं.

इस पर गहरा संदेह अब तक बना हुआ है कि वे सचमुच जा रहे हैं. उनकी चामत्कारिक शक्तियों से परिचित लोग कहते हैं कि वे अंततः कुछ ऐसा करेंगे कि उनका जाना उनके टिके रहने में बदल जाए. वे हैं, तो मुमकिन है.

वैसे भी वे चले गए तो जिन झूठों-झांसों-नफ़रत के हम आदी हो चुके हैं, वे कौन इतने प्रभावशाली ढंग से बोलेगा? उन्होंने ही हमें सिखाया है कि बिना झूठ और नफ़रत के सार्वजनिकता और राजनीति संभव नहीं है. इसलिए अगर ऐसी दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति बनी कि उन्हें जाना ही पड़ा तो हम उनसे अनुरोध कर सकते हैं कि वे ग़ायब न हो जाएं, हमारे बीच और नज़दीक रहें और झूठ और नफ़रत का पौष्टिक आहार देते रहें.

यह भी सोचने की बात है कि झूठ-नफ़रत के व्यापार में उनकी वजह से कितने लोगों को रोज़गार मिला हुआ है. वे चले गए तो उनके रोज़गार का क्या होगा?

यह सब, फिलमुक़ाम, अफ़वाह ही है: कई बार अफ़वाह उसे फैलाने वालों पर ही पलटकर आ जाती है. हम अपनी उम्मीद किसी अफ़वाह से नत्थी नहीं कर सकते. हम थोड़ा और इंतज़ार करने को तैयार हैं, बावजूद मन में आ रही अधीरता के.

(लेखक वरिष्ठ साहित्यकार हैं.)