जिस बर्बर ने
कल किया तुम्हारा खून पिता
वह नहीं मराठा हिंदू है
वह नहीं मूर्ख या पागल है.
वह प्रहरी है स्थिर स्वार्थों का
वह जागरूक वह सावधान
वह मानवता का महाशत्रु
वह हिरणकशिपु
वह अहिरावण
वह दशकंधर
वह सहस्त्रबाहु
वह मनुष्यत्व के पूर्ण चंद्र का सर्वग्रासी महाराहु.
हम समझ गए
चट से निकाल पिस्तौल
तुम्हारे ऊपर कल
वह दाग गया गोलियां कौन?
हे परमपिता हे महामौन
हे महाप्राण, किसने तेरी अंतिम सांसें
बरबस छीनी भारत-मां से
हम समझ गए!
जो कहते हैं उसको पागल
वह झोंक रहे हैं धूल हमारी आंखों में
वह नहीं चाहते परम क्षुब्ध जनता घर से बाहर निकले
हो जाएं ध्वस्त
इन संप्रदायवादी दैत्यों के विकट खोह
वह नहीं चाहते; पिता तुम्हारा श्राद्ध ओह!
भूखे रहकर
गंगा में घुटने भर धंसकर
हे वृद्ध पितामह
तिल-जल-से
तर्पण करके
हम तुम्हें नहीं ठग सकते हैं
वह अपने को ठगना होगा.
शैतान आएगा रह-रह हमको भरमाने
अब खाल ओढ़कर तेरी सत्य-अहिंसा की
एकता और मानवता के
इन महाशत्रुओं की न दाल गलने देंगे
हम नहीं एक चलने देंगे.
यह शक्ति (शांति?) और समता की तेरी दीपशिखा
बुझने न पाएगी छन भर भी
परिणत होगी आलोकस्तंभ में कल-परसों
मैदानों के कांटे चुन-चुन
पथ के रोड़ों को हटा-हटा
तेरे उन अगणित स्वप्नों को
हम रूप और आकृति देंगे
हम कोटि-कोटि
तेरी औरस, संतान पिता!
‘तर्पण’ नागार्जुन की सबसे ताकतवर कविताओं में एक है. इस कविता में पिता कौन है और किसने उन पर गोली दागी, स्पष्ट तौर पर नहीं बतलाया गया है. कवि अपने पाठक की सांस्कृतिक या सामाजिक स्मृति या जानकारी को आदर दे रहा है जिसके बिना दुनिया की श्रेष्ठ कविताएं या कलाकृतियां नहीं समझी जा सकतीं या उन्हें क़ायदे से सराहा नहीं जा सकता. ‘राम की शक्तिपूजा’ पाठक की सांस्कृतिक साक्षरता पर निर्भर कविता है. वह मानकर चलती है कि राम काव्य परंपरा से पाठक का परिचय होगा.
नागार्जुन जानते हैं कि उनके पाठक को यह समझने में कोई दुविधा नहीं होगी कि इस कविता के पिता गांधी हैं और जिसने उनका खून किया, वह नाथूराम गोडसे है. वह यह भी अपेक्षा करती है कि पिता, पितामह जैसे संबोधन गांधी के लिए क्यों हैं?
कविता में ताज़े क्रोध का उबाल, आवेग है. छोटी छोटी पंक्तियों में, वे तुकांत भी हैं, तीक्ष्णता है. कवि का संकल्प भी दृढ़ता से व्यक्त होता है.
यह कविता भारतीय जनतंत्र के सबसे महत्त्वपूर्ण क्षण के बारे में है. वह क्षण भारत की अंग्रेज़ी राज से मुक्ति के तुरंत बाद ही आया. नहीं, लाया गया. 30 जनवरी, 1948. जिस तारीख की शाम प्रार्थना सभा में जाते हुए गांधी पर विनायक दामोदर सावरकर के शिष्य, हिंदू महासभा और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से संबद्ध नाथूराम गोडसे ने एक एक करके तीन गोलियां दागीं.
अभी भारत में जनतंत्र स्थिर न हुआ था. उसकी तैयारी चल रही थी. उसी समय भारतीय जनतंत्र के विचार के प्रणेता की हत्या कर दी गई. जनतंत्र के आरंभ में ही संकटपूर्ण क्षण उत्पन्न हुआ.
पूरे देश में सनसनी फैल गई. लाखों घरों ने चूल्हा बंद कर दिया. गांधी, बापू, महात्मा की हत्या! किसने यह पाप किया होगा? गांधी के शिष्य, सबसे प्रिय मित्र और उनके उत्तराधिकारी, भारत के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू के ज़िम्मे यह काम आया कि वे देश को बतलाएं कि यह जघन्यतम अपराध किसने किया.
नेहरू ने उस रात रेडियो पर देश को संबोधित करते हुए कहा, ‘एक पागल ने उनके जीवन का अंत कर दिया है…’ यह वाक्य स्वतंत्र भारत के सबसे प्रसिद्ध वाक्यों में से एक है, हालांकि जिन्होंने नेहरू का वह भावपूर्ण और ओजस्वी वक्तव्य सुना है और जो नेहरू की भाषा शैली से भी परिचित हैं, उन्हें मालूम है कि यह एक लंबे वाक्य का शुरुआती हिस्सा भर है.
लेकिन कवि नागार्जुन को पता है कि गांधी के हत्यारे का अगर ठीक तरीक़े से परिचय नहीं दिया गया तो भारतीय जनतंत्र का चरित्र हमेशा उलझा हुआ रहेगा. इसलिए वे नाराज़गी में नेहरू पर एतराज करते हैं,
जिस बर्बर ने
कल किया तुम्हारा खून पिता
वह नहीं मराठा हिंदू है
वह नहीं मूर्ख या पागल है.
नेहरू ने सिर्फ़ इतना नहीं कहा था. पूरा वाक्य इस तरह है: ‘एक पागल ने उनके जीवन का अंत कर दिया है, क्योंकि जिसने ऐसा किया उसे मैं पागल ही कह सकता हूं, लेकिन पिछले कुछ बरसों और महीनों में इस देश में इतना ज़हर फैला दिया गया है और इस ज़हर ने लोगों के दिमाग़ पर असर किया है.’
लेकिन नागार्जुन इतना कहना भी काफ़ी नहीं मानते. क्या नाथूराम ने सिर्फ़ इस ज़हर के असर में होश खोकर गांधी की हत्या कर दी? और कौन वह ज़हर फैला रहा था? नाथूराम गोडसे अकेला न था. हत्या किन्हीं ताक़तों की तरफ़ से की गई थी:
वह प्रहरी है स्थिर स्वार्थों का
वह जागरूक वह सावधान
वह मानवता का महाशत्रु.
गांधी की हत्या की वजह थी, अंग्रेजों के जाने के बाद के भारत की शक्ल को लेकर दो विचारों में टकराहट. गांधी भारत को धर्मनिरपेक्ष जनतंत्र के रूप में विकसित होते देखना चाहते थे. लेकिन एक दूसरा विचार था जो धर्मनिरपेक्षता और जनतंत्र, दोनों के ख़िलाफ़ था. इसे वे हिंदू राष्ट्र का नाम दे रहे थे. लेकिन साफ़ था कि यह हिंदू राष्ट्र न सिर्फ़ मुसलमानों से मुक्त या मुसलमानों और ईसाइयों की दोयम दर्जे की शहरियत वाला होता, बल्कि यह गणराज्य भी न होता.
ढेर सारे राजे- रजवाड़े और नवाब भी सपना पाले बैठे थे कि अंग्रेजों के जाने के बाद उनकी रियासतें उनके हाथ आ जाएंगी. भारत के वे लोग जिन्होंने गांधी के नेतृत्व में अंग्रेज़ी हुकूमत को बाध्य किया कि वह देश छोड़े, वापस उनकी प्रजा में बदल जाएंगे. संप्रभुता उनकी होगी. यह इन राजे- रजवाड़ों का विचार था. लेकिन इस विचार को बहुसंख्यक जनता के लिए ग्राह्य बनाने का एक ही तरीक़ा था कि उन्हें यह समझाया जा सके कि यह हिंदू राष्ट्र होगा.
लेकिन गांधी के नेतृत्व में भारतीय लोग सिर्फ़ अंग्रेज़ी निज़ाम से नहीं लड़ रहे थे, वे सामाजिक और राजनैतिक संगठन के पुराने विचार से भी संघर्ष कर रहे थे. उन्होंने राजा को ईश्वर द्वारा अपने ऊपर शासन करने के लिए नियुक्त किए जाने के विचार को ठुकरा दिया था और अपनी, यानी जनता की संप्रभुता के विचार को, यानी जनतंत्र को अपना लिया था. इस उपनिवेशवादी संघर्ष का एक महत्त्वपूर्ण हिस्सा था जाति आधारित असमानता को अस्वीकार करना. आंबेडकर इसके प्रवक्ता थे लेकिन इस विचार को सवर्ण समाज के लिए स्वीकार्य बनाने के लिए गांधी का अभियान कम महत्त्वपूर्ण न था. आश्चर्य नहीं कि गांधी की हत्या का एक प्रयास उनकी हत्या के तक़रीबन डेढ़ दशक पहले पुणे में ब्राह्मणवादियों ने किया था जब वे अपने अस्पृश्यता विरोधी अभियान में जुटे हुए थे.
बहस इस बात पर थी कि अंग्रेजों के क़ब्ज़े से आज़ाद भारत क्या ब्राह्मणीय श्रेष्ठता पर आधारित हिंदू राष्ट्र होगा या धर्मनिरपेक्षता और समानता पर आधारित जनतांत्रिक गणराज्य होगा. बहस सावरकर और गांधी के बीच थी. जिन्ना, इक़बाल और गांधी के बीच भी. गांधी सांस्कृतिक या धार्मिक राष्ट्र के विरुद्ध थे और वे राजशाही के ख़िलाफ़ भी थे.
स्वाधीनता आंदोलन के दौरान जनतांत्रिक गणराज्य के विचार का व्यावहारिक अभ्यास भी चल रहा था. सावरकर या आरएसएस के विचार में आकर्षण था, लेकिन भारतीय जनता को भारतीय जनता का रूप देने में गांधी और उनके सहयोगियों के नागरिक राष्ट्रवाद के विचार की भूमिका थी.
धर्मों के अंतर के साथ और उसके बावजूद जनता एक हो सकती है. भारत भूमि पर किसी का पहला अधिकार न होगा और कोई दूसरे से श्रेष्ठ न होगा. यह गांधी का विचार था.
ख़तरा यह था कि आज़ादी के बाद राज्य इसी विचार को स्वीकार करे. ध्यान रहे आज़ाद भारत के क़ायदे या दस्तूर को तय करने के लिए संविधान सभा की बैठक चल रही थी. गांधी उस बैठक में न थे, लेकिन उन्होंने नेहरू को नोआख़ाली से लिखा था कि उन्हें अपने ‘ऑब्जेक्टिव रिज़ोल्यूशन’ पर कोई समझौता नहीं करना चाहिए.
नेहरू द्वारा पेश किए गए इस प्रस्ताव में गांधी के सपनों के भारत का खाका था: भारत को ऐसा गणराज्य बनना था जिसमें हर प्रकार की स्वतंत्रता, हर प्रकार के न्याय और प्रत्येक प्रकार के न्याय के लिए संविधान को उपाय करने थे. साथ ही उसे अल्पसंख्यकों, पिछड़े और आदिवासी इलाक़ों और दलित और अन्य पिछड़े वर्गों के लिए विशेष सुरक्षा की गारंटी करनी थी.
यह जितना गांधी का, उतना ही नेहरू का, और अब संविधान सभा का आधिकारिक विचार होने जा रहा था. इससे ठीक उलट विचार आरएसएस, हिंदू महासभा का था. उनके साथ थे सत्ता के लिए लार टपकाते हुए राजे- रजवाड़े. गांधी उन्हें सख्ती से कह रहे थे कि वे जनता की संप्रभुता मान लें.
इस प्रकार गांधी, और जैसा आरएसएस का मानना था कि गांधी के शिष्यों की सरकार के कारण दो प्रकार के स्वार्थ ख़तरे में थे. एक ब्राह्मणवादी वर्चस्व का स्वार्थ और दूसरा पुरानी राजशाही का स्वार्थ. ये दोनों मिलकर हिंदू राष्ट्र का निर्माण करने वाले थे. नाथूराम ने अदालत में जो बयान दिया हो, नागार्जुन के तीक्ष्ण कवि नेत्रों ने पहचान लिया था कि वह इन स्थिर स्वार्थों का जागरूक और सावधान प्रहरी था.
इस हत्या के बाद मात्र बापू नाम जाप से काम न चलेगा:
गंगा में घुटने भर धंसकर
हे वृद्ध पितामह
तिल-जल-से
तर्पण करके
हम तुम्हें नहीं ठग सकते हैं
वह अपने को ठगना होगा.
कवि जानता है कि आगे क्या हो सकता है:
शैतान आएगा रह-रह हमको भरमाने
अब खाल ओढ़कर तेरी सत्य-अहिंसा की.
कवियों को यों ही पैगंबर नहीं कहते. गांधी की हत्या ने जिन शैतानी शक्तियों को तब स्तंभित कर दिया था, वे आज भारत पर काबिज हैं. आज प्राचीन हिंदू राजाओं को आदर्श बनाकर पेश किया जा रहा है. हिंदू जनता को समझाने की कोशिश हो रही है कि यह उनके राजा थे, उनका राज उसका राज था. यह भी ठीक ही है कि आरएसएस का स्वयंसेवक प्रधानमंत्री सनातन धर्म की रक्षा के नाम पर वोट मांग रहा है, मानो वह राष्ट्रीय धर्म हो. ऐसे राष्ट्र की कल्पना की जा रही है जिसमें गाय और ब्राह्मण की रक्षा की जाएगी. यह ताज्जुब की बात नहीं कि दिल्ली विश्वविद्यालय में अब खुलेआम ब्राह्मण सम्मेलन के आयोजन की कल्पना की जा सकती है.
अब रजवाड़े नहीं रहे. आज के सावरकर और संघ का गठजोड़ इसलिए आज के राजाओं यानी कॉरपोरेट पूंजीपतियों के साथ है. आज ये वे स्थिर स्वार्थ हैं जिनके सजग प्रतिनिधि सत्ता में बैठे हैं. गांधी की हत्या के समय जो सपना पूरा नहीं हुआ, वह अब पूरा करने की साज़िश है और उसमें हिंदुओं को पैदल सेना के तौर पर भर्ती किया जा रहा है. फिर नागार्जुन का 75 साल पहले किया गया संकल्प आज दुहराने की ज़रूरत है:
एकता और मानवता के
इन महाशत्रुओं की न दाल गलने देंगे
हम नहीं एक चलने देंगे
यह शक्ति (शांति?) और समता की तेरी दीपशिखा
बुझने न पाएगी छन भर भी
परिणत होगी आलोकस्तंभ में कल-परसों.
यह कड़ी मेहनत का काम है. लेकिन कवि गांधी को आश्वासन देता है भारत के करोड़ों लोगों की तरफ़ से जो बापू की असली संतानें हैं:
मैदानों के कांटे चुन-चुन
पथ के रोड़ों को हटा-हटा
तेरे उन अगणित स्वप्नों को
हम रूप और आकृति देंगे.
(लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय में पढ़ाते हैं.)
(इस श्रृंखला के सभी लेख पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें.)