जनतंत्र दिमाग़ को मुक्त रखने का संघर्ष है, जो पूंजीवाद से लड़े बिना मुमकिन नहीं

पूंजीवाद स्वाभाविक और प्राकृतिक जान पड़ता है. लेकिन मनुष्य निर्विकल्प अवस्था को कैसे स्वीकार कर ले तो फिर मनुष्य कैसे रहे? कविता में जनतंत्र स्तंभ की अठारहवीं क़िस्त.

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(इलस्ट्रेशन: द वायर)
(इलस्ट्रेशन: परिप्लब चक्रवर्ती/द वायर)

आज़ादी के गोल्डन जुबली साल में
आज़ादी का मतलब है
बाज़ार से अपनी पसंद की चीज़ चुनने की आज़ादी

और आपकी पसंद
वे तय करते हैं
जिनके पास उपकरणों का कायाबल
विज्ञापनों का मायाबल

आपकी आज़ादी पसंद है उन्हें
चीज़ों का ग़ुलाम बनने की आज़ादी

यांत्रिक सभ्यता के शीर्ष पर
उन्होंने केवल कंप्यूटर ही नहीं बनाए हैं
आपके दिमाग़ को भी कंप्यूटर में बदल दिया है
जिसका सॉफ़्टवेयर वे सप्लाई करते हैं
घर बैठे होम डिलिवरी
मुफ़्त, बिल्कुल मुफ़्त

आप भी सोचते हैं, मुस्कुराकर थैंक यू कहना ही अच्छा है
एक बाग़ी दिमाग़ का बोझ आख़िरकार समाज को भी बर्दाश्त नहीं

किसी एक दिन आप कूद नहीं पड़ते बाज़ार में
विश्वबाज़ार के इन दिनों में
धीरे धीरे बाज़ार ही आपका विश्व बनता है

और अब बाज़ार के हाथों में ही छोड़ दिया गया है दिमाग़
मुलायम दिमाग़
जिसे कंडे की तरह गोल करता है बाज़ार अपने अंगुलिचिह्न देता
कंडे जो भस्म होने को प्रस्तुत
समुद्रशायी बाडवाग्नि और पेट-जायी जठराग्नि की तरह

बाज़ार गर्भ में अहर्निश जलनेवाली आग को
अमन्द रखने के लिए

विश्वबाज़ार जिनका जठर है
हमेशा उठा हुआ उनका शटर है

ज्ञानेंद्रपति की कविता जनतंत्र और पूंजीवाद के उस दौर की है जिसमें पूंजीवाद को वैश्वीकरण के गौरवशाली नाम से पुकारा जाने लगा है. जो इस वैश्वीकरण में शामिल होने से इनकार करता है, उसे पिछड़ा हुआ और संकीर्ण घोषित किया जा सकता है. वह वैश्वीकरण क्या है, वह इंसान का का क्या करता है, उसकी आज़ादी का क्या होता है इस दौर में?

आज़ादी जनतंत्र की धुरी है. आज़ादी यानी हर तरह की आज़ादी. जिसका मतलब है ख़ुदमुख़्तारी. हर शख़्स अपने दिल दिमाग़ का मालिक है. वह महसूस करने को आज़ाद है, सोचने को आज़ाद है और उसके मुताबिक़ फ़ैसला करने और उस फ़ैसले पर अमल करने को भी आज़ाद है.

इसके साथ ही जनतंत्र की पूर्वमान्यता है कि हर व्यक्ति के पास अपना कंठ है. और हरेक के पास अपना गान भी है. वह मात्र दूसरे का गीत दूसरे की ही आवाज़ में नहीं गाता. लताकंठी या रफ़ीकंठ होने में कौशल तो है, लेकिन मौलिकता का गौरव नहीं.

लेकिन यह होता नहीं दिखता. जनतंत्र की तीन सदियों के सफ़र के इस पड़ाव पर मालूम होता है कि इंसान पहले से अधिक असहाय हो गया है. और मज़ा यह है कि वह इस बात से ग़ाफ़िल भी है. असल बात यह है कि

आज़ादी का मतलब है
बाज़ार से अपनी पसंद की चीज़ चुनने की आज़ादी
लेकिन क्या आप सचमुच तय कर सकते हैं कि आपकी पसंद क्या है?
आपकी पसंद
वे तय करते हैं
जिनके पास उपकरणों का कायाबल
विज्ञापनों का मायाबल

इंसान की पसंद, उसका चुनाव उसका भ्रम मात्र है, वह कहीं और तय हो रहा है और यह उस व्यवस्था में जो ख़ुद को सबसे आज़ाद और आज़ादी देने वाली बतलाती है, इस व्यवस्था को पूंजीवाद कहते हैं और माना जाता है कि यह जनतांत्रिकता के लिए सबसे उपयुक्त व्यवस्था है. आख़िर कार्ल मार्क्स ने भी कहा था कि पूंजीवाद अपने पहले की सारी व्यवस्थाओं से अधिक जनतांत्रिक इसलिए है कि यह मनुष्य की आंतरिकता को पहचानकर उसका उद्घाटन करती है. पूंजीवाद मनुष्य को कर्तृत्व भी प्रदान करता है.

मनुष्य की स्वतंत्रता की दिशा में यह बड़ा कदम है. अर्थशास्त्री प्रभात पटनायक अपने एक व्याख्यान में कहते हैं कि ऐसा कहने के लिए कम से कम दो कारण: पहला, पूंजीवाद यह मनुष्य को मात्र प्रकृति द्वारा संचालित वस्तु की निष्क्रियता से ऊपर मानता है. मनुष्य नियंता है या वह बाहरी शक्तियों के अधीन है? पूंजीवाद मनुष्य को सक्रिय सत्ता प्रदान करता है.

दूसरे, यह समानता के सिद्धांत को इस तरह स्वीकार करता है कि इसके लिए जाति, धर्म,आदि के आधार पर या पहले माने जाने वाले हैसियत के पैमाने आख़िरी नहीं हैं. हालांकि, पूंजीवाद का अध्ययन करने वालों ने दिखलाया है कि जेंडर, जाति और धार्मिक अवस्था भी पूंजीवादी कार्य व्यापार में भाग लेने की क्षमता तय करती है.

वस्तुओं के उत्पादन, क्रय विक्रय या विनिमय में भी समानता का सिद्धांत लागू होता है. सैद्धांतिक तौर पर मैं बाज़ार में अपना श्रम बेचने को आज़ाद हूं, उसी तरह सामान ख़रीदने और बेचने के मामले में भी आज़ादी और समानता है. व्यक्ति का कर्तृत्व या उसकी आंतरिकता का स्वीकार जनतंत्र की बुनियाद है. वास्तविक तौर पर यह कितना हासिल किया जा सकता है, यह अलग सवाल है लेकिन इस सिद्धांत के कारण ही जनतंत्र को पूंजीवाद के लिए अनुकूल व्यवस्था माना जाता है.

जनतंत्र में, जैसे पूंजीवाद में व्यक्ति बुनियादी इकाई है. वह अपने बारे में निर्णय कर सकता है और इस मामले में वह बाक़ी सबके बराबर है.

कार्ल मार्क्स ने ही कहा कि पूंजीवाद अपने इस वादे को नहीं निभाता. श्रमिक संप्रभु नहीं है. न उसके श्रम पर उसका अधिकार है, न उसके उन वस्तुओं पर जो उस श्रम का परिणाम हैं. मार्क्स पूंजीवाद के आलोचक इसलिए हैं कि वह मनुष्य से उसकी सत्ता का अपहरण कर लेता है.

जब हम ऐसे आर्थिक व्यवहार के अंग हैं जिसमें अपनी भूमिका हम ख़ुद तय नहीं कर सकते, तो हम जनतंत्र को भी वास्तविक तौर पर कैसे उपलब्ध कर सकते हैं?

प्रकृति की अधीनता से मुक्त करके पूंजीवाद व्यक्ति को पूंजी और वस्तु का ग़ुलाम बना देता है. बल्कि मनुष्य को वह वस्तु में तब्दील कर देता है:

आपकी आज़ादी पसंद है उन्हें
चीज़ों का ग़ुलाम बनने की आज़ादी

मनुष्य की स्वतंत्रता के क्रमिक अपहरण के कहानी ही पूंजीवाद के विकास की कहानी है. पूंजी जितनी ही विशाल होती जाती है, मनुष्य उतना ही क्षुद्र होता जाता है. आप वह हैं, जो आप ख़रीद सकते हैं. और चीज़ों की दुनिया ही आपकी दुनिया है.

पूंजीवाद के आगे इंसान की हैसियत या तो ख़रीदार की है या बेचने वाले की. वह कितना ख़रीद सकता है, इससे उसकी सामाजिक स्थिति तय होती है. यहां तक कि कला पारखी भी आप हैं, यह इससे तय होता है कि आपने कितनी कलाकृतियां ख़रीद रखी हैं. लेकिन जो कृति आप ख़रीदते है, उसे आप चुनते हैं?

फिर धीरे धीरे हम सोचने, तय करने और चुनने की आज़ादी खोते जाते हैं:

और अब बाज़ार के हाथों में ही छोड़ दिया गया है दिमाग़
मुलायम दिमाग़
जिसे कंडे की तरह गोल करता है बाज़ार अपने अंगुलिचिह्न देता
कंडे जो भस्म होने को प्रस्तुत
समुद्रशायी बाडवाग्नि और पेट-जायी जठराग्नि की तरह

बाज़ार गर्भ में अहर्निश जलने वाली आग को
अमन्द रखने के लिए

हम इस विश्वबाज़ार को चलाते रहने के लिए ईंधन में बदल जाते हैं. लेकिन इसका एहसास हमें नहीं होता. यहां तक कि एक प्रोडक्ट की तरह तैयार करके नेता भी हमें पेश किया जाता है जिससे बेहतर किसी का ज़ायक़ा नहीं. हमें बतलाया जाता है कि इस प्रोडक्ट का कोई विकल्प नहीं.

जनतंत्र का संघर्ष इंसान के दिमाग़ को आज़ाद रखने का संघर्ष है. और वह पूंजीवाद से संघर्ष के बिना हो नहीं सकता. पूंजीवाद स्वाभाविक और प्राकृतिक जान पड़ता है और निर्विकल्प. लेकिन मनुष्य निर्विकल्पता को स्वीकार कर ले तो फिर मनुष्य कैसे रहे?

(लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय में पढ़ाते हैं.)

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