शिक्षकों पर चुनाव-संचालन का दायित्व: अध्यापन और कक्षाओं की हानि

चुनाव की ज़िम्मेदारी कुछेक दिन तक सीमित नहीं होती. चुनाव प्रक्रिया में शिक्षकों की भागीदारी दो से तीन महीने या उससे भी अधिक अवधि की हो सकती है, जिसकी वजह से कक्षाएं लंबे समय तक बाधित रहती हैं.

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(फोटो: पीआईबी/निर्वाचन आयोग)

सात चरणों में संपन्न हो रहा वर्ष 2024 का लोकसभा चुनाव मतदाताओं की संख्या की दृष्टि से दुनिया का सबसे बड़ा चुनाव है. इस चुनाव को संपन्न कराने के लिए निर्वाचन आयोग द्वारा बड़े पैमाने पर अधिकारियों और कर्मचारियों को प्रतिनियुक्ति के ज़रिये चुनाव प्रक्रिया से जोड़ा जाता है. चुनाव प्रक्रिया में भागी लोगों की इस लंबी फ़ेहरिस्त में स्कूल-कॉलेजों के शिक्षक भी प्रमुखता से शामिल हैं.

मगर निर्वाचन कार्य की यह ज़िम्मेदारी शिक्षकों के शिक्षण-संबंधी उत्तरदायित्व पर भारी पड़ जाती है. चुनाव की यह ज़िम्मेदारी यदि चुनाव के एक दिन पूर्व और चुनाव के दिन तक ही सीमित होती, तो शिक्षकों के लिए अपने शैक्षणिक उत्तरदायित्वों के साथ निर्वाचन संबंधी दायित्व का निर्वहन संभव भी होता. मगर निर्वाचन संबंधी कार्यों की लंबी अवधि, उनकी जटिलता और उनसे जुड़े दबाव को मानसिक रूप से झेलते हुए शिक्षकों के लिए अपनी शिक्षण संबंधी प्राथमिक ज़िम्मेदारियों को पूरा कर पाना दुरूह हो जाता है, जिसका ख़ामियाज़ा शिक्षकों के साथ छात्रों को भी भुगतना पड़ता है.

प्रायः लोगों को यह लगता है कि चुनाव संपन्न कराने की यह प्रक्रिया दो ही दिनों की होती है- चुनाव से एक दिन पहले जब पोलिंग पार्टी मतदान केंद्र के लिए रवाना होती है और ख़ुद चुनाव का दिन. इसमें अधिक-से-अधिक दो दिन प्रशिक्षण के और हो सकते हैं, जब मतदान कार्मिकों को प्रशिक्षण दिया जाता है. मगर असल में ऐसा है नहीं!

सच्चाई यह है कि चुनाव प्रक्रिया में शिक्षकों की भागीदारी दो से तीन महीने या उससे भी अधिक अवधि की हो सकती है. इस दौरान उन्हें ज़िले के निर्वाचन कार्यालय द्वारा जब-तब वॉट्सऐप या फोन पर सूचना देकर चुनाव संबंधी बैठक में शामिल होने या प्रशिक्षण में भाग लेने के लिए बुलाया जाता है या फिर सूचनाएं उपलब्ध कराने के लिए कहा जाता है.

जाहिर है कि ऐसे में शिक्षक के लिए अपनी शैक्षणिक ज़िम्मेदारियों को निभा पाना मुश्किल होता जाता है, जिसका सबसे अधिक नुकसान विद्यार्थियों को उठाना पड़ता है.

उत्तर प्रदेश का ही उदाहरण लें, तो यहां स्कूलों के शिक्षकों के साथ अधिकांश ज़िलों में राजकीय महाविद्यालयों और अशासकीय सहायता प्राप्त महाविद्यालयों के शिक्षकों को मास्टर ट्रेनर, सेक्टर मजिस्ट्रेट, स्टेटिक मजिस्ट्रेट और मतगणना पर्यवेक्षक के रूप में नियुक्त किया गया है. कुछ शिक्षकों को तो इनमें से दो या तीन ज़िम्मेदारियां सौंप दी गई हैं. चुनाव की तैयारी के क्रम में शिक्षकों को मार्च में चुनाव की अधिसूचना जारी होने से भी पहले से प्रशिक्षण और बैठकों में भाग लेने के लिए लगातार बुलाया जा रहा है.

अगर हम उन जगहों का उदाहरण लें, जहां चुनाव अंतिम चरण में यानी 1 जून को होने हैं, वहां यह प्रक्रिया मार्च के शुरुआती हफ़्तों से लेकर 4 जून को मतगणना समाप्त होने तक चलेगी यानी कुल तीन महीने तक.

इस दौरान मास्टर ट्रेनर के रूप में नियुक्त शिक्षकों को स्वयं प्रशिक्षित होकर मतदान कार्मिकों को प्रशिक्षण भी देना होता है. मतदान कार्मिकों यह प्रशिक्षण दो चरणों में होता है. पहला चरण, जिसमें पीठासीन अधिकारी और मतदान अधिकारी प्रथम, माइक्रो आब्ज़र्वर आदि प्रशिक्षण लेते हैं– चार से पांच दिनों का होता है. जबकि प्रशिक्षण का दूसरा चरण जिसमें पोलिंग पार्टी के चारों सदस्य हिस्सा लेते हैं- सप्ताह भर या उससे अधिक का हो सकता है.

स्पष्ट है कि मास्टर ट्रेनर के रूप में नियुक्त शिक्षक को तीन से चार दिन स्वयं प्रशिक्षण लेना है और क़रीब दस से बारह दिन उसे प्रशिक्षण देने में लगे रहना है. उक्त प्रशिक्षण कार्य की अवधि प्रतिदिन सात घंटे (सुबह दस बजे से लेकर शाम पांच बजे तक) की होती है.

अगर वह मास्टर ट्रेनर सेक्टर मजिस्ट्रेट भी है, जैसा कि उत्तर प्रदेश के अधिकांश ज़िलों में महाविद्यालयों के शिक्षकों के साथ हुआ है तो उसे सबसे पहले तो सेक्टर मजिस्ट्रेट के रूप में प्रशिक्षण लेना होता है. इसके अलावा उसे चुनाव की नियत तारीख़ से महीनों पहले अपने सेक्टर के अंतर्गत पड़ने वाले मतदान केंद्रों का सर्वेक्षण करना होगा और बूथ पर उपलब्ध न्यूनतम सुविधाओं का सर्वेक्षण कर रिपोर्ट भी देनी होगी. जिसमें रैंप, पीने का पानी, फ़र्नीचर, विद्युत, साइनेज, शौचालय, छाया (शेड) की उपलब्धता के साथ ही मतदेय स्थल के भवनों की स्थिति और वहां तक पहुंचने के मार्ग के बारे में भी जानकारी देना शामिल है.

ये मतदेय स्थल प्रायः ज़िला मुख्यालय से दूरी पर स्थित होते हैं, कई बार तो पचास से साठ किलोमीटर की दूरी पर भी.

सेक्टर मजिस्ट्रेट के रूप में तैनात शिक्षक को अपने खर्चे पर इन मतदेय स्थलों पर जाकर सर्वे करना होता है और अपनी रिपोर्ट को संबंधित तहसील में जमा करना होता है. इसके बाद ज़िला मुख्यालय में ज़िला निर्वाचन अधिकारी और संबंधित विधानसभा निर्वाचन क्षेत्र के उप-ज़िलाधिकारी के साथ अलग-अलग बैठकों का सिलसिला शुरू होता है, जो प्रायः चुनाव के एक दिन पहले तक चलता रहता है.

इस क्रम में निर्वाचन कार्यालय द्वारा सेक्टर मजिस्ट्रेट के रूप में तैनात शिक्षकों को जब-तब बैठक के लिए तलब कर लिया जाता है,जिसमें उसे मतदेय स्थलों पर न्यूनतम सुविधाओं की उपलब्धता के संदर्भ में न केवल अपडेट देने के लिए कहा जाता है बल्कि उससे यह भी अपेक्षा की जाती है कि वह संबंधित स्कूल के प्रधानाचार्य, प्रधानाध्यापक या उस मतदेय स्थल के बूथ लेवल ऑफ़िसर (बीएलओ) से वार्ता कर साइनेज आदि की विसंगतियों और दूसरी कमियों को भी दूर कराए.

चुनाव से एक दिन पूर्व पोलिंग पार्टी को उनके मतदेय स्थलों तक सकुशल रवाना करने की ज़िम्मेदारी भी सेक्टर मजिस्ट्रेट की ही होती है.

इस लंबे उबाऊ विवरण के क्रम में आप भूल न गए हों इसलिए याद दिला दूं कि यह सेक्टर मजिस्ट्रेट महाविद्यालय का एक शिक्षक है और शिक्षक के रूप में उसकी अपनी ज़िम्मेदारियां भी हैं जिसमें समय पर कक्षाएं लेना, परीक्षा एवं मूल्यांकन कार्य, प्रायोगिक परीक्षा संपन्न कराना, शोध-निर्देशन और शोध-कार्य आदि भी शामिल हैं.

राष्ट्रीय शिक्षा नीति के अनुरूप सेमेस्टर प्रणाली लागू होने के कारण सतत मूल्यांकन का दबाव भी शिक्षकों पर है. मार्च से मई की इस अवधि में महाविद्यालय के शिक्षकों पर विश्वविद्यालय द्वारा समय-समय पर जारी निर्देशों के अनुसार कक्षाओं का समयबद्ध संचालन, नियत समय पर पाठ्यक्रम पूरा करने और मिड-टर्म और एंड-टर्म की परीक्षाओं को संपन्न कराने की भी ज़िम्मेदारी है.

लेकिन ऐसा जान पड़ता है कि भारत का भविष्य माने जाने वाले युवा विद्यार्थियों को गढ़ने वाली शिक्षा का महत्त्व चुनाव आयोग की नज़रों में कुछ भी नहीं है. उसकी प्राथमिकता हर हाल में चुनाव संपन्न कराने पर है, भले ही इसके लिए शिक्षा की सिरे-से उपेक्षा और विद्यार्थियों के हितों की क़ुर्बानी ही क्यों न देनी पड़े. विद्यार्थी कक्षाओं से वंचित रह जाए, शिक्षक का सारा ध्यान शिक्षण और शोध-कार्य से हटकर निर्वाचन प्रक्रिया पर ही केंद्रित हो जाए, चुनाव आयोग और ज़िलों के निर्वाचन अधिकारियों की यही मंशा जान पड़ती है.

जबकि राष्ट्रीय शिक्षा नीति (2020) में यह स्पष्ट कहा गया है कि ‘वर्तमान में गैर-शैक्षणिक कार्यों में शिक्षकों के शामिल होने से ज़ाया होने वाले समय को कम-से-कम करने की दृष्टि से शिक्षकों को प्रशासनिक कार्यों या ऐसे कार्यों में नहीं लगाया जाएगा, जो सीधे तौर पर शिक्षण से जुड़े नहीं होंगे.’ (देखें नेशनल एजुकेशन पॉलिसी 2020, पृ. 21) इसके बावजूद शिक्षकों को चुनाव संबंधी सर्वे, मास्टर ट्रेनर, सेक्टर मजिस्ट्रेट, स्टेटिक मजिस्ट्रेट और मतगणना पर्यवेक्षक जैसे दायित्व सौंपे जाते हैं, जिसमें अकादमिक सत्र के दो-से-तीन महीने नष्ट हो जाते हैं.

इससे भी अधिक चिंताजनक बात तो यह है कि चुनाव को देखते हुए उत्तर प्रदेश और दूसरे राज्यों के तमाम विश्वविद्यालयों ने आनन-फ़ानन में परीक्षाएं संपन्न कराई हैं. चुनाव से पहले परीक्षाएं ख़त्म करने के लिए सत्र के लिए पूर्व-निर्धारित कक्षाओं की संख्या में कटौती कर दी गई, प्रश्नपत्रों की अवधि घटा दी गई, प्रतिदिन होने वाली परीक्षाओं की पालियों की संख्या बढ़ा दी गई और येन केन प्रकारेण चुनाव से पहले परीक्षाएं ख़त्म कर दी गईं हैं या होने वाली हैं.

यह तब हुआ है, जब महाविद्यालयों के अधिकांश शिक्षक सेक्टर मजिस्ट्रेट, मास्टर ट्रेनर या स्टेटिक मजिस्ट्रेट के रूप में नियुक्त हैं.

चुनाव में महाविद्यालय के शिक्षकों की नियुक्ति के मामले में 2024 का लोकसभा चुनाव कोई अपवाद नहीं है. चुनावी प्रक्रिया में उनकी नियुक्ति दशकों से होती आ रही है. उत्तर प्रदेश के हालिया अतीत पर निगाह डालें, तो वर्ष 2021 में कोरोना काल के दौरान हुए पंचायत चुनाव, 2022 के विधानसभा चुनाव और 2023 के नगरीय चुनाव– इन सभी चुनावों में महाविद्यालयों के शिक्षकों को सेक्टर मजिस्ट्रेट, मास्टर ट्रेनर, स्टेटिक मजिस्ट्रेट और मतगणना पर्यवेक्षक के रूप में नियुक्त किया गया,जिससे निश्चय ही शिक्षण कार्य लगातार बाधित हुआ.

इसमें ऐसे भी शिक्षक शामिल हैं जो अपने विभाग में एकमात्र शिक्षक हैं. महाविद्यालय के किसी विभाग के ऐसे अकेले शिक्षक को भी यदि चुनाव संबंधी जिम्मेदारियां सौंपी जाएंगी तो उक्त विभाग और उसकी कक्षाएं कैसे संचालित होंगी, यह वाजिब सवाल भी उठता है.

मगर फ़िलहाल तो यही लगता है कि निर्वाचन आयोग की नज़र में महाविद्यालय के शिक्षकों को चुनाव प्रक्रिया में शामिल कर देने से विद्यार्थियों को होने वाला नुकसान कोई विशेष चिंता की बात नहीं है.

ऐसे में निर्वाचन आयोग से यही गुज़ारिश की जा सकती है कि निर्वाचन आयोग देश में शिक्षा के महत्त्व को भी चुनाव के महत्त्व से कम करके न आंके. यदि चुनाव के दौरान शिक्षकों को चुनाव संबंधी ज़िम्मेदारी सौंपी भी जाए तो वह चुनाव के एक दिन पूर्व व चुनाव के दिन तथा ज़्यादा-से-ज़्यादा दो दिवसीय प्रशिक्षण की अवधि तक ही सीमित होनी चाहिए, उससे अधिक नहीं.

चुनावी प्रक्रिया को अंजाम देते वक्त निर्वाचन आयोग को शिक्षा और शिक्षकों के महत्त्व और उनकी भूमिका को नज़रअंदाज़ नहीं करना चाहिए.

(लेखक बलिया के सतीश चंद्र कॉलेज में इतिहास के शिक्षक हैं.)