जो हुआ, वो सही था
तुमने जो किया, सही था
तुम जो करोगे, वो सही ही होगा
जैसे बंटवारा सही था
भोगी-लोभी भी सही हैं
बाबरी मस्जिद विध्वंस सही था
गोधरा में जो हुआ सही था
तुम्हारी घृणा सही ही है
तुम्हारा चुनाव सही है
तुम्हारी ज़ुबान सच्ची है
तुम्हारा हिंदूवाद सही है
तुम इतने नफ़ीस दुश्मन हो कि
अब तो सब सही है
न्यायालय
लोकतंत्र
भांड
मसखरे
चुनाव
तुम्हारी नफ़रत सही है
क्योंकि उसपे तुमने कोई मुखौटा नहीं ओढ़ा
आज एक दोस्त से मुसाफ़ा करते वक्त
उसकी आस्तीन में छुपा
छुरे का सिरा चमक उठा
इसके पहले कि
पुराने वक्तों की याद के बाबत
दोस्त शर्मिंदा होता
मैं ख़ुद शर्मिंदा हो लिया
और मुस्कुरा दिया
हमें भी यक़ीन आ ही गया अब
आना ही था एक दिन
कि कोई भाईचारा नहीं था कभी यहां
न कोई गंगा जमुनी तहज़ीब थी
ये सब तो बुजुर्गों की क़ब्रों से उठती धूल थी
जो बैठ गई
तुम्हारी फ़िल्मों, नाटकों और कथाओं के दृश्य
इस बात की गवाही देते हैं
कि सब सही है यहां
इसलिए अब किसी तमहीद की ज़रूरत नहीं रही…
ग़नीमत है
तुमने पचहत्तर सालों का भ्रम
दूर कर ही दिया हमारा
इसलिए अब तो सब सही है!
और मैं ये सोचकर कितना आश्वस्त हूं
कि इस गर्मी की दुपहर
कच्चे प्याज़ और कुछ रोटियां खाकर
मुझे आख़िरकार
नींद आ ही जाएगी.
अदनान कफ़ील दरवेश की कविता ‘अब तो सब सही है’ में कौन किससे बात कर रहा है, यह स्पष्ट है. एक हिंदुस्तानी मुसलमान एक हिंदुस्तानी हिंदू को संबोधित कर रहा है. ‘अब तो सब सही है’ की अलग-अलग तरीक़े से आवृत्ति भारत के जनतांत्रिक गणतंत्र के रूप में स्थापना के 75 साल बाद इस मुल्क के बाशिंदे मुसलमान की अपनी नियति के एहसास की अभिव्यक्ति है. यह नहीं कि दुख इसमें नहीं, लेकिन ख़ुद को वह भावुकता में नहीं बदलने देता. जिसकी वजह से वह पैदा हुआ है उसे उस दुख का फ़ायदा नहीं उठाने देता. दुख ज़ाहिर करने वाले के सामने उसे सुनने वाला ताकतवर मालूम होने लगता है.
दरवेश उस वक्रता की परवाह नहीं करते जिसके बारे में कहा जाता रहा है कि वह भाषा के एक संयोजन को कविता में बदल देती है. यह कविता एक सपाट बयान है. और एक टिप्पणी भी है.
कविता भारतीय जनतंत्र के 75 साल बाद भारत में मुसलमान के बराबरी के नागरिक होने के भ्रम के ख़त्म होने के यथार्थ को स्वीकार करती है. लेकिन वह भ्रम कोई है जो तोड़ रहा है या जिसने तोड़ा है:
ग़नीमत है
तुमने पचहत्तर सालों का भ्रम
दूर कर ही दिया हमारा
यह तुम हिंदू है. जो कुछ भी हुआ है वह कोई अपने आप होने वाली प्रक्रिया नहीं. वह हिंदुओं का फ़ैसला है:
तुमने जो किया, सही था
तुम जो करोगे, वो सही ही होगा
….
बाबरी मस्जिद विध्वंस सही था
गोधरा में जो हुआ सही था
तुम्हारी घृणा सही ही है
तुम्हारा चुनाव सही है
तुम्हारी ज़बान सच्ची है
तुम्हारा हिंदूवाद सही है
बाबरी मस्जिद विध्वंस, गोधरा और उसके बाद गुजरात में मुसलमानों के ख़िलाफ़ हिंसा स्वतः हुई घटनाएं नहीं. वे हुईं एक घृणा के कारण, एक चुनाव के कारण. उनके पीछे है एक हिंदूवाद.
यह कहना ज़रूरी है कि अदनान उस पीढ़ी के कवि हैं जो बाबरी मस्जिद के विध्वंस के बाद पैदा हुई, लेकिन जिसके फेफड़ों में उसके ढहने से उठी धूल भरी हुई है.
बाबरी मस्जिद का ध्वंस घटना भर न थी. वह एक सिलसिला है जो जारी है. 1992 के बाद 2002 में अहमदाबाद में वली दकनी के मज़ार को बुलडोज़र से नेस्तनाबूद कर देना भर नहीं. उसे वापस बनाए जाने से पूरा इनकार और उस इनकार में हिंदुओं की सहमति. वह वहां भी ख़त्म न हुआ. अहमदाबाद से बहुत दूर दिल्ली में खामोशी से मंडी हाउस में सूफ़ी नन्हें मियां चिश्ती के मज़ार को ध्वस्त कर दिया गया. कवि अपने पुरखे से बात करता है:
दरअस्ल
दिन एक जबड़े में थी
आपके मज़ार की एक-एक ईंट
आसमान था हर वक्त आपका निगहबां
रात ने तो बस सबकुछ बराबर कर दिया
चुपचाप ….
इस तलातुम में आप खुदा से लौ लगाए
सोते हैं चैन की नींद!
बहुत दिन जी लिए की तरह ही
बहुत दिन मर लिए आप ऐ बुज़ुर्ग!
क़यामत का दूर-दूर तक कोई निशान नहीं
रोज़े-हश्र में अभी काफ़ी वक़्त है
उससे पहले उठें
अपने मुसलमान होने की सज़ा भुगत लें.
फिर एक दिन सुनहरी बागवाली सड़क के कोने के मज़ार को भी ज़मींदोज़ कर दिया गया. और फिर हमने सुना कि उत्तराखंड में एक-एक करके मज़ारों को तोड़ा जा रहा है. उसमें कोई पोशीदगी भी नहीं. गर्व से, ऐलानिया क़ब्रों, मज़ारों को तोड़ा जा रहा है. उत्तराखंड जो हिंदुओं की देवभूमि है, उसे इन क़ब्रों और मज़ारों ने प्रदूषित कर दिया है. इन्हें तोड़ना एक तरह से प्रदूषण दूर करना है. यह राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के विचार से प्रेरित लोग कर रहे हैं, लेकिन हिंदुओं की बड़ी आबादी खामोशी से इसे देख रही है. उसे यह बुरा लग रहा है, इसका कोई सबूत नहीं.
किसी राजनीतिक दल ने इस पर कोई एतराज किया हो, कोई अदालत गया हो, इसकी खबर नहीं. मुर्दों को भी मुसलमान होने की सज़ा दी जा रही है:
बहुत दिन जी लिए की तरह ही
बहुत दिन मर लिए आप ऐ बुज़ुर्ग!
क़यामत का दूर-दूर तक कोई निशान नहीं
रोज़े-हश्र में अभी काफ़ी वक़्त है
उससे पहले उठें
अपने मुसलमान होने की सज़ा भुगत लें.
बाबरी मस्जिद का ध्वंस हिंदुओं की बड़ी आबादी के द्वारा उस हिंदूवाद को स्वीकार किए बिना संभव नहीं था जो राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने उन्हें दिया. और जब वह स्वीकार कर लिया गया और सर्वोच्च न्यायालय ने बाबरी मस्जिद की ज़मीन को सुपुर्द कर दिया राम मंदिर निर्माण के लिए तो एक न्याय सिद्धांत स्थापित हुआ जिसे हिंदूवादी न्याय सिद्धांत कहा जा सकता है.
वह सिद्धांत अमल में लाया गया जब ज्ञानवापी मस्जिद के सर्वेक्षण के हिंदुओं के आग्रह को सर्वोच्च न्यायालय ने यह कहकर उचित ठहराया कि मस्जिद में क्या है, इसका कौतूहल हिंदुओं को हो सकता है और वह शांत किया ही जाना चाहिए. वह सर्वेक्षण वहीं नहीं रुका. अब मस्जिद के तहखाने में पूजा की इजाज़त भी अदालत ने दी है.
मुसलमान जीवन को लेकर यह हिंदू कौतूहल कितना घातक हो सकता है, यह दिल्ली के क़रीब दादरी में मोहम्मद अखलाक़ की हत्या ने ज़ाहिर किया. हिंदुओं की भीड़ उनके घर घुस गई, उसने उनका फ्रिज खोकर उसमें पड़े गोश्त को गोमांस घोषित करके अखलाक़ को मार डाला. अखलाक़ पर इल्ज़ाम था कि उसने घर में गोमांस रखा था.
हर किसी का कौतूहल था कि जो मांस मिला, वह क्या था. कहा गया कि अखलाक़ की हत्या ग़लत थी क्योंकि वह गोमांस नहीं था. किसी ने नहीं कहा कि अखलाक़ के घर में क्या है, यह जानने का अधिकार हिंदुओं का नहीं था, उसके घर में घुसना और उसका फ्रिज खोलना जुर्म था. यह किसी ने नहीं कहा. उस भीड़ पर ‘ट्रेसपास’ का कोई मुक़दमा दर्ज न हुआ!
यह सब कुछ क्या कुछ अपराधी गिरोह कर रहे हैं? अदनान को कोई ग़लतफ़हमी नहीं रह गई है. एक-एक करके मुसलमान अब यह देख पा रहे हैं कि जिनके साथ वे खेले-कूदे थे, वे उनसे नफ़रत करने वाले निकल रहे हैं. नौकरशाह, पुलिस अधिकारी, अध्यापक, डॉक्टर, यहां तक कि फ़ौजी भी: सब अपने पुराने दोस्तों, हमपेशा लोगों की मुसलमानों से नफरत अब छिपती नहीं:
आज एक दोस्त से मुसाफ़ा करते वक्त
उसकी आस्तीन में छुपा
छुरे का सिरा चमक उठा
इसके पहले कि
पुराने वक्तों की याद के बाबत
दोस्त शर्मिंदा होता
मैं ख़ुद शर्मिंदा हो लिया
और मुस्कुरा दिया
यह भी दिलचस्प विडंबना है कि अपने ख़िलाफ़ इस नफ़रत को देख, पहचानकर मुसलमान ही झेंप जाते हैं मानो वे ही इसके लिए ज़िम्मेदार हों.
मुझे एक मुसलमान डॉक्टर मित्र ने बतलाया कि उनके बैच के लोगों के वॉट्सऐप ग्रुप में उनकी एक डॉक्टर मित्र ने बतलाया कि उनके अपार्टमेंट में उसका एक फ्लैट है जिसे वे बेचना चाहती हैं. मेरे मित्र अपने भाई के लिए मकान खोज रहे थे. उन्होंने अपनी बैचमेट को यह बतलाया और पूछा कि क्या वे अपना फ्लैट उन्हें बेचना चाहेंगी. दूसरी तरफ़ से खामोशी. मेरे डॉक्टर मित्र को जवाब मिल गया: वे अपने मुसलमान मित्र को मकान नहीं बेचना चाहती थीं हालांकि उनके साथ 6 साल पढ़ी थीं: दोस्त की आस्तीन में छिपा छुरा चमक उठता है.
भारतीय जनतंत्र एक वादा था और एक यक़ीन. हिंदू मुसलमान दोस्ती या भाईचारा उसकी बुनियाद थी. लेकिन 75 सालों बाद
हमें भी यक़ीन आ ही गया अब
आना ही था एक दिन
कि कोई भाईचारा नहीं था कभी यहां
न कोई गंगा जमुनी तहज़ीब थी
ये सब तो बुजुर्गों की क़ब्रों से उठती धूल थी
जो बैठ गई
यह कविता मुसलमानों की निराशा की जितनी नहीं, उतनी यथार्थ की पहचान की कठोरता की है. यह यथार्थ क्या है, मुझे एक दूसरे मुसलमान दोस्त से बात करते हुए जान पड़ा. उन्होंने कहा कि इस दुनिया में ऐसे मुल्क हैं, जहां पहले दर्जे के और दूसरे दर्जे के शहरी हुआ करते हैं. वे भी वहां ज़िंदगी गुज़ार ही लेते हैं. हमें सिर्फ़ यह जान लेना है कि हिंदुस्तान में हम अब दूसरे दर्जे के लोग हैं:
मैं ये सोचकर कितना आश्वस्त हूं
कि इस गर्मी की दुपहर
कच्चे प्याज़ और कुछ रोटियां खाकर
मुझे आख़िरकार
नींद आ ही जाएगी.
भारतीय जनतंत्र अगर 75 साल में अपनी आबादी के 15% लोगों, जो मुसलमान हैं, को यह नींद दे रहा है तो यह उसके सफ़र के बारे में कैसी खबर है?
(लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय में पढ़ाते हैं.)
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