वे पसंद नहीं करते
‘जाति’ पर बात करना
क्योंकि वे नहीं हैं
पासी-चमार
भंगी-महार
जबकि वे हर रोज़ करते हैं
इस्तेमाल
इन जातियों को गाली की तरह
कड़ी मशक़्क़त और तू-तू , मैं-मैं के बाद
मैंने जुटाया है एक आईना
जिसमें उभरता है बिंब
जो उन्हें लगता है बीभत्स
प्रतिशोध से भरा हुआ
जितनी बार भी देखते हैं वे
उतनी ही बार हो जाता है
उनका चेहरा विद्रूप
अमानुषिक दर्प से भरा हुआ
वे फुसफुसाते हैं—
दार्शनिक मुद्रा में
क्रांति बोध
और जनतंत्र बोध
खो देते हैं अपना अर्थ
लहूलुहान हैं स्मृतियां
जंग लगी बाद की खरोंचों से
आंबेडकर की आदमकद मूर्ति के पास
बैठा मोची चीखता है ऊंची आवाज़ में
‘किस हरामज़ादे की देन है यह जाति’
आईना धुंधलाने लगा है
जिसे क़मीज़ से पोंछकर
खड़ा हूं चौराहे पर
जहां से गुजरा है अभी-अभी
एक जुलूस
जिसमें शामिल थे
बिन चेहरों के लोग
जिनके हाथों में चमक रही थीं
तलवारें, त्रिशूल और तमंचे
उनके पीछे चल रहा था एक ट्रक
जिस पर लिखा था —
‘इसमें आरडीएक्स भरा है’
इस खूंखार समय में
आरडीएक्स की जगह
हो सकती हैं मूर्तियां
जो आस्था के प्रश्न पर
कर दी जाएंगी फ़िट
अवैध जगहों पर
खून ख़राबे के लिए किसी तर्क की
आवश्यकता नहीं होती है
मेरी रक्त शिराओं में
हर रोज़ घुल रही है दहशत
फिर भी,
मैं बार-बार जोड़ता हूं
विखंडित शब्दों को
चिंदी-चिंदी उस चदरिया की तरह
जिसे ओढ़कर
कभी निकला था कबीर
बनारस की गलियों में!
ओम प्रकाश वाल्मीकि की कविता ‘आईना’ पढ़ते हुए दिल्ली के ऑल इंडिया इंस्टिट्यूट ऑफ मेडिकल साइंसेज़ की एक घटना याद हो आई. हमें संस्थान के एक छात्र के साथ जाति के आधार पर किए जा रहे उत्पीड़न की खबर मिली थी. उसकी जांच करने जब हम उसके हॉस्टल पहुंचे तो उसके कमरे के दरवाज़े और उसके आसपास की दीवारों पर लिखी गालियों को देखकर स्तब्ध रह गए. लेकिन जब उन गालियों को ध्यान से पढ़ा तो उनके पीछे की अश्लील क्रूरता के अलावा एक भयानक चालाकी भी साफ़ दिखलाई पड़ी. इन गलियों में कहीं भी जातिसूचक गाली नहीं थी. वे गालियां थीं, लेकिन उन्हें देखकर अदालत कह देती कि गालियां जाति के कारण नहीं दी गईं. वे ज़रूर अपमानजनक हैं, लेकिन वे तो कोई भी किसी को भी दे सकता है.
समझ में आया कि यह चतुराई अनुसूचित जाति उत्पीड़न संबंधी क़ानून से बचने के लिए की गई थी.
हाल में सर्वोच्च न्यायालय ने एक मामले में यह सिद्धांत स्थिर किया कि जाति आधारित अपमान अगर सार्वजनिक तौर पर न किया गया तो उसे अपराध मानना कठिन है. जाति को अदृश्य करके भी किस भाषाई क्रूरता और चालाकी के साथ जाति आधारित उत्पीड़न किया जा सकता है, यह बांग्ला के दलित लेखक मनोहर मौली बिस्वास ने अपनी कविता ‘समझ’ में बतलाया है.
बिस्वास को उच्चवर्णीय भद्रलोक सोनार चांद कहकर बुलाते थे. सोनार चांद दुलार का संबोधन है. लेकिन बिस्वास को मालूम था कि यह उन्हें अपमानित करने के लिए इस्तेमाल किया जा रहा है. अंग्रेजी में सोनार चांद के पहले दो अक्षर हैं ‘एस’ और ‘सी’ हैं, जो शेड्यूल्ड कास्ट के लिए इस्तेमाल होने वाले संक्षिप्त स्वरूप के पहले दो अक्षर भी हैं. इसके पीछे के उपहास को मात्र बोलने वाला और सुनने वाला ही समझ सकता है. अदालत के कान नहीं.
जाति उन गालियों में नहीं थी, जो हमने एम्स के हॉस्टल की दीवार पर देखीं. उसके बाद संस्थान के प्रमुख ने अपने अध्यापकों के साथ हमारी मीटिंग कराई. प्रमुख और अध्यापकों ने इस घटना पर हैरानी जतलाई: जाति और जाति के आधार पर भेदभाव? जाति के बारे में तो उन्होंने तब सुना जब सरकार उच्च शिक्षा में आरक्षण ले लाई. उसी से सारा टंटा शुरू हुआ.
यह 2006 था. भारत के जनतंत्र बने 60 साल होने जा रहे थे. लेकिन हमारा शिक्षित वर्ग कह रहा था कि उसे जाति का पता सरकार की आरक्षण की नीति की घोषणा के साथ चला. ऐसे लोग बहुत हैं जो मानते हैं कि उन्होंने जीवनभर जाति पर कभी ध्यान नहीं दिया.
समाजशास्त्री मित्र सतीश देशपांडे अपने लेखों में जाति की इस दृश्यता और अदृश्यता पर व्यंग्यपूर्वक मुस्कुराते हैं. किसे इसकी सुविधा है कि वह अपनी जाति की पहचान की मुखरता के बिना भी जीवन के हर मरहले पार करता जाए? किसे इसकी इजाज़त नहीं है?
सतीश देशपांडे कहते हैं कि भारत में एक बड़ा तबका विकसित हो गया है जो ‘जातिविहीनता’ का दावा कर सकता है. यह तबका शिक्षा और संपत्ति संग्रह के बल पर इस स्थिति में पहुंचा है कि वह अपनी जातीय स्थिति के प्रति बेपरवाह है, उसे कभी इसका ज़िक्र भी नहीं करना होता. किसी भी सार्वजनिक चर्चा में जाति के उल्लेख से लोगों का रवैया बदल जाता है. यह किसी एक व्यक्ति की हिचक नहीं, बल्कि एक अधिक व्यापक परिघटना का सूचक है जिसमें जाति की चर्चा से ही असुविधा होने लगती है क्योंकि यह आधुनिकता और प्रतिभाशीलता के दावों की पोल खोलती है. इसलिए जाति का कोई भी ज़िक्र गवारा नहीं.
दिल्ली विश्वविद्यालय में समाजशास्त्र, राजनीतिशास्त्र और नृतत्त्वशास्त्र या और विषयों में जाति के उल्लेख पर अधिकारियों ने एतराज किया. उनके मुताबिक़ जाति का उल्लेख समाज में विभाजन पैदा करता है और नकारात्मक है. अर्थशास्त्र में एक पर्चा भेदभाव के अर्थशास्त्र पर था. उसे हटा दिया गया. पूछने पर अधिकारियों ने कहा कि ‘भेदभाव’ (डिस्क्रिमिनेशन) सुनने में भी कितना बुरा लगता है!
इसी वजह से 2020 की राष्ट्रीय शिक्षा नीति भी जाति का उल्लेख करने में संकोच करती है. जाति का यथार्थ इस राष्ट्र की विभाजनहीनता, समरसता के स्वप्न को तोड़ डालता है.
जाति के ज़िक्र से कौन बिदकता है? कविता साफ़ कहती है:
वे पसंद नहीं करते
‘जाति’ पर बात करना
क्योंकि वे नहीं हैं
पासी-चमार
भंगी-महार
ऐसा नहीं कि जाति उनके शब्दकोश में है ही नहीं. जो ‘पासी-चमार,भंगी-महार’ नहीं है
वे हर रोज़ करते हैं
इस्तेमाल
इन जातियों को गाली की तरह
इसके साथ सवाल यह भी है जब जाति पर किस तरह बात करना जातिवाद होता है और कब वह सांस्कृतिक गौरव होता है? क्यों परशुराम जयंती मनाना सांस्कृतिक उत्सव है जबकि आंबेडकर जयंती जातिवाद? क्यों लालू यादव या कांशीराम की राजनीति जातिवादी है और क्यों भारतीय जनता पार्टी या औरों की जातिवादी नहीं है?
तब आज़ादी के पंद्रह साल भी नहीं हुए थे. मेरे अध्यापक पिता को याद है कि बिहार के 18 ज़िलों में 17 में शिक्षा अधिकारी भूमिहार जाति के ही नियुक्त हुए. प्रश्न करने पर मंत्री ने सीना तानकर कहा कि इसमें कुछ ग़लत नहीं अगर एक और मिल जाता तो 18 के 18 भूमिहार हो सकते थे. उनकी नियुक्ति जाति के कारण नहीं, योग्यता के कारण की गई थी. यह अलग बात है कि मंत्री ख़ुद भूमिहार थे.
लेकिन लालू यादव के समय यह गिना जाता था कि कितने यादव कहां-कहां मुख्य पदों पर हैं? वह स्वाभाविक तौर पर जातिवाद मान लिया गया था.
जाति एक दूसरी निगाह से भी मुश्किल पैदा करती है. जाति के उल्लेख को हिंदू राष्ट्र की कल्पना में दरार पैदा करने की साज़िश माना जाता है. एक हिंदू चेतना जाति की दरारों पर क़ालीन की तरह बिछा दी जाती है:
आईना धुंधलाने लगा है
जिसे क़मीज़ से पोंछकर
खड़ा हूं चौराहे पर
जहां से गुजरा है अभी-अभी
एक जुलूस
जिसमें शामिल थे
बिन चेहरों के लोग
जिनके हाथों में चमक रही थीं
तलवारें, त्रिशूल और तमंचे
यह वह आईना है जो आंबेडकर ने दिया था या सबने कड़ी मशक़्क़त के बाद हासिल किया था. इस आईने में हर किसी का चेहरा जैसा वह है, वैसा ही दिखता है:
कड़ी मशक़्क़त और तू-तू , मैं-मैं के बाद
मैंने जुटाया है एक आईना
जिसमें उभरता है बिंब
जो उन्हें लगता है बीभत्स
प्रतिशोध से भरा हुआ
जितनी बार भी देखते हैं वे
उतनी ही बार हो जाता है
उनका चेहरा विद्रूप
अमानुषिक दर्प से भरा हुआ
इस आईने को तोड़ देने, छिपा देने की बहुत कोशिश की गई है. और अब राष्ट्रवाद की भाप से यह धुंधलाने लगा है. कौन इसे मिटाएगा कि जो जैसा है वैसा ही दिखे? इसलिए नहीं कि जो जैसा है, वैसा ही रहे!
(लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय में पढ़ाते हैं.)
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