रश्दी को उनके साहित्य ने ही ख़तरे में डाला, फिर उसी ने बचाया

कभी-कभार | अशोक वाजपेयी: सलमान रश्दी की हालिया किताब से एक बार फिर यह ज़ाहिर होता है कि उनका सबसे कारगर हथियार और सबसे विश्वसनीय कवच साहित्य ही रहा है, जहां उनकी भाषा और कल्पना सबसे टिकाऊ आश्रय पाती रही है.

/
(फोटो साभार: पिक्साबे/ट्विटर/@SalmanRushdie)

जो सबसे बड़ा चमत्कार हमारी कला की दुनिया में पिछले एकाध दशक में घटा है वह है बड़ी संख्या में गोंड प्रधान कलाकारों का उदय. सौ के आस-पास की संख्या में, इनमें से अधिकांश कलाकार युवा हैं और बड़ी संख्या में पाटनगढ़ और मंडला जैसे गांव-कस्बे में रहकर काम करते हैं. उनमें बहुत सारे युवा हैं और उनमें कई स्त्रियां भी हैं. प्रायः सभी ने कला की कोई शिक्षा-दीक्षा औपचारिक ढंग से नहीं ली है. लेकिन उसके काम में कौशल, परिष्कार, सूक्ष्मता और दृष्टि की कोई कभी नहीं है.

जिस अंचल से ये आदिवासी कला आ रही है वह अंचल अंग्रेज़ी कवि-लेखक रूडयार्ड किपलिंग, आस्ट्रियन नृतत्वशास्त्री वेरियर एलविन और चित्रकार सैयद हैदर रज़ा का अंचल भी रहा है. किपलिंग की पुस्तक ‘जंगल बुक’ इसी इलाके सिवनी-डिंडोरी के जंगलों की कथा है. एलविन पाटनगढ़ में कुछ समय रहे थे और उन्होंने वहां विवाह भी किया था. रज़ा का बचपन इसी इलाके में बीता और वे मंडला में ही दफ़्न हैं.

‘गोंड़ कलम’ के नाम से आदिवासी कलाकारों के चित्रों की प्रदर्शनी रज़ा फाउंडेशन ने इंडिया इंटरनेशनल सेण्टर नई दिल्ली की कला-वीथिका में आयोजित की. पहली नज़र में ही यह स्पष्ट हो जाता है कि इन कलाकृतियों में जो संसार प्रगट हो रहा है उसमें सौंदर्य है, लालित्य है, विपुलता है पर उसके केंद्र में मनुष्य नहीं है. यह मनुष्य-रचित कला तो है पर मनुष्य-केंद्रित नहीं. यह जीवन पर केंद्रित है और उसका अधिकांश इन कला को सुंदर और पर्याप्त प्रकृति में दिखता-मिलता है. उसमें मनुष्य जब कभी आता है तो वह प्रकृति का हिस्सा बनकर है, अक्सर उसकी आकृति और क़द वृक्षों-पक्षियों-पशुओं से छोटा ही चित्रित है.

हमारा समय और आधुनिकता मनुष्य पर एकाग्र रहे हैं. यह कला, चुपचाप, पूरी विनम्रता से, मानो इस दृष्टि को अस्वीकार करती है: एक वैकल्पिक संसार रचती है जो सुंदर-ललित-स्पंदित है और जिसे मनुष्य, ख़ासकर आधुनिक मनुष्य, नष्ट या विकृत नहीं कर पाया है.

आधुनिक कला में अति यथार्थ का बहुत बोलबाला रहा है. ज़्यादातर यह अति यथार्थ सचाई को विद्रूपित करता आया है. गोंड़ प्रधानों की कला में अतियथार्थ विद्रप नहीं, नया रूप बनाता है. उसमें एक वृक्ष में या एक हाथी के शरीर में पूरा संसार, उसके अनेक दृश्य, छबियां ऐसे अवस्थित की जाती हैं जैसे कि उनका वैसा यानी अति यथार्थ होना बिल्कुल स्वाभाविक है.

यह आश्चर्य से कम नहीं है कि ये आदिवासी कलाकार, बिना किसी प्रशक्षिण के, इतनी बारीकी का काम कर सकते हैं. वे बिल्कुल नए क़िस्म के रंगों, ब्रशों और कलमों आदि का बहुत कुशल और कल्पनाशील उपयोग करने सहज सक्षम हैं. उनकी प्रतिभा और आत्मविश्वास कम आश्चर्यजनक नहीं हैं. अगर सच्ची कला चकित करती है तो गोंड़ कला लगातार बिना कोई नाटकीय मुद्रा अपनाए, चकित करती है: वह सुंदर और सच्ची एक साथ है.

इस पर कुछ गंभीरता से विचार करने की ज़रूरत है कि आधुनिकता ने हमें मनुष्यों की दुनिया में सुंदरता और लालित्य खोजने-पाने से लगभग वंचित क्यों कर दिया. ख़ासकर साहित्य और ललित कलाओं में. संगीत और नृत्य में सुंदरता अभी तक आवश्यक मानी जाती है पर साहित्य और कलाओं में नहीं. सही है कि राजनीति, बाज़ार आदि ने ऐसे विकराल विद्रूप रच दिए हैं और एक क़िस्म के नीच उत्साह से अब भी ऐसी विद्रूपता वे बिखेर रहे हैं कि रूप और सौंदर्य की कल्पना कठिन है.

गोंड़ प्रधान अपने घर-परिवार और अंचल में दैनंदिन जीवन में जो संघर्ष करते हैं वह विकट है: उनका सामान्य जीवन कठिन संघर्ष का है. पर वह उनकी सुंदर और ललित का, जीवन की अदम्य विपुलता का बोध और खोज बाधित नहीं करता. असल में हम शहरातियों की कल्पना, स्वप्नशीलता और जिजीविषा बहुत मंद और संकीर्ण हो गई है. कला का एक काम हमें इससे उबार सकना चाहिए.

ख़ंजर

सलमान रश्दी की नई पुस्तक ‘पेन’ उपन्यास या निबंध नहीं है. वह वृतांत है उन पर खंज़र से हमले, उससे हुई उनकी क्षति, इलाज और सर्जरी, अपनी एक आंख गंवाने और फिर सामान्य जीवन और लेखन में वापस आने का. ऐसा वृतांत कई बार उबाऊ हो सकता है पर कथाकार रश्दी के यहां वह मार्मिक और शुरू से आखि़र तक पठनीय बना रहता है. वह उस कथाकार की दारूण गाथा भी बन जाता है जिसे अपने एक उपन्यास के कारण बरसों एक राज्य की कट्टर धार्मिकता से निकले फ़तवे के नतीजे में छुप-छुपकर रहना पड़ा और अंततः इस जानलेवा हमला का शिकार होना पड़ा जिसमें एक नौजवान ने खंज़र से उनकी हत्या करने की कोशिश की और मारने में तो कामयाब नहीं हुआ पर घायल कर पाया.

इस जानलेवा हमले से पहले भी रश्दी को कई घाव लगते रहे हैं. उनकी चर्चा भी इस पुस्तक में है. उनको उनके साहित्य ने ही ख़तरे में डाला और फिर एक तरह से साहित्य ने ही उन्हें अपने घावों पर मरहम देने की सुविधा दी और अंततः मनुष्य बने रहने के लिए बचाया.

इस पुस्तक की एक खूबी यह भी है कि रश्दी अपने हमलावर के प्रति किसी तरह की घृणा या प्रतिशोध की भावना क़तई नहीं दिखाते हैं. वे उसके इरादों को समझना चाहते हैं और दुर्लभ सहानुभूति से कहते हैं कि वह चला था उनकी ज़िंदगी नष्ट करने जो वह कर नहीं पाया और उसने अपनी ज़िंदगी बर्बाद कर ली है क्योंकि वह सज़ा भुगतेगा और जेल में अपनी ज़िंदगी का बड़ा हिस्सा बिताएगा.

रश्दी हमारे समय के सबसे विवादग्रस्त लेखकों में से एक रहे हैं. उन्हें दिखाऊ-भड़काऊ, बेवजह नाटकीय, ढोंगी, इस्लामविरोधी, जानबूझकर विवाद-उकसाऊ आदि कहा जाता रहा है. इस पुस्तक से एक बार फिर यह ज़ाहिर होता है कि रश्दी का सबसे कारगर हथियार और सबसे विश्वसनीय कवच साहित्य ही रहा है जहां उनकी भाषा और कल्पना सबसे टिकाऊ आश्रय पाती रही है. फ़तवों, सार्वजनिक निंदा और विवादों, हमलों और कड़ी सुरक्षा में जीवन की एक बड़ी अवधि बिताने के बावजूूद रश्दी की जिजीविषा और निर्भयता उनके साहित्य में अटल आस्था से ही निकलती रही हैं.

अपनी तकलीफ़ों के बखान में रश्दी आज दुनिया में जो हो रहा है उसे नहीं भूलते और उस पर टिप्पणी भी करते हैं. वे यह भी बताते हैं कि उन पर इस्लामी चिंतन और कला का बहुत प्रभाव पड़ा है, उससे कहीं अधिक वे ईसाई दुनिया के प्रभाव में रहे हैं. उन पर हिंदू आख्यानों का भी प्रभाव पड़ा है. पर वह यह लक्ष्य करने से इस मुक़ाम पर भी नहीं चूकते कि दुनिया भर में धर्मों के आधार पर झूठ आख्यान गढ़े जा रहे हैं.

वे यह भी नोट करते हैं कि भारत में बंटवारे के बाद महात्मा गांधी और नेहरू जैसे राजनेता थे जिन्होंने तय किया था कि विभाजित भारत में शांति बहाल करने का एक ही रास्ता है कि धर्मों को सार्वजनिक क्षेत्र से बाहर रखा जाए. आज भारत का निज़ाम इस व्यवस्था को हटाकर हिंदू राष्ट्र बनाने पर तुला है. वे यह भी जिक्र करते हैं कि आज दुनिया में इस्लाम, ईसाइयत और हिंदू सभी धर्म हथियारबंद हो रहे हैं. इनका शस्त्रीकरण हो रहा है.

रश्दी कहते हैं कि धर्म को निजी चुनाव और व्यवहार का मामला ही रहना चाहिए और अगर वह एक राजनीतिक विचारधारा का रूप लेता है तो उसे आलोचना के लिए तैयार होना चाहिए. ‘अपनी निजी ज़िंदगी में आप जो चाहें उसमें विश्वास करें. राजनीति और सार्वजनिक ज़िंदगी के झमेले में, किसी विचार को बाड़ के अंदर महफूज़ नहीं रखा जा सकता, न ही उसे आलोचना से बचाया जा सकता है.’

उनकी यह स्थापना महत्वपूर्ण है कि प्रायः सभी धर्म मनुष्यता के बालकांड में उपजे थे. अब मनुष्यता वयस्क हो चुकी है और उसे कई तथाकथित धार्मिक स्थापनाओं और विश्वासों को संशोधित-परिवर्द्धित करना चाहिए.

वे अपने विफल हत्यारे से कहना चाहते हैं:

‘… मेरी ज़िंदगी में तुम्हारी दख़लन्दाज़ी हिंसक और क्षतिकारी थी. लेकिन अब मेरी ज़िंदगी वापस आ गई है और वह प्यार से भरपूर है. मुझे पता नहीं तुम्हारी क़ैद ज़िंदगी किससे भरी होगी, पर मुझे यक़ीन है वह प्यार नहीं होगा…. मैं तुम्हें माफ़ नहीं करता, न माफ़ नहीं करता हूं. तुम अब बिल्कुल अप्रासंगिक हो मेरे लिए. और अब से, अपने बाक़ी बचे दिनों में, तुम अप्रासंगिक हरेक के लिए रहोगे. मैं खुश हूं कि मेरे पास मेरी ज़िंदगी है, और तुम्हारी नहीं. और मेरी ज़िंदगी चलती रहेगी.’

(लेखक वरिष्ठ साहित्यकार हैं.)