यूपी: क्या जौनपुर में बाबू सिंह कुशवाहा का राजनीतिक पुनर्वास हो पाएगा

बाहुबली धनंजय सिंह और उनकी पत्नी द्वारा नाटकीय ढंग से भाजपा को समर्थन और दो पुराने नेताओं की लड़ाई ने जौनपुर चुनाव को दिलचस्प बना दिया है.

नौपेड़वा में अखिलेश यादव की सभा में पोस्टर लहराता एक समर्थक. (सभी फोटो: मनोज सिंह)

जौनपुर: लोकसभा चुनाव में यूपी का जौनपुर सबसे अधिक सुर्खियां बटोरने वाला क्षेत्र रहा है. चुनाव की घोषणा के साथ ही यहां लगातार उलटफेर होते रहे हैं. इस सीट की चर्चा बाहुबली नेता धनंजय सिंह और उनकी पत्नी के चुनाव नहीं लड़ पाने और नाटकीय घटनाक्रम में भाजपा का समर्थन करने के कारण और होने लगी. भाजपा के नेतृत्व की इस सीट पर विशेष रुचि भी चर्चा का विषय बनी हुई है.

लेकिन इंडिया गठबंधन से सपा प्रत्याशी बाबू सिंह कुशवाहा पर निगाह कम गयी है, जिनके लिए यह चुनाव 14 वर्ष के राजनीतिक वनवास से पुनर्वास का जरिया बन गया है.

बाबू सिंह कुशवाहा चुनाव भले सपा के टिकट पर लड़ रहे हैं लेकिन खुद एक पार्टी ‘जन अधिकार पार्टी’ के अध्यक्ष भी हैं. उन्हें एक बार चार दिन के लिए भाजपा अपनी पार्टी में शामिल कर चुकी है तो कांग्रेस 2019 के चुनाव में उनकी पार्टी गठबंधन कर चुकी है. समाजवादी पार्टी 2014 में उनकी पत्नी को ग़ाज़ीपुर से चुनाव लड़ा चुकी है.

मायावती के रहे करीबी, भाजपा में हुआ था विरोध

58 वर्षीय बाबू सिंह कुशवाहा कभी बसपा सुप्रीमो मायावती के बेहद करीबी माने जाते थे. यूपी में 2007-12 की मायावती सरकार में उनकी हैसियत दूसरे नंबर की थी लेकिन एनअआरएचएचम घोटाले में उनका राजनीतिक करिअर एक तरह से डूब गया. पहले मंत्री पद गया फिर उन्हें बसपा से निकाला गया. इसके बाद उन्हें एनआरएचएचम घोटाले में जेल जाना पड़ा.

करीब पौने चार वर्ष तक जेल में रहने के बाद उन्हें जमानत मिली. जेल से बाहर आने के बाद उन्होंने अपने को फिर से स्थापित करने के लिए बहुत प्रयास किया लेकिन कामयाबी नहीं मिली.इस लोकसभा चुनाव में सपा से जौनपुर सीट के लिए टिकट मिलना उनके लिए बड़ा पड़ाव माना जा रहा है.

अपने लंबे राजनीतिक जीवन में बाबू सिंह कुशवाहा पहली बार चुनाव लड़ रहे हैं. दो बार एमएलसी रहे और दो बार मंत्री भी रहे लेकिन कभी विधानसभा या लोकसभा चुनाव नहीं लड़ा. एक बार राज्यसभा का लड़े लेकिन हार गए.

एनआरएचएम घोटाले का दाग लगने के बावजूद वे कुशवाहा-मौर्य समाज में अपनी अच्छी पकड़ होने के कारण सभी दलों के लिए महत्वपूर्ण नेता बने रहे.

वर्ष 2012 के विधानसभा चुनाव में उन्हें दिल्ली बुलाकर भाजपा में शामिल किया गया. उस समय भाजपा के राष्ट्र्रीय अध्यक्ष नितिन गडकरी थे. उन्हें भाजपा लाने का मकसद यूपी में पिछड़े वर्ग में अपनी स्वीकार्यता बढ़ाना था लेकिन भाजपा के भीतर और बाहर उनका तगड़ा विरोध हुआ.

भाजपा के तमाम बड़े नेता जिनमें योगी आदित्यनाथ भी शामिल थे, कुशवाहा को भाजपा में लाने का विरोध हुआ. उस समय भाजपा की सहयेगी जनता दल (यू) के नेता एवं बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने भी ऐतराज जताया. लिहाजा चार दिन बाद ही बाबू सिंह कुशवाहा को भाजपा से बाहर का रास्ता दिखा दिया गया.

लेकिन एक वर्ष बाद ही 2013 में समाजवादी पार्टी ने उनकी पत्नी शिवकन्या कुशवाहा और भाई शिवसरन को सपा में शामिल कर लिया. फिर सपा ने 2014 में शिवकन्या कुशवाहा को गाजीपुर लोकसभा से प्रत्याशी बना दिया. शिवकन्या मजबूती से लड़ी लेकिन 32,452 वोट से हार गईं. यहां से मनोज सिन्हा जीते, तो मोदी सरकार में कैबिनेट मंत्री बने. वे इस समय जम्मू कश्मीर के राज्यपाल हैं.

2014 के लोकसभा चुनाव के बाद सपा से बाबू सिंह कुशवाहा की दूरी हो गई. वे एक बार फिर हाशिए पर चले गए.

अपनी पार्टी बनाई

मुकदमे, जेल, जांच में उलझे बाबू सिंह कुशवाहा ने खुद की राजनीति को आगे बढ़ाने की सोची और 9 दिसंबर 2016 में खुद अपनी पार्टी जन अधिकार पार्टी बना ली. पार्टी बनाने का मकसद सभी जातियों को उनकी संख्या के अनुसार समान अधिकार दिलाना था. अपना दल बनाने के बाद जब वह दौरे पर निकले तो उन्हें अपने समाज का अच्छा-खासा समर्थन मिला.

अपनी पार्टी बना लेने के तीन वर्ष बाद 2019 के लोकसभा चुनाव में उनका कांग्रेस से गठबंधन हुआ. कांग्रेस ने उन्हें पांच सीट दी. बाबू सिंह कुशवाहा के भाई शिवसरन झांसी सीट पर कांग्रेस के चुनाव चिह्न पर लड़े तो पत्नी शिवकन्या चंदौली सीट पर जन अधिकार पार्टी से लड़ीं. यह गठबंधन भी काम नहीं आया और कोई सीट नहीं जीत पाए.

वर्ष 2022 में उन्होंने एआईएमआईएम, राष्ट्रीय परिवर्तन मोर्चा, बहुजन मुक्ति मोर्चा, भारतीय वंचित समाज पार्टी जनता क्रांति दल के साथ भागीदारी परिवर्तन मोर्चा बनाया और कुछ सीटों पर चुनाव लड़े लेकिन कोई उल्लेखनीय सफलता नहीं मिली.

बाबू सिंह कुशवाहा को संगठन बनाने की ट्रेनिंग बसपा के संस्थापक कांशीराम से मिली थी. कांशीराम ही उन्हें 1988 में दिल्ली ले गए और छह महीने तक पार्टी का काम कराने के बाद लखनऊ भेज दिया. पांच वर्ष बाद वे बांदा में बसपा के जिलाध्यक्ष बन गए. बसपा में उनका कद बढ़ता रहा. उन्हें पूरे प्रदेश में संगठन निर्माण का जिम्मा दिया गया. बसपा जब 2003 में सत्ता में आई तो उन्हें पंचायती राज मंत्री बनाया गया. चार वर्ष बाद अपने बूते पहली बार बसपा की सरकार बनी तो उन्हें खनिज, नियुक्ति, सहकारिता और फिर स्वास्थ्य मंत्रालय से अलग किए गए परिवार कल्याण विभाग का मंत्री बनाया गया.

कहा जाता है कि वे बसपा का फंड मैनेजमेंट का भी काम देखते थे और बसपा सुप्रीमो मायावती उन पर अत्यधिक विश्वास करती थी लेकिन एनआरएचएम घोटाले के साथ-साथ एक सीएमओ और एक डिप्टी सीएमओ की हत्या के बाद यूपी की राजनीति में भूचाल आ गया. इस घटना ने बसपा के अंदर झगड़े तो बढ़ाए ही विपक्ष को सरकार को घेरने का मौका मिला. दो वर्ष बाद ही हुए विधानसभा चुनाव में बसपा सरकार का पतन हो गया.

एनआरएचएम घोटाले के उजागर होने के बाद सीएमओ-डिप्टी सीएमओ की हत्या को लेकर बाहुबली धनंजय सिंह पर भी उंगली उठी थी जो उस समय बसपा में थे और जौनपुर के मल्हनी से विधायक चुने गए थे. करीब 14 वर्ष बाद समय का पहिया ऐसा घूमा कि ये दोनों नेता जौनपुर के चुनावी संग्राम में आ मिले. धनंजय सिंह को भाजपा प्रत्याशी कृपाशंकर सिंह के लिए चुनाव मैदान खाली ही नहीं करना पड़ा बल्कि समर्थन में भी खड़ा होना पड़ा.

इसके पहले पूर्व आईएएस अभिषेक सिंह भाजपा या उसके सहयोगी दलों के समर्थन से चुनाव लड़ने की तैयारी कर रहे थे लेकिन उनको भी टिकट नहीं मिला.

अप्रत्याशित उम्मीदवार

भाजपा और सपा प्रत्याशियों के नाम की घोषणा प्रदेश व जौनपुर के लोगों के लिए अप्रत्याशित थी. कृपाशंकर सिंह लंबे समय तक कांग्रेस में रहे और महाराष्ट्र्र के गृह राज्य मंत्री भी बने. उन्होंने 2019 में कांग्रेस छोड़ दी और फिर भाजपा में शामिल हो गए. उन्हें जौनपुर लाकर चुनाव लड़ाने और जीत के रास्ते को निष्कंटक बनाने में भाजपा के शीर्ष नेतृत्व की रुचि को अलग तरह से परिभाषित किया जा रहा है.

कहा जा रहा है कि भाजपा के शीर्ष नेतृत्व की यूपी में एक और ठाकुर नेता को उभारने की योजना है. इसलिए जौनपुर खास बन गया है. बसपा द्वारा आखिर समय में वर्तमान सासंद श्याम सिंह यादव को प्रत्याशी बनाने को भी भाजपा की मदद के बतौर देखा जा रहा है.

श्याम सिंह यादव के चुनाव लड़ने से यादव बिरादरी में विभाजन होता नहीं दिख रहा है.

जौनपुर में अटाला मस्जिद के पास चाय की दुकान पर दूध देने आए मुलायम यादव और नंदू यादव ने पहले दूध की कम बिक्री की बात की और चुनावी चर्चा छिड़ते ही कहा कि सपा जीतेगी. ‘हमारा झुकाव बसपा में नहीं बल्कि बसपा का वोट भी हमारे तरफ आ रहा है.’

सपा समर्थकों का जोश चुनाव प्रचार के आखिरी दिन नौपेड़वा में सपा अध्यक्ष अखिलेश यादव की सभा में दिखा. नौपेड़वा के तीन किलोमीटर पहले पहले अपना नाम मौर्या जी बता रहे व्यक्ति ने मुस्कराते हुए कहा कि माहौल अच्छा है. अखिलेश यादव की सभा में जा रहे नौजवानों से पूछने पर एक नौजवान बोला कि माहौल बहुत अच्छा है तो दूसरे ने कहा कि ‘माहौल आपको दिख नहीं रहा क्या? माहौल अच्छा नहीं एकतरफा है. एक लाख वोट से जीत पक्की है.’

आसान नहीं है मुकाबला

लेकिन लड़ाई इतनी भी आसान नहीं है. भाजपा प्रत्याशी के साथ क्षत्रिय बिरादरी एकजुट दिख रही है. कहीं-कही वे धनजंय सिंह प्रकरण को लेकर तो कहीं बेरोजगारी, महंगाई के सवाल को नाराजगी दिखा रहे हैं लेकिन भाजपा नेताओं का मानना है कि वे आखिर में हमारे साथ ही रहेंगे.

भाजपा पिछड़ी जातियों विशेषकर कुशवाहा-मौर्य के साथ-साथ निषाद वोटरों को अपने साथ जोड़े रखने में मशक्कत करती दिख रही है. यह जरूर है कि भाजपा के वोटर इस बार खामोश हैं जबकि ‘इंडिया’ गठबंधन के वोटर बहुत मुखर हैं.

दोनों दलों की नजर बसपा के कोर वोटर पर है. बसपा में लंबे समय तक रहने की वजह से बाबू सिंह कुशवाहा की हर जिले में बसपा कैडर से अच्छी जान पहचान है. इसका वो भरपूर फायदा उठाते दिख रहे हैं.

समाजवादी पार्टी ने ‘पीडीए’ प्रयोग के तहत जौनपुर में बाबू सिंह कुशवाहा को मैदान में उतारकर आस-पास की सीटों पर कुशवाहा बिरादरी को अपने साथ लाने की कोशिश की है.

बांदा जो कि बाबू सिंह कुशवाहा का गृह जनपद है वहां भी उन्होंने सपा अध्यक्ष अखिलेश यादव के साथ सभा की. गाजीपुर के सपा प्रत्याशी वर्तमान सांसद अफजाल अंसारी भविष्यवाणी कर रहे हैं कि बाबू सिंह कुशवाहा एक लाख वोट से जीतेंगे. यह कह कर वे अपने क्षेत्र में कुशवाहा बिरादरी को अपनी तरफ आकर्षित कर रहे हैं.

आजमगढ़ में सेहदा गांव में कुशवाहा-मौर्य बिरादरी अच्छी खासी संख्या में है. यहां एक नौजवान ने बताया कि गांव से दो गाड़ी में बिरादरी के लोग बाबू सिंह कुशवाहा का प्रचार करने जौनपुर जाते हैं.

यहीं मिले राजाराम मौर्य ने कहा, ‘राजनीति एगो दुकान अउर सर्कस की तरह है. ई दुकानन में अपनो दुकान लग गइल त ठीके बा ना. स्वामी प्रसाद मौर्य, बाबू सिंह कुशवाहा आपन है चाहें जहां से लड़ें. बाबू सिंह कुशवाहा के देख के हमन के साइकिल की तरफ जात हईं.’ (राजनीति एक दुकान और सर्कस की तरह है. इसमें अपनी भी दुकान लग तो ठीक ही है न. स्वामी प्रसाद मौर्य, बाबू सिंह कुशवाहा अपने ही हैं, चाहे जहां से चुनाव लड़ें. बाबू सिंह कुशवाहा को देखकर हम साइकिल की तरफ जा रहे हैं.)

जौनपुर में भाजपा और सपा प्रत्याशी संसाधनों के धनी हैं. इसलिए जौनपुर में चुनाव प्रचार अन्य क्षेत्रों के मुकाबले ज्यादा चमक-दमक वाला है. गौरतलब है कि दोनों ही प्रत्याशी जौनपुर के लोगों के लिए बाहरी हैं, और अपना राजनीतिक मुक़ाम ढूंढ रहे हैं.

हालांकि कृपाशंकर सिंह मूल रूप से जौनपुर सहोदपुर के रहने वाले हैं लेकिन वे मुंबई में राजनीति करते रहे. देखना होगा कि जौनपुर किसका साथ देता है.

(लेखक गोरखपुर न्यूज़लाइन वेबसाइट के संपादक हैं.)