केंद्र ने पराली जलाने वाले किसानों को न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) जैसे लाभ से वंचित करने की दिशा में कदम उठाना शुरू कर दिया है. केंद्र ने पंजाब, हरियाणा, दिल्ली और राजस्थान की सरकारों को निर्देश दिया है कि वे फसल काटने के बाद पराली जलाने वाले किसानों की पहचान करें और उनके खेत के रिकॉर्ड पर ‘रेड एंट्री’ अंकित करें.
पिछले साल किसानों को कई लाभों से वंचित करने वाली ‘रेड एंट्री’ पंजाब में केवल 2.6% मामलों में लागू की गई थी. केंद्र सरकार हतोत्साहन के लिए और पराली जलाने वाले किसानों को एमएसपी के लाभ से बाहर करने को लेकर गंभीर दिख रही है, ऐसे में यह आंकड़ा बढ़ सकता है.
इस नीति के कार्यान्वयन की दिशा में आगे बढ़ते हुए केंद्र ने पराली जलाने वाले किसानों को एमएसपी बुनियादी ढांचे के दायरे से बाहर करने की सुप्रीम कोर्ट की सिफारिश का हवाला दिया है. नवंबर 2023 में शीर्ष अदालत ने पंजाब और दिल्ली से सटे अन्य राज्यों में पराली जलाने को हतोत्साहित करने के लिए यह सुझाव दिया था.
कांग्रेस ने पराली जलाने पर किसानों को एमएसपी का लाभ बंद करने के केंद्र के कदम का विरोध करते हुए कहा है कि दिल्ली में प्रदूषण के कई कारणों पर व्यापक विचार करने के बजाय, सरकार किसानों को परेशान करने की योजना बना रही है.
एमएसपी-खरीद प्रणाली, जिसने शुरुआत में हरित क्रांति को एक शानदार सफलता बनाने में योगदान दिया था, ने कृषि क्षेत्र में कई विकृतियां भी पैदा की हैं. कृषि क्षेत्र में सब्सिडी सुधार लंबे समय से लंबित है. लेकिन एमएसपी को हतोत्साहित कर लागू करना चुनौतीपूर्ण और राजनीतिक रूप से पेचीदा होगा.
किसानों के ख़िलाफ़ जुर्माने और दंडात्मक कार्रवाई का मुद्दा 2020-21 के किसानों के विरोध प्रदर्शन में भी उठाया गया था.
इस महीने की शुरुआत में सुप्रीम कोर्ट ने एक जनहित याचिका (पीआईएल) पर केंद्र सरकार से इनपुट मांगा था. ‘द सिख चेंबर ऑफ कॉमर्स’ के प्रबंध निदेशक एग्नोस्टोस थियोस द्वारा दायर इस याचिका का उद्देश्य मूल्य स्थिरीकरण कोष की स्थापना सहित किसानों के कल्याण के लिए व्यापक उपायों को लागू करना है.
कृषि अधिकार याचिका में मांग की गई है कि सरकार भारतीय किसानों पर आजीविका के प्रभाव का विश्लेषण करने के बाद ही विश्व व्यापार संगठन या किसी मुक्त व्यापार समझौते पर बातचीत करे. जनहित याचिका में कहा गया है कि किसानों की उपज के लिए उचित लाभकारी मूल्य के बिना दूसरी हरित क्रांति संभव नहीं है और उचित एमएसपी पर सार्वजनिक वितरण प्रणाली में अनाज और दालों को शामिल करने की आवश्यकता है. कृषि वस्तुओं की कीमतों में व्यापक उतार-चढ़ाव की स्थिति में किसानों को समर्थन देने के लिए मूल्य स्थिरीकरण कोष की स्थापना की मांग के अलावा, याचिका में कृषि वस्तुओं के सस्ते आयात से बचने की भी मांग की गई है। जनहित याचिका में संसाधन विहीन कृषक परिवारों के लिए कृषि उपकर लगाने, 4% ब्याज दर पर कृषि ऋण और जीएसटी के माध्यम से मूल्य अस्थिरता पर खाद्य मुद्रास्फीति को नियंत्रित करने के लिए एकल कृषि बाजार की मांग की गई है.
जस्टिस सूर्यकांत और केवी विश्वनाथन की पीठ ने याचिकाकर्ता को और अधिक गहन शोध करने की सलाह दी. जस्टिस कांत ने सुनवाई के दौरान पूछा, ‘आपको बेहतर होमवर्क, शोध करने की जरूरत है. दलीलें टालमटोल वाली हैं. क्या आपने विशेषज्ञों की रिपोर्ट पढ़ी है?’ जस्टिस विश्वनाथन ने सवाल किया, ‘मूल्य स्थिरीकरण कोष का वित्तपोषण कौन करेगा?’
जून 2020 में सरकार द्वारा घोषित कृषि कानूनों का किसान समुदाय द्वारा विरोध किया गया था, इस चिंता के साथ कि ये कानून विनियमित थोक बाजारों की भूमिका को कमजोर कर देंगे, बड़े कृषि व्यवसायों के लिए अनियमित तरीके से किसानों के साथ सीधे व्यापार करना आसान बना देंगे, और एमएसपी को चरणबद्ध तरीके से समाप्त कर देंगे.
इसमें कोई संदेह नहीं है कि एमएसपी प्रणाली में कई विसंगतियां हैं. चूंकि कृषि इनपुट रियायती कीमतों पर उपलब्ध हैं, इसलिए इनपुट और संसाधनों की किफायत के लिए प्रोत्साहन अपर्याप्त रहे हैं. परिणामस्वरूप, वास्तविक उत्पादन लागत लगातार बढ़ रही है. हालांकि, सरकार के पास कई फसलों के लिए एमएसपी की घोषणा करने की प्रथा है, लेकिन ये न्यूनतम कीमतें आम तौर पर केवल गेहूं और चावल के लिए प्रभावी रही हैं. पंजाब, हरियाणा और पश्चिमी उत्तर प्रदेश के हरित क्रांति बेल्ट के बाहर के किसानों की जरूरतों को पूरा नहीं करने के लिए भी एमएसपी खरीद प्रणाली की आलोचना की गई है.
किसानों को डर है कि एमएसपी और खरीद संचालन के माध्यम से दिए गए मूल्य आश्वासन के बिना, उन्हें बढ़े हुए उत्पादन के लिए पुरस्कृत होने के बजाय फसल के बाद कीमत में गिरावट के साथ भारी नुकसान का खतरा बना रहता है.
सार्वजनिक वितरण प्रणाली को बनाए रखने के लिए, जिसका राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा अधिनियम के कार्यान्वयन के परिणामस्वरूप काफी विस्तार हुआ है, एमएसपी और सार्वजनिक खरीद को जारी रखना पड़ सकता है.
इस साल मार्च में शुरू किए गए किसान आंदोलन 2.0 और कृषि कानूनों पर जनहित याचिका ने देश में कृषि सुधारों पर बहस को पुनर्जीवित कर दिया है.
यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि केंद्र सरकार और किसानों का एक वर्ग कृषि विधेयकों पर लंबे समय से गतिरोध में उलझा हुआ है. कृषि सुधारों का सफल कार्यान्वयन केवल उचित कानूनों को डिजाइन करना ही नहीं है, बल्कि राजनीतिक रूप से उनके सफल कार्यान्वयन का प्रबंधन भी करना है.
सरकार के लिए कृषक समुदाय की उन आशंकाओं को दूर करना जरूरी है कि कृषि विपणन को अनियंत्रित बाजार ताकतों और बड़े निगमों के हवाले छोड़ दिया जाएगा.
कृषि में आधुनिक प्रौद्योगिकी और मशीनीकरण की शुरूआत के साथ भी, सरकार को किसानों और उपभोक्ताओं दोनों के हित में बाजार शक्तियों का सक्रिय मध्यस्थ बने रहना पड़ सकता है.
(वैशाली रणनीतिक और आर्थिक मसलों की विश्लेषक हैं)