वह समाज जहां
पुरुष के भीतर के स्त्रीत्व की हत्या
बचपन से धीरे-धीरे की जाती है
उसके भीतर की स्त्री भी
एक दिन भागकर
किसी विश्वविद्यालय में ही बच पाती है
विश्वविद्यालय में ही युवा
इतिहास, भूगोल, गणित पढ़ते हुए
सीखते हैं समाज बदलना
और अपने लिए नहीं
दूसरों के हक़ के लिए भी घर से निकलना
वे धीरे-धीरे पुरुष से मनुष्य होना सीखते हैं
और साथ संघर्ष करती स्त्रियों को भी
देह से ज़्यादा जानने, समझने लगते हैं
विश्वविद्यालय के युवा
आदमी के हक़ की आवाज़ उठाते हैं
व्यवस्था के लिए किसी आदमी को
मशीन-भर हो जाने से बचाते हैं
लाश भरकर घर से दफ़्तर
और दफ़्तर से घर लौटते आदमी को
ज़िंदा होने की वजह बताते हैं
एक आत्मा-विहीन समाज
जो पुरुषों को स्त्रियों से
सामूहिक दुष्कर्म करना सिखाता है
और उसकी हर हत्या पर
चुप्पी साधे रहता है
जहां सदियों से यही रीति चलती है
उसी समाज के किसी विश्वविद्यालय में
साथ पढ़ती, लड़ती स्त्रियां
घेरकर एक पुरुष को
पुलिस के निर्मम डंडों से बचाती हैं
विश्वविद्यालय ही ऐसा कर सकता है
किसी समाज को बेहतर बनाने की नज़ीर
विश्वविद्यालय से ही निकल सकती है
इस धरती को सुन्दर बनाने वाली
समय की सबसे सुन्दर तस्वीर
जसिंता केरकेट्टा की कविता ‘समय की सबसे सुंदर तस्वीर’ हिंदी की दुर्लभ कविताओं में गिनी जाएगी. अपने विषय के कारण और उस विषय को जिस तरह उठाया गया है, उस वजह से भी. विश्वविद्यालय या उसके जीवन पर कितना लिखा गया है? आधुनिक संवेदना निर्माण में विश्वविद्यालय की महत्त्वपूर्ण भूमिका है. वैयक्तिक और सामूहिक. फिर भी वह कविता का विषय कितना बन पाता है?
जसिंता की कविता बतलाती है कि विश्वविद्यालय ज़िंदगी और दुनिया के प्रति हमारे पारंपरिक नज़रिये को बदलने का काम करते हैं. उसका मतलब यह भी है कि वे सोचने और महसूस करने की बनी बनाई परिपाटी को तोड़ते हैं. इनमें सबसे बुनियादी है जेंडर. वह वैयक्तिक और सामूहिक संबंधों में हमारी भूमिका तय करता है.
पुरुष के बदलने और मनुष्य के रूप में बचने की राह विश्वविद्यालय में मिलती और खुलती है. रामधारी सिंह दिनकर ने अपनी एक कविता में आदर्श मनुष्य की कल्पना अर्धनारीश्वर के रूप में की है. उसके लिए पुरुष के भीतर के स्त्रीत्व को जीवित करना आवश्यक है. समाज उसे बचपन से मार-मारकर पुरुष को पुरुष बनाता है. विश्वविद्यालय उसे बचाए रखने की जगह देता है:
उसके भीतर की स्त्री भी
एक दिन भागकर
किसी विश्वविद्यालय में ही बच पाती है
वर्चस्व के पुराने समीकरण का अस्वीकार विश्वविद्यालय जीवन की पहली सीख है. वह चले आ रहे सामाजिक जीवन में दीक्षा नहीं है, उसके विरुद्ध एक नई सीख का आरंभ है:
वे धीरे-धीरे पुरुष से मनुष्य होना सीखते हैं
और साथ संघर्ष करती स्त्रियों को भी
देह से ज़्यादा जानने, समझने लगते हैं
पुरुषों और औरतों के बीच एक नया रिश्ता भी हो सकता है जो भाई बहन, प्रेमी प्रेमिका से भिन्न हो.
हम अध्यापक होने के कारण जानते हैं कि विश्वविद्यालय लड़कियों या युवा स्त्रियों के लिए किस प्रकार एक मुक्त क्षेत्र हैं. क्यों वे अपने घरों से दूर परिसर में ज़्यादा से ज़्यादा समय बिताना चाहती हैं? यहां उन्हें नया संग-साथ ही नहीं मिलता, बल्कि उनके लिए घरों में दुर्लभ एकांत भी यहां उन्हें मिलता है. एकाकीपन नहीं.
जसिंता के यह कविता इसके बारे में नहीं है. वह पुरुष की मुक्ति के बारे में है. पुरुष और स्त्री के बीच के रिश्ते के बदलने के बारे में.
कविता पढ़ रहा था और उसी वक्त खबर देखी कि दिल्ली के जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय (जेएनयू) परिसर में एक सफ़ाई कर्मचारी ने फांसी लगा ली. जेएनयू के छात्र संघ ने उसके लिए शोक सभा की. याद आया कि कोरोना संक्रमण के समय जेएनयू के सफ़ाई कर्मचारियों की तनख़्वाह उन्हें पूरी और वक्त से दिए जाने के लिए छात्र संगठन कुलपति से मांग कर रहे थे. उसके भी कई बरस पहले के छात्र संघ के उस आंदोलन की याद है जो परिसर में निर्माण कार्य में लगे हुए मज़दूरों को पर्याप्त मेहनताना दिए जाने के लिए छात्र कर रहे थे.
दिल्ली विश्वविद्यालय में वे अस्थायी श्रमिकों के उनके ठेकेदारों से शोषण के ख़िलाफ़ रिपोर्ट तैयार कर रहे थे. इनमें से कोई भी फ़ीस कम करने, अपने लिए हॉस्टल में सुविधा को बढ़ाने की मांग जैसी छात्र हित की मांग नहीं थी. यही विश्वविद्यालय सिखलाते हैं:
विश्वविद्यालय में ही युवा
इतिहास, भूगोल, गणित पढ़ते हुए
सीखते हैं समाज बदलना
और अपने लिए नहीं
दूसरों के हक़ के लिए भी घर से निकलना
यह पूरी दुनिया के परिसर बतलाते है. पिछली सदी के 60 के दशक में यूरोप के परिसरों में छात्रों के विद्रोह ने यूरोप के समाज को बदल दिया. उसी तरह अमेरिका के परिसर अपने ही देश के ख़िलाफ़ उठ खड़े हुए जब उसने वियतनाम पर हमला किया. विश्वविद्यालय परिसर वियतनाम युद्ध के विरोध के केंद्र बन गए थे. उसी तरह जैसे आज इज़रायल द्वारा फ़िलिस्तीनियों के जनसंहार और उसे शह देने में अमेरिका की भूमिका के ख़िलाफ़ अमेरिका और यूरोप के परिसरों में छात्र और उनके शिक्षक उठ खड़े हुए हैं. छात्रों का यह विरोध सत्ता के लिए सबसे बड़ा सिरदर्द बन गया है क्योंकि वह जनमत को तेज़ी से इज़रायली हिंसा के ख़िलाफ़ गोलबंद कर रहा है.
युद्ध विरोध का मतलब है पौरुष की पुरानी संवेदना की जकड़न को तोड़ना. हर युद्ध राष्ट्र के नाम पर लड़ा जाता है इसलिए युद्ध विरोध वह एक तरफ़ से राष्ट्रवाद का विरोध है जो पौरुष का ही दूसरा रूप है. यह आश्चर्य नहीं कि अमेरिकी परिसरों में यहूदी छात्र इज़रायल के ख़िलाफ़ बड़ी तादाद में इस विरोध में शामिल हैं.
विश्वविद्यालय की सबसे बड़ी शिक्षा अगर कोई है तो वह है दूसरों से हमदर्दी. दूसरे यानी वे जिनसे मनुष्यत्व के अलावा हमारा और कुछ नहीं मिलता: न जेंडर, न धर्म, न भाषा, न राष्ट्रीयता.
ठीक ही था कि भारत में 2019 में जब संसद ने नागरिकता के क़ानून में संशोधन का क़ानून पारित कर दिया तो उसका सबसे प्रबल विरोध परिसरों से हुआ. जेएनयू, जामिया मिलिया इस्लामिया, अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी के छात्रों ने इस सांप्रदायिक क़ानून का विरोध यह ख़तरा उठाकर किया कि उन्हें राष्ट्रविरोधी कहा जाएगा. उस आंदोलन का भयंकर दमन हुआ.
उस आंदोलन का अहम सब कुछ भूल जाएं, उस एक तस्वीर को नहीं भुला सकते जो छात्रों के इस आंदोलन को परिभाषित करती है. दो छात्राएं एक युवक को पुलिस के डंडों से बचा रही हैं. जसिंता की कविता उस तस्वीर को याद करती है:
…समाज के किसी विश्वविद्यालय में
साथ पढ़ती, लड़ती स्त्रियां
घेरकर एक पुरुष को
पुलिस के निर्मम डंडों से बचाती हैं
जब छात्रों के इस आंदोलन को कुचल दिया गया तब दिल्ली के शाहीन बाग की औरतों ने अपना मशहूर धरना शुरू किया. वे मुसलमान औरतें थीं. धीरे-धीरे पूरी दिल्ली में जगह जगह मुसलमान औरतों ने धरने शुरू किए. इन धरनों का साथ देने पहुंचीं विश्वविद्यालयों की औरतें. अपने लिए परिसर में आज़ादी मांगने वाली ‘पिंजरा तोड़’ संगठन की युवा औरतें.
आज पूरा भारत नताशा नरवाल, देवांगना कलीता को जानता है. दो छात्राएं, ‘पिंजरा तोड़’ की सदस्य, जिन्हें दिल्ली पुलिस ने सरकार के ख़िलाफ़ साज़िश के इल्ज़ाम में गिरफ़्तार किया. वे मुसलमान नहीं हैं. लेकिन मुसलमान औरतों के साथ खड़ा होना उन्हें अपना फर्ज मालूम हुआ. वे उनके धरनों में शामिल हुईं. उसकी क़ीमत उन्होंने चुकाई. संकीर्ण राष्ट्रवादी संवेदना के दुर्ग को तोड़ने की उनकी हिमाक़त के लिए उन्हें सज़ा मिली. लेकिन यह उन्होंने सीखा विश्वविद्यालय परिसर में ही.
नताशा और देवांगना ने अपनी आवाज़ मिलाई मुसलमान औरतों की आवाज़ में. परिसर में हम अपनी आवाज़ तो हासिल करते ही हैं जो सामूहिक आवाज़ में अलग से पहचानी जा सकती हो, हम नई क़िस्म की सामुदायिकता के सदस्य भी बनते हैं. हम सहमति और असहमति के मूल्य को भी पहचानते हैं. इस बात को जानते हैं कि फ़ैसला करने के पहले सबसे अधिक ज़रूरी है समझना. वह बोलना तो सिखलाता है, लेकिन उससे अधिक ज़रूरी चीज़, यानी सुनना भी सिखलाता है.
हमारी आदत को जब परिसर में चुनौती मिलती है, तब उसका सामना करने का धीरज हम अपनी कक्षाओं और उनके बाहर सीखते हैं. सहमति से अधिक मूल्यवान असहमति है, यह भी परिसर की ही सीख है. वाद और विवाद का लक्ष्य संवाद है, यह परिसर हमें बतलाते हैं. जब हम अपने से असहमत से संवाद को आगे बढ़ते हैं तो उसकी मनुष्यता को सबसे पहले स्वीकार करते हैं. यही जनतांत्रिक स्वभाव है. हम सिर्फ़ ख़ुद से भिन्न लोगों के समुदाय के हिस्सा नहीं बनते, जिन विचारों में रहने का सुविधापूर्ण अभ्यास हमें रहा है, उनसे भिन्न वैचारिक सामुदायिकता में प्रवेश का साहस परिसर हमें देता है. वह हमें बदलता है.
जाने कितने ऐसे युवकों से हमारी मुलाकात होती रही है जिनकी आरंभिक शिक्षा राष्ट्रवाद की थी या अपने धार्मिक समुदायों के सदस्य होने की ट्रेनिंग लेकर जो परिसर में आए थे. परिसर उन्हें मुक्त करता है, खुलापन देता है, अपनी सरहदों से पार जाने के लिए उन्हें आमंत्रित करता है. विचारों के एडवेंचर के बिना जनतंत्र की कल्पना कैसे करें? परिसर इस एडवेंचर की जगह हैं. इसलिए परिसरों के युवकों का अपने परिवारों और समुदायों से टकराव स्वाभाविक है. ‘ढेर पढ़ गए हो!’ की भर्त्सना आज की नहीं है. उसका जवाब चुप्पी नहीं है, बल्कि यह है कि ढेर पढ़ने ही तो वहां गए थे!
(लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय में पढ़ाते हैं.)
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